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नई दिल्ली में ‘शोर’ पुरानी में सुकून

इन दिनों जब राजनैतिक शोरोगुल एवं उठापटक और तेज़-तर्रार बयानबाज़ी से देश की राजधानी नई दिल्ली में तनाव व टकराव का माहौल बन रहा है…

10:15 AM Dec 01, 2024 IST | Dr. Chander Trikha

इन दिनों जब राजनैतिक शोरोगुल एवं उठापटक और तेज़-तर्रार बयानबाज़ी से देश की राजधानी नई दिल्ली में तनाव व टकराव का माहौल बन रहा है…

इन दिनों जब राजनैतिक शोरोगुल एवं उठापटक और तेज़-तर्रार बयानबाज़ी से देश की राजधानी नई दिल्ली में तनाव व टकराव का माहौल बन रहा है, बेहतर है कुछ सुकून के लिए हम अपने अतीत की गलियों में घूम आएं। दरअसल, हमारी केंद्रीय राजधानी की पुरानी दिल्ली, लुटियन-दिल्ली से भी व्यापक विरासत लिए हुए हैं। पुरानी-दिल्ली की हवेलियों की समृद्ध विरासत सम्भवत: लुटियन को भी विवश करती रही हैं कि उन्हें कम न आंका जाए।

दरअसल मुगलिया-सल्तनत के साथ-साथ हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब की समृद्ध जीवनशैली उस काल-खण्ड की सुरूचिपूर्ण जीवनशैली की गवाही देती है। कभी तनाव भरी जि़ंदगी में राहत के चंद लम्हे तलाश करते करते हों तो इन हवेलियों में थोड़ा घूम आइए।

अगर आप मुगल काल के दरबारियों या सम्पन्न लोगों की शानो-शौकत का करीब से दीदार करना चाहते हैं तो आपको दिल्ली के इन महलों और हवेलियों में घूमने ज़रूर जाना चाहिए। इन ऐतिहासिक भवनों की खास बात ये है कि बाहर से बंद और अंदर से खुले हुए हैं। इनमें बड़े-बड़े कमरे, खूबसूरत मेहराब, जालीदार झरोखे और हर हवेली के बीचों-बीच एक बड़ा चौक देखकर आप आसानी से तत्कालीन समय की कल्पना कर सकती हैं। इनमें से कुछ भवनों में शादी के मौकों पर बारात के लिए मेजबानी भी दी जाती है।

अगर आपकी इतिहास में रुचि है तो आपको इन भवनों में कम से कम एक बार घूमने जरूर जाना चाहिए। इनकी छतों को विशेष तरीके से बनाया गया है ताकि गर्मियों में इनमें ठंडक बनी रहे। यहां जाने पर आपको तहखाने भी देखने चाहिए जिनके बारे में कई तरह के किस्से-कहानियां प्रचलित हैं। तो आइए जानते हैं अपने समय में चर्चित रहे इन महलों और हवेलियों के बारे में- लोधी काल में बने इस भवन का नाम ‘जहाज महल’ पड़ने की पीछे एक दिलचस्प कहानी है। महरौली के ‘हौज-ए-शम्सी’ (पानी के टैंक) के किनारे ही स्थित है जहाज़ महल। बारिश के दिनों में हौज-ए-शम्सी के पानी में जब यह महल देखा जाता है तो ऐसा लगता है कि जैसे झील में कोई जहाज चल रहा हो। इस महल में बलुआ पत्थर के खंबों पर बने डिजाइन, छत पर अलग-अलग रंगों की टाइल्स और छतरियां देखकर आपको किसी और ही दुनिया में होने का अहसास होगा। यहां पर हर साल प्रसिद्ध ‘फूलवालों की सैर’ उत्सव का आयोजन भी होता है जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों ही बड़े श्रद्धाभाव से सम्मिलित होते हैं। इस मौके पर यहां ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह और इसके पास ही स्थित योगमाया मंदिर में फूल चढ़ाए जाते हैं। यह विशेष पर्व दो सदी पूर्व आरंभ हुआ था, जब बेगम मुमताज महल अपनी मन्नत पूरी होने पर यहां की दरगाह में चादर चढ़ाने के लिए आई थीं।

यह इमारत मुगलों के आखिरी महलों में से एक है। ‘जफर महल’ को मुगल शासक अकबर शाह द्वितीय ने 19वीं सदी की शुरुआत में बनवाया था और यह महरौली में बनी सूफी संत कुतुