पाक का सैनिक समझौता
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ रक्षा समझौता भारत के लिए कभी भी चुनौती बनने की क्षमता रखता है अतः भारत को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विशेषकर मुस्लिम देशों के सन्दर्भ में अपनी गोटियां बहुत कुशलता और चतुरता के साथ बिछानी होंगी। सऊदी अरब इस्लाम धर्म का गढ़ माना जाता है जहां स्थित मक्का-मदीना शरीफ में विश्व के सभी मुसलमानों की गहरी और अटूट आस्था है। जहां तक पाकिस्तान का सम्बन्ध है तो इसका गठन इस्लाम के किले के रूप में किया गया और इसके निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना ने अमेरिका समेत पश्चिमी यूरोपीय देशों को आश्वस्त किया कि इसकी मार्फत वे पूरे मध्य एशिया के मुस्लिम देशों के साथ अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ बना सकते हैं। कालान्तर में हमने देखा कि पाकिस्तान पश्चिमी देशों के लिए मददगार मुल्क इस तरह बना रहा कि इसके रक्षा केन्द्रों तक का इस्तेमाल पश्चिमी देशों व अमेरिका ने किया। मगर सौभाग्य से पिछले दो दशकों के बीच भारत के खाड़ी के मुस्लिम देशों के साथ सम्बन्ध बहुत मधुर और प्रगाढ़ हुए हैं जिसकी वजह से लाखों भारतीय इन देशों में रोजी-रोटी कमा रहे हैं। सऊदी अरब के साथ तो भारत के सम्बन्धों में पिछले एक दशक में गुणात्मक परिवर्तन आया है और इस देश के युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने आपसी सम्बन्धों को अधिक मजबूत किया है।
देखना केवल यह है कि मुस्लिम देशों के बीच पाकिस्तान के परमाणु शक्ति होने का आकर्षण न बढे़ क्योंकि दुनिया के 57 मुस्लिम देशों में से केवल अकेला वही है जिसके पास परमाणु बम है। पाकिस्तान द्वारा परमाणु बम बनाये जाने की सबसे पहले परिकल्पना साठ के दशक में इसके नेता मरहूम जुल्फिकार अली भुट्टो ने की थी और इसे इस्लामी बम की संज्ञा दी थी। अतः मुस्लिम देशों में पाकिस्तान की परमाणु शक्ति के प्रति आकर्षण बढ़ना किसी भी तरह भारत तथा पूरे भारतीय महाद्वीप के हित में नहीं होगा। सऊदी अरब को अमेरिका का जबर्दस्त समर्थन प्राप्त है और इसकी सेनाएं भी इसकी रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाती रही हैं। पाकिस्तान के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है क्योंकि साठ के दशक से ही पाकिस्तान की सेनाओं की मौजूदगी सऊदी अरब में रही है। यह माना जाता है कि खाड़ी के देशों के पास अकूत धन तो है परन्तु इनकी प्रतिरक्षा सामर्थ्य बहुत कम है जिसकी वजह से इन्हें अमेरिकी सुरक्षा कवच की शरण लेनी पड़ती है।
किन्तु मध्य एशिया में इजराइल के उदय के बाद और इस्लामी देशों के साथ रंजिश को देखते हुए अमेरिका की सन्तुलन शक्ति बहुत बढ़ चुकी है। सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए रक्षा समझौते पर अमेरिका का परोक्ष आशीर्वाद भी समझा जा रहा है। इससे मध्य एशिया खासकर भारतीय उप-महाद्वीप में रणनीतिक स्थितियां बदल सकती हैं अतः भारत को हर कदम बहुत संभल कर और फूंक-फूंक कर रखना होगा। ऐसा माना जा रहा है कि सऊदी अरब ने पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता इजराइल को ध्यान में रखते हुए किया है और कबूल किया है कि पाकिस्तान पर हुआ कोई भी आक्रमण उस पर किये गये आक्रमण के समान होगा। ऐसा ही पाकिस्तान के मामले में भी है कि उस पर किया गया कोई भी आक्रमण सऊदी अरब पर किये गये आक्रमण के समकक्ष होगा। ऐसी सूरत में दोनों देश एक-दूसरे की सैनिक मदद करेंगे। सवाल यहीं पर यह खड़ा होता है कि पाकिस्तान पूरी दुनिया में आतंक फैलाने वाले देशों का अग्रणी राष्ट्र समझा जाता है। अतः भारत यदि अपने क्षेत्र में सीमापार से आतंक फैलाने की कोशिशों को नाकाम करने के लिए कोई कदम उठाता है तो सऊदी अरब उसे किस रूप में लेगा ? विगत 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में हुई घटना के बाद भारत ने मई महीने में 8 तारीख को सैनिक आपरेशन सिन्दूर चलाया और केवल 100 घंटे चले इस संक्षिप्त युद्ध में ही पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिये और उसके कई सैनिक अड्डों को तबाह कर दिया।
आधिकारिक तौर पर यह ऑपरेशन सिन्दूर अभी भी चालू है अतः सवाल उठना लाजिमी है कि सऊदी अरब इसे किस रूप में लेगा? मगर इस देश के शासक युवराज मोहम्द बिन सलमान के रुख को देखकर कहा जा सकता है कि वह आतंकवाद का समर्थन किसी भी रूप में नहीं कर सकते हैं और भारत के साथ सम्बन्धों को भी बराबर की तरजीह देते हैं। ऐसा उनकी पिछले वर्षों में हुई भारत यात्राओं से ही स्पष्ट हुआ था। वह भारत में निवेश बढ़ाने के पक्ष में थे तथा विविध क्षेत्रों में इसके साथ सहयोग चाहते थे। मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि सऊदी अरब पाकिस्तान के भूतपूर्व फौजियों के लिए रोजगार का बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि 2017 में जब पाकिस्तानी सेना के जनरल राहिल शरीफ रिटायर हुए तो सऊदी अरब सरकार ने उनकी नियुक्ति अपने आतंक विरोधी फौजी दस्ते के चीफ कमांडर के तौर पर कर दी थी।
दोनों देशों के बीच सक्रिय सैनिक सहयोग का इतिहास साठ के दशक से शुरू होता है जब मिस्र और यमन के बीच युद्ध के बादल मंडरा गये थे तब पहली बार पाकिस्तानी फौजे सऊदी अरब गई थीं। इसके बाद 1979 में जब पवित्र काबा पर आतंकवादियों ने कब्जा किया था तो उस समय पाकिस्तानी फौजों ने सऊदी अरब की सेनाओं की सक्रिय मदद की थी। इसके बाद दोनों देशों के बीच सैनिक सम्बन्ध निरन्तर गहरे होते चले गये और बाद में 1982 में दोनों देशों ने सैनिक सहयोग का द्विपक्षीय समझौता किया। एक समय ऐसा भी आया कि सऊदी अरब में बीस हजार पाकिस्तानी सैनिक मौजूद थे। अतः भारत को सभी पक्षों पर गंभीरता के साथ सोच विचार कर अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करनी होगी और पाकिस्तान के रंजिशी तेवरों को भी ढीला करना होगा।