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संसद : कहां से चले थे, कहां आ गये !

पिछले 75 सालों में भारत ने जीवन के हर क्षेत्र में तरक्की की है…

12:34 PM Dec 07, 2024 IST | Rakesh Kapoor

पिछले 75 सालों में भारत ने जीवन के हर क्षेत्र में तरक्की की है…

पिछले 75 सालों में भारत ने जीवन के हर क्षेत्र में तरक्की की है। यह प्रगति औऱ विकास हमने लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली के तहत इस व्यवस्था के सभी मानकों को पूरा करते हुए किया है। मगर तथ्य यह भी है संसदीय प्रणाली का चक्र इस दौरान उलटा घूमा है। संसद और विधानसभाओं की कार्यवाहियों का यदि हम वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हमें मायूसी हाथ लगती है विशेषकर पिछले तीस सालों में। संसद की चर्चाओं का स्तर बहुत नीचे गिरता जा रहा है। परन्तु बीच- बीच में हमें यह देख कर ढांढस बंधता रहा है कि संसदीय परंपराओं और बहस के उच्चतम स्तर को बरकरार रखने वाले वीरों से संसद कभी भी खाली नहीं रही है। इस क्रम में मुझे भारत रत्न पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी का स्मरण हो रहा है जिन्होंने 2008 में मनमोहन सिंह सरकार के विदेश मन्त्री रहते अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार की बागडोर संभाल रखी थी।

डा. मनमोहन सिंह बेशक प्रधानमन्त्री थे मगर इस एेतिहासिक परमाणु करार को संसद की मंजूरी दिलाने में प्रणव दा ही भारत की ओर से सबसे आगे थे। इस समझौते या करार पर अक्टूबर 2008 में हस्ताक्षर किये गये मगर इसका बहुत तीखा विरोध उस समय की विपक्षी पार्टी भाजपा जमकर कर रही थी। मगर इससे पहले जुलाई महीने में लोकसभा का दो दिवसीय विशेष सत्र बुलाया गया था जिसमें परमाणु करार पर बहस सरकार द्वारा रखे गये ‘विश्वास प्रस्ताव’ के माध्यम से होनी थी। वैसे प्रणव दा उस समय लोकसभा में सदन के नेता भी थे। समझौते का विरोध वाम मोर्चे के दल भी कर रहे थे परन्तु ये मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे। करार के मुद्दे पर इन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।

अतः लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए डा. मनमोहन सिंह ने इसका दो दिवसीय विशेष सत्र बुलाया और विश्वास प्रस्ताव रख दिया। अब प्रणव दा के कन्धे पर यह जिम्मेदारी आ गई थी कि वह सदन में करार का विरोध करने वाले सभी दलों के सवालों के जवाब दें। इस अवसर पर उन्होंने सदन के भीतर जो भाषण दिया वह इतिहास के पन्नों मे स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुका है। उन्होंने कहा कि ‘हमें अपने ऊपर विश्वास होना चाहिए। लोगों ने हमें चुन कर भेजा है और हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी अगली पीढि़यों के लिए मजबूत व सुरक्षित भारत छोड़कर जायें। यह समझौता हमारे देश की अगली पीढि़यों के लिए प्रगति व विकास का दरवाजा खोलेगा।’

इसी मौके पर भाजपा के कुछ सांसदों ने लोकसभा के पटल पर नोटों के बंडल रख दिये और कहा कि सरकार का समर्थन करने के लिए उन्हें यह धनराशि रिश्वत के रूप में दी गई। इस पर सदन में इस तरह हंगामा मचा कि लोकसभा अध्यक्ष स्व. सोमनाथ चटर्जी को सदन को कुछ घंटों के लिए स्थगित करना पड़ा। सदन के भीतर नोटों के बंडल लाने का मामला फिर से शुक्रवार को राज्यसभा में उठा। ये नोट कांग्रेस के विद्वान व विधी विशेषज्ञ नेता अभिषेक मनु सिंघवी की सीट पर उनकी अनुपस्थिति में तब पाये गये जबकि सदन उठने पर सुरक्षा कर्मचारी सदन की खतरा विरोधी जांच करते हैं। इसकी सूचना सदन में स्वयं में सभापति श्री जगदीप धनखड़ ने दी और कहा कि मामले की जांच कराई जा रही है। जब यह घटना प्रसारित हुई तो श्री सिंघवी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि वह जब भी संसद आते हैं तो अपनी जेब में पांच सौ रुपये का केवल एक नोट ही रखते हैं।

