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संसद और सर्वोच्च न्यायालय

1950 में जब भारत की अन्तरिम संसद द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू स्वतन्त्र भारत…

11:30 AM Feb 28, 2025 IST | Aditya Chopra

1950 में जब भारत की अन्तरिम संसद द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू स्वतन्त्र भारत…

संसद और सर्वोच्च न्यायालय

1950 में जब भारत की अन्तरिम संसद द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू स्वतन्त्र भारत के संविधान में पहला संशोधन किया गया तो हिन्दू महासभा व उसके वैचारिक साथियों के द्वारा इसे सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में चुनौती दी गई। हालांकि चुनौती पीयूसीएल (पब्लिक यूनियन आप सिविल लिबर्टीज) जैसी नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली संस्था के माध्यम से दी गई थी। न्यायालय ने संशोधन को पूरी तरह संविधान सम्मत पाया और याचिका को खारिज कर दिया। यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 19 में किया गया था जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व आरक्षण को लेकर प्रावधान किये गये थे। यह संशोधन क्यों किया गया था, इसकी अपनी एक अलग कहानी है जिसे इस स्तम्भ में सीमित शब्दों में समेटना संभव नहीं है। यह संशोधन तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा लाया गया था और उससे तत्कालीन कानून मन्त्री बाबा साहेब अम्बेडकर पूरी तरह सहमत थे। नेहरू जी ने जो संशोधन किया था उसका मूल यह था कि कोई भी व्यक्ति या राजनैतिक दल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में हिंसक विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं कर सकता है।

भारत का पूरा संविधान ही मानवतावाद के इर्द-गिर्द घूमता है। पं. नेहरू द्वारा पेश किये गये इस संशोधन पर उस समय की अन्तरिम संसद में बाबा साहेब अम्बेडकर बतौर कानून मन्त्री दो घंटे तक बोले थे और उन्होंने स्वीकार किया था कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अविरल स्वरूप देने के जोश में वह इस पक्ष की अनदेखी कर गये थे। क्योंकि वैचारिक हिंसा का खुला प्रचार- प्रसार भारत की अहिंसात्मक लोकतान्त्रिक प्रणाली की जड़ें खोखली कर सकता है। डाॅ. अम्बेडकर ने अपने दो घंटे के वक्तव्य में साफ करने की कोशिश की थी की भारत में हिंसा को बढ़ावा देने लिए कोई स्थान नहीं है। तब स्वतन्त्र भारत के लोगों ने सीधे संसद व सर्वोच्च न्यायालय के बीच के आधिकारिक सन्तुलन को परखा था। मगर दबे स्वर में यह सवाल भी उठा था कि संसद और सर्वोच्च न्यायालय में कौन बड़ा है। इसके बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासन के दौर में यह बहस बहुत शोर के साथ शुरू हुई क्योंकि श्रीमती गांधी संसद की सर्वोच्चता की बहुत बड़ी पैरोकार थीं। इसकी वजह यह थी कि 1973 के केशवानन्द भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि संसद संविधान के बुनियादी ढांचे में कोई बदलाव नहीं कर सकती। इसके बाद 1974 में श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर क्रम में बहुत कनिष्ठ न्यायमूर्ति श्री ए.एन. राय को पदोन्नत कर दिया था। इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के ही चार न्यायमूर्तियों ने इस्तीफा दे दिया था। इसी वर्ष भारत में शुरू हुए जेपी आन्दोलन में यह मसला भी एक मुद्दा बना था।

