बलूचिस्तान में पाकिस्तानी अत्याचार : भूला हुआ नरसंहार
कई दशकों से बलूचिस्तान ख़ामोश कराई गई आवाज़ों की कब्रगाह बना हुआ है। पहाड़ी इलाकों और खनिजों से भरपूर ज़मीन के नीचे गुमशुदगियों, सामूहिक कब्रों और सिर्फ़ सुने जाने की गरिमा के लिए लड़ते लोगों की दर्दनाक कहानी छिपी है। पाकिस्तान अक्सर संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर में मानवाधिकारों पर जोर-शोर से बोलता है लेकिन अपनी ही सीमाओं के भीतर उस बलूचिस्तान में उसने दमन का एक पूरा सिस्टम खड़ा कर दिया है जो उसका सबसे बड़ा और सबसे उपेक्षित प्रांत है। यह पैटर्न बेहद डरावना और लगातार एक तरह का है। लोगों को सुरक्षा बल उठा ले जाते हैं, हिरासत में लेने से इनकार कर दिया जाता है और फिर हफ्तों या महीनों बाद उनके क्षत-विक्षत शव सड़कों के किनारे या सामूहिक कब्रों में मिलते हैं। जो परिवार विरोध करते हैं उन पर लाठीचार्ज किया जाता है, महिलाओं के नेतृत्व वाले मार्चों को कुचल दिया जाता है और जो लोग बच जाते हैं वे हर समय इस डर में जीते हैं कि अगली बार दरवाज़ा कौन खटखटाएगा? ये बातें अंधेरे में कही गई आरोप नहीं हैं। ये दर्ज की गई सच्चाइयां हैं, जिन्हें एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने रिपोर्ट किया है और यहां तक कि पाकिस्तान की ओर से जबरन लापता व्यक्तियों पर गठित जांच आयोग (सीओआईईडी) भी स्वीकार किया है।
धोखे का लंबा इतिहास
बलूचिस्तान की अलगाव की भावना 1948 में शुरू हुई, जब पाकिस्तान ने कई बलूच नेताओं की इच्छा के विरुद्ध खानत-ए-कलात को अपने में मिला लिया। यह नाराज़गी दशकों तक सुलगती रही और कई बार विद्रोह के रूप में फूट पड़ी लेकिन अगस्त 2006 में पाकिस्तान सेना के एक अभियान के दौरान वरिष्ठ नेता नवाब अकबर बुग़ती की हत्या ने हिंसा के सबसे भयानक दौर को फिर से भड़का दिया। तब से राज्य की काउंटर, इंसर्जेंसी संवाद पर कम और ‘मारो और फेंको’ जैसी नीति पर ज़्यादा आधारित रही है। जिस पर संयुक्त राष्ट्र के लापता व्यक्तियों पर कार्यकारी समूह ने बार-बार चिंता जताई है।
1 अप्रैल 2011 को पाकिस्तानी अख़बारों ने एक खौफनाक आंकड़ा प्रकाशित किया। बताया गया कि सिर्फ आठ महीनों में बलूचिस्तान से 121 गोलियों से छलनी लाशें बरामद हुईं। इनमें ज़्यादातर युवा, कार्यकर्ता और छात्र थे, जिन्हें पहले सुरक्षा एजेंसियों ने उठाया था। संदेश साफ था। आवाज़ उठाओगे तो ग़ायब और मारे जाओगे। सबसे प्रतीकात्मक मामलों में से एक है जलील रेकी काए जो बलूच रिपब्लिकन पार्टी के सूचना सचिव थे। उन्हें 13 फरवरी 2009 को अगवा किया गया और 24 नवंबर 2011 को उनका बुरी तरह यातनाग्रस्त शव तुरबत के पास शिराज मांड में मिला। इसी तरह बलूच स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (आज़ाद) के छात्र नेता संगत सना दिसंबर 2009 में गायब हुए और दो साल बाद उनकी लाश मिली जिस पर भीषण यातना के निशान थे। ये नाम अपवाद नहीं हैं। ये उन सैकड़ों परिवारों की कहानी हैं जो प्रेस क्लबों के बाहर अपने लापता बेटों की तस्वीरें लेकर इंसाफ़ की गुहार लगाते हैं।