श्री सिंघवी देश के एेसे माने हुए वकील हैं जो पूरे भारत में अपनी आय से आय कर कटवाने वाले दूसरे सबसे बड़े व्यक्ति हैं। उनकी बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं बनता है क्योंकि वह जितना भी कमाते हैं उसमें से पूरा आयकर अदा कर देते हैं। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में सवाल उठाया है कि संसद में प्रत्येक सांसद की सीट इस प्रकार पृथक-पृथक बनाई जाये जिससे प्रत्येक सांसद अपनी सीट नम्बर की दराज पर ताला लगा सके। क्योंकि कौन कह सकता है कि एेसी हरकत किसने की और कहां से हुई। संभवतः भारत की संसद का यह एेसा पहला मामला है जिसमें सदस्य की अनुपस्थिति में उसकी सीट नम्बर से नकद रोकड़ा प्राप्त हुआ। अभी तक सांसदों ने अपने साथ लाये गये नोटों के बंडल ही सदन के पटल पर रखे थे।

2008 से पहले पचास के दशक में भी नेहरू काल में एेसी एक घटना हुई थी। मगर शोचनीय यह है कि हमारी संसद में आरोप-प्रत्यारोप का यह कौन सा नजारा है। अभी तक तो हम देख रहे थे कि सांसदों ने सदन के भीतर बोली जाने वाली भाषा का स्तर इस तरह गिरा दिया है कि बात गाली-गुफ्तार तक पहुंच गई है। पिछली लोकसभा में हमने देखा कि सत्ताधारी दल के सांसद रमेश विधूड़ी ने विपक्ष के एक सांसद को किन-किन अश्लील शब्दों से नवाजा था। दरअसल एेसी घटनाओं का सीधा सम्बन्ध संसद की मर्यादा व गरिमा से जुड़ा हुआ है। संसद को जो लोग चौराहा बनाने की कोशिश करते हैं वे भी जनता द्वारा ही चुने गये होते हैं। इससे हमें वर्तमान के लोकविमर्श के स्तर का भी पता चलता है। डा. राम मनोहर लोहिया यह कह कर गये हैं कि लोकतन्त्र में जब सड़कें गूंगी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। इसका मन्तव्य यही है कि जनतन्त्र में लोक विमर्श ही संसद को वाचाल रखता है।

संसद में प्रत्यक्ष रूप से लोकसभा के लिए चुने गये प्रत्येक सदस्य के पीछे लाखों लोगों की आवाज होती है। इसी आवाज को जब संसद सदस्य अपनी वाणी देता है तो संसद गूंजने लगती है। मगर यह सारा काम संसद सदस्य नियमों व परिपाठियों का पालन करते हुए करते हैं लेकिन हमारी संसद को तो जैसे जन विमर्श की कोई परवाह ही नहीं है। संसद के भीतर सुरक्षा के कड़े घेरे होते हैं अतः सांसदों को छोड़ कर कोई अन्य व्यक्ति अपने साथ नोटों के बंडल नहीं ला सकता। श्री सिंघवी कह रहे हैं कि वह गुरुवार को राज्यसभा में केवल तीन मिनट ही रह पाये थे और सदन स्थगित हो गया था। अतः इस मामले की गहन जांच कराई जानी चाहिए।

मूल प्रश्न यही है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। यह संसद की प्रतिष्ठा के साथ-साथ सांसदों की प्रतिष्ठा का भी सवाल है। हम दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र हैं। भारत में लोकतन्त्र पूरी तरह सफल रहा है मगर राष्ट्रपति स्व. आर.के. नारायण के जमाने में उन्हीं के श्रीमुख से यह भी सुनने को मिला कि लोकतन्त्र हमें असफल नहीं कर रहा है बल्कि हम ही लोकतन्त्र को असफल कर रहे हैं। संसद की सफलता ही लोकतन्त्र की सफलता की गारंटी होती है। पिछले 75 सालों में हम जहां अन्तरिक्ष से लेकर भूगर्भ के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहे हैं वहीं संसद में अपनी चर्चा के स्तर को निरन्तर गिराते जा रहे हैं। परन्तु भारत एेसा देश हैं जहां पृथ्वी कभी भी वीरों से खाली नहीं होती है। इसी संसद में कुछ अच्छे वक्ता और संयमित सांसद भी दोनों सत्ता व विपक्ष के बीच में मौजूद हैं। सवाल उनके उठ खड़े होने का है।

भारत की संसद राज्यों की विधानसभाओं के सामने नजीरें बनाती है और बताती है कि सदनों की गरिमा, प्रतिष्ठा व मर्यादा किस प्रकार बनाकर रखी जाये यदि यहीं से गंगा मैली हो जायेगी तो आगे के बारे में सोचा जा सकता है। यह भी सोचा जाना चाहिए कि हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गये। भारत की संविधान सभा में एक से बढ़ कर एक राष्ट्र रतन मौजूद थे। इसे ही 26 जनवरी 1950 के बाद 1952 तक आरजी लोकसभा बना दिया गया था। 1952 के पहले चुनावों में भी सभी मूर्धन्य विद्वान इसके सदस्य चुनकर आये थे। ये सत्ता पक्ष में भी थे और विपक्ष में भी।

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