जेपी आन्दोलन बेशक समग्र क्रान्ति का नारा लगा रहा था परन्तु यह इन्दिरा जी के शासन के खिलाफ ही था। हम यह सब भी जानते हैं कि 1975 जून महीने में इमरजेंसी लग जाने के बाद इन्दिरा गांधी ने ही संविधान की मूल प्रस्तावना में संशोधन किया था और समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष व देश की अखंडता के शब्द जोड़े थे। परन्तु यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे के ही अनुरूप था। यह संशोधन न्यायिक तसदीक पर भी खरा उतरा। सर्वविदित है कि इमरजेंसी के बाद देश में पंचमेल जनता पार्टी की सरकार स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जब बनी तो उसने इन्दिरा गांधी सरकार द्वारा किये गये कई संशोधनों को निरस्त कर दिया मगर प्रस्तावना के मामले में उसने कोई छेड़खानी नहीं की। जाहिर है कि कांग्रेस विरोधी जनता पार्टी भी कहीं न कहीं संसद की सर्वोच्चता के समर्थन में ही थी। उसने इन्दिरा सरकार द्वारा 1971 में सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त किये जाने के विरुद्ध इसे संवैधानिक अधिकारों का हिस्सा जरूर बनाया मगर इसे मौलिक या मूलभूत अधिकारों की श्रेणी से बाहर ही रखा। इन्दिरा जी ने इस अधिकार को बैकों के राष्ट्रीयकरण करने के बाद मुल्तवी किया था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी और न्यायालय ने इसे सम्पत्ति के मूल अधिकार के तहत ही अवैधानिक घोषित किया था। इसके बाद 1971 में चुनाव जीत कर श्रीमती गांधी ने संविधान में संशोधन करके बैकों के राष्ट्रीयकरण को जारी रखा। एेसा करके इन्दिरा गांधी ने संसद की सर्वोच्चता ही स्थापित की। उस समय यह भी सरकारी संशोधन किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय को हिन्दी में उच्चतम न्यायालय कहा जाये। तब यह साफ हुआ कि संसद कोई नया कानून बना कर अपनी सर्वोच्चता को स्थिर रख सकती है मगर 1973 में केशवानन्द भारती केस ने इसकी सीमाएं नियत कर दीं। मौजूदा दौर में यह सवाल फिर से एक बार उभरा है। यह मामला अदालत द्वारा दोषी पाये गये राजनैतिक नेताओं द्वारा पुनः चुनाव लड़ने का है। चुनावों के कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के अनुसार यदि किसी नेता को किसी मुकदमे में दो साल या उससे अधिक की सजा मिलती है तो उस पर जेल से छूटने पर छह साल तक की अवधि के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लग जाता है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम अनुच्छेद की धारा 8 व 9 में यह प्रावधान है।

सर्वोच्च न्यायालय में इन्ही दो धाराओं को चुनौती दी गई थी और प्रार्थना की गई थी कि सजा प्राप्त नेताओं पर आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध हो। अपने जवाब में केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शपथ देकर कहा कि किस अपराधी को किस जुर्म पर कितनी सजा मिलेगी इसे तय करने का अधिकार केवल संसद को ही है। सर्वोच्च न्यायालय कोई कानून बनाने के लिए संसद को बाध्य नहीं कर सकता है। यह अधिकार क्षेत्र केवल संसद का है। जाहिर है कि लोकतन्त्र में संसद को ही संविधान कोई भी कानून बनाने का अख्तियार देता है। इस मामले में देश की कोई भी अन्य संवैधानिक संस्था उसे निर्देश नहीं दे सकती। मगर इस मामले में डाॅ. मनमोहन सिंह की पिछली यूपीए सरकार ने गलती की थी और अन्ना आन्दोलन के चलते जन लोकपाल विधेयक बनाने में आन्दोलनकारियों की शिरकत कराई थी। संसद के पवित्र अधिकार को लोकतन्त्र में कोई भी दूसरा छीन नहीं सकता है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय उसके बनाये गये कानूनों को संविधान की कसौटी पर कस सकता है मगर उसके कानून बनाने के अधिकार को चुनौती नहीं दे सकता। अतः सवाल कार्यपालिका, न्याय पालिका व विधायिका के बीच संविधानगत अधिकार व शक्ति सन्तुलन का है।

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