यह डरावना सिलसिला 25 जनवरी 2014 को और गहरा गया, जब खुज़दार ज़िले के तोतक गांव के पास ग्रामीणों को बिना नाम वाले सामूहिक कब्रिस्तान मिले, जिनमें 100 से अधिक शव दबे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने तुरंत एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की मांग की लेकिन कभी कोई ठोस जांच नहीं हुई। आज तक तोतक कब्रें बलूचिस्तान के अनदेखे नरसंहार की खौफ़नाक निशानी बनी हुई हैं।
दमन सिर्फ गुप्त अपहरणों तक सीमित नहीं रहा। दिसंबर 2023 में हज़ारों बलूच महिलाएं और युवा तुरबत से इस्लामाबाद तक पैदल मार्च पर निकले, अपने लापता परिजनों की रिहाई की मांग करते हुए। राज्य ने लाठीचार्ज, वाटर कैनन और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के रूप में कठोर प्रतिक्रिया दी। रिपोर्टों में पुष्टि हुई कि लगभग 290 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया, हालांकि दबाव के चलते बाद में छोड़ दिया गया। इनमें डॉ. महरांग बलूच और सम्मी दीन बलूच जैसी महिलाएं भी थीं जो बलूच प्रतिरोध की प्रतीक बन चुकी हैं।
यह सिलसिला जुलाई 2024 में फिर दोहराया गया। जब बलूच कार्यकर्ता बलूच राजी मुची सभा के लिए ग्वादर जा रहे थे, तो मस्तुंग के पास अर्धसैनिक बलों ने गोलियां चलाईं, जिसमें कम से कम 14 लोग घायल हुए। अगले ही दिन ग्वादर में दमन और भी ख़ूनी हो गया। मानवाधिकार समूहों ने तीन मौतों और सैकड़ों गिरफ्तारियों की पुष्टि की। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने तुरंत बयान जारी कर पाकिस्तान से बलूच विरोधों पर उसके बार-बार होने वाले दंडात्मक दमन को खत्म करने की अपील की लेकिन हिंसा जारी रही। जनवरी 2025 तक हालात और बिगड़ गए। बलूच यकजेहती कमेटी ने सिर्फ एक महीने में 88 नए ग़ायब होने के मामले दर्ज किए, जिनमें सबसे ज़्यादा 43 मामलेसिर्फ मकरान से थे। इसी लहर के दौरान अग्रिम पंक्ति की आवाज़ें भी निशाना बनीं, जिनमें डॉ. महरांग बलूच की मार्च 2025 में गिरफ्तारी शामिल है। इस पर संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों को हस्तक्षेप करना पड़ा और उनकी रिहाई की मांग करनी पड़ी।
दुनिया बलूचिस्तान को सिर्फ पाकिस्तान का आंतरिक मामला मानकर अनदेखा नहीं कर सकती। यह केवल एक प्रांतीय असंतोष का विषय नहीं है। यह मानवाधिकारों का संकट है जो इसी समय घटित हो रहा है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 2011 से पाकिस्तानी जांच आयोग में 10078 ग़ायब होने के मामले दर्ज हुए, जिनमें से 2752 केवल बलूचिस्तान से हैं। स्वतंत्र कार्यकर्ताओं का कहना है कि असली संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। हर मामला सिर्फ़ एक लापता इंसान नहीं, बल्कि एक टूटा हुआ परिवारए खामोश किया गया समाज और हाशिये पर धकेला गया समुदाय है।
आगे का रास्ता
आगामी मानवाधिकार परिषद की बैठक में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान से ये मांग करनी चाहिए। जबरन ग़ायब करने को आईसीपीपीईडी के अनुरूप अपराध घोषित किया जाए। कार्य समूह को बिना किसी रोक-टोक के बलूचिस्तान जाने और फॉलो-अप विज़िट करने की अनुमति दी जाए। तोतक सामूहिक कब्रों और 2006 से अब तक के सभी ‘मारो और फेंको’ मामलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग गठित किया जाए। उन बलूच परिवारों को सुरक्षा दी जाए, जो संयुक्त राष्ट्र के मंचों से अपनी बात रखते हैं ताकि उनके ख़िलाफ़ कोई प्रतिशोध न लिया जाए।