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पाक अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग

04:30 AM Aug 02, 2025 IST | Rakesh Kapoor
पाक अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग

पाकिस्तान के खिलाफ हुए ऑपरेशन सिन्दूर पर संसद के दोनों सदनों में हुई गर्मागर्म बहस के दौरान जिस प्रकार पाक अधिकृत (गुलाम) कश्मीर का मुद्दा उठा उससे एक बार फिर साबित हो गया कि भारत कश्मीर के इस हिस्से को लिये बिना चैन से नहीं बैठेगा। वैसे तकनीकी तौर पर देखा जाये तो यह हिस्सा भारतीय संघ का आज भी हिस्सा है जिसे पाकिस्तान ने 1948 में हड़प लिया था। कश्मीर में पाकिस्तान की स्थिति एक आक्रमणकारी देश की है , यह भी 1949 में भारत ने राष्ट्रसंघ में सिद्ध कर दिया था। जम्मू-कश्मीर रियासत के 26 अक्तूबर 1947 को भारतीय संघ में विलय के समय जिस प्रकार पाकिस्तान ने अपने सशस्त्र कबायलियों को कश्मीर पर हमला करने भेजा था उसकी पोल भी राष्ट्रसंघ में 1949 में खुल गई थी क्योंकि पाकिस्तान ने स्वीकार कर लिया था कि उसकी सेनाओं ने भी कश्मीर के मोर्चे पर भारत की सेनाओं का मुकाबला किया था। मगर दिसम्बर 1947 में ही भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू इस मसले को लेकर राष्ट्रसंघ में चले गये थे जिसकी वजह से कश्मीर समस्या का अन्तर्राष्ट्रीय करण हो गया था।
इसके बाद राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद ने 1948 में हस्तक्षेप किया और 30 दिसम्बर 1948 को दोनों देशों के बीच युद्ध विराम की घोषणा हुई मगर तब तक कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में जा चुका था। इसके बाद जनवरी 1949 में राष्ट्रसंघ ने पूरे जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह इसके द्वारा नियुक्त आयोग की निगरानी में कराने का प्रस्ताव पारित किया। पं. नेहरू ने ही शुरू में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव किया था। 7 जनवरी 1949 को आयोग ने जनमत संग्रह कराने की शर्तों को प्रकाशित भी कर दिया। उस समय नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्यमन्त्री थे। पाकिस्तान ने शर्त रखी थी कि जनमत संग्रह से पूर्व शेख अब्दुल्ला की सरकार को पदमुक्त किया जाये और रियासत में तैनात भारतीय सेना को भी हटाया जाये। मगर भारत ने इन दोनों शर्तों को मानने से इंकार कर दिया था। मूल प्रस्ताव में यह शर्त थी कि पाकिस्तान गुलाम कश्मीर से अपनी सेनाएं हटायेगा और भारत को यह हक होगा कि वह चुनाव या जनमत संग्रह कराने के लिए आवश्यक सरकारी अमला व फौज को रखे। उस समय के अखबारों में 8 जनवरी 1949 को छपा था कि ‘’संयुक्त राष्ट्र के कमीशन ने जनमत संग्रह की शर्तों को प्रकाशित कर दिया है जिसके आधार पर यह निर्णय किया जायेगा कि जम्मू-कश्मीर रियासत भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसके साथ शामिल होगी। आयोग की शर्तों से स्पष्ट हो जाता है कि जनमत संग्रह पूरी तरह निष्पक्ष व स्वतन्त्र होगा। जब पं. जवाहर लाल नेहरू ने जब शुरू में जनमत संग्रह का प्रस्ताव रखा था तो उहोंने किसी मानसिक संकोच या दुराव-छिपाव से काम नहीं लिया था’। कमीशन के प्रस्ताव में यह शर्त भी थी कि जनमत संग्रह व्यवस्थापक को राष्ट्रसंघ ही मनोनीत करेगा मगर उसकी नियुक्ति की घोषणा जम्मू-कश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार ही करेगी और मतसंग्रह के लिए उसे जरूरी अधिकार भी राज्य सरकार ही देगी। मत संग्रह व्यवस्थापक एेसा व्यक्ति होगा, जिसकी अन्तर्राष्ट्रीय जगत मंे ऊंची ख्याति होगी और जिस पर सभी को विश्वास होगा। भारतीय फौज भी रियासत में बनी रहेगी। उसे कहां– कहां और कितनी संख्या में रखा जायेगा इसका फैसला सूबे की सुरक्षा और जनमत संग्रह की स्वतन्त्रता को ध्यान में रख कर किया जायेगा।’
पाकिस्तान चाहता था कि उसकी फौजें भी जम्मू-कश्मीर में रहे और शान्ति–व्यवस्था बनाने में उनकी भी मदद ली जाये। इसे एक सिरे से नकार दिया गया। इस घटना क्रम का यदि आज विश्लेषण किया जाये तो हम पायेंगे कि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर का जो इलाका हड़प रखा है वह शत-प्रतिशत रूप से भारत का ही हिस्सा है और 26 अक्तूबर 1947 को भारतीय संघ में हुए इसके विलय का चीखता हुआ प्रमाण है। आज का दीगर सवाल यह है कि भारत इस इलाके को किस प्रकार भारतीय संघ में समाहित करे। इस सिलसिले में 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त किया जाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण पड़ाव है। संविधान में यह अनुच्छेद सिर्फ जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में ही जोड़ा गया था और यह काम संविधान सभा में ही हुआ था। इसे मूल रूप में ही अस्थाई रखा गया था। इसे समाप्त करने से पिछली सरकारों के कदम डगमगाते थे क्योंकि इस सूबे के क्षेत्रीय दल इस मुद्दे पर केन्द्र से सीधे भिड़ जाते थे और धमकियां देने पर उतारू हो जाते थे। साथ ही अलगाववादी ताकतें अलग से सक्रिय हो जाती थीं। मगर वर्तमान मोदी सरकर के गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने सभी प्रकार की आशंकाओं को बरतरफ करते हुए यह एेतिहासिक कार्य कर डाला और कश्मीर के विलय को अन्य राज्यों के समकक्ष ही रखा। इसके बाद राज्य की परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन आना शुरू हुआ। जिसकी वजह से राज्य में पर्यटकों की संख्या में साल दर साल इजाफा होता रहा। ऑपरेशन सिन्दूर पर संसद में हुई बहस के दौरान भी गुलाम कश्मीर का मामला सामने आया और गृहमन्त्री ने पुरजोर तरीक से एलान किया कि एक न एक दिन यह भारत में मिल कर रहेगा। गृहमन्त्री तो यहां तक कह गये कि कांग्रेस की सरकारों ने इसे पाकिस्तान को दिया मगर भाजपा सरकार इसे वापस लायेगी। दर असल यह संकल्प का मामला है क्योंकि सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति का ही यह प्रतिबिम्ब होता है। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को जिन्दा रखने के लिए ही अपनी सेनाओं को अभी तक पाला–पोसा है। तभी तो कहा जाता है कि पाकिस्तान पूरी दुनिया में एेसा एकमात्र देश है जिसकी सेना नहीं है बल्कि एेसी फौज है जिसका अपना मुल्क है। इस बात का मतलब बहुत गहरा होता है जो पाकिस्तान को एक नाजायज मुल्क घोषित करता है।
पाकिस्तान ने पिछले 76 सालों के दौरान गुलाम कश्मीर के जन भूगोल को ही बदल कर रख दिया है। गुलाम कश्मीर से कश्मीरी बोलने वाले कम होते जा रहे हैं । यहां के कश्मीरी लोगों के मानवीय अधिकारों को कदम-कदम पर कुचला जाता है। इसलिए रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह का यह कथन फिजूल नहीं है कि एक दिन एेसा भी आयेगा जब गुलाम कशमीर के लोग खुद भारत में मिलने की अलख जगायेंगे। दर असल पिछले 77 सालों के दौरान एेसे भी कई मौके आये हैं जब कश्मीर समस्या का हल होते-होते रह गया। एक अवसर स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार मंे भी आया था। इससे पहले 1964 में भी नेहरू सरकार के दौरान एेसा मौका आया था। पं. नेहरू ने 1964 में शेख अब्दुल्ला को नजरबन्दी से मुक्त कर पाकिस्तान भेजा था। पाकिस्तान मंे उस समय जनरल अयूब का फौजी शासन था। जनरल अयूब ने शेख अब्दुल्ला का स्वागत बहुत गर्म जोशी के साथ किया था। मगर जब शेख अब्दुल्ला भारत वापस लौट गये तो उन्हें ‘नेहरू का गुर्गा’ भी बता डाला।
इसके बावजूद शेख अब्दुल्ला जनरल अयूब को भारत की यात्रा करने की सलाह देकर आये थे और जनरल अयूब इसके लिए राजी भी हो गये थे। 27 मई 1964 को पं. जवाहर नेहरू स्वर्ग सिधार गये। इस दिन शेख अब्दुल्ला गुलाम कश्मीर के मुजफ्फराबाद में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कह रहे थे कि कश्मीर समस्या का हल जल्दी ही निकलेगा मगर तभी उन्हें सभा के बीच में सूचना दी गई की पं. नेहरू का स्वर्गवास हो गया है। अतः वह योजना क्या थी कोई नहीं जान सका। लेकिन अब मोदी सरकार से भारत की जनता को अपेक्षा है कि गुलाम कशमीर को भारत का अंग जल्दी ही बना लिया जायेगा।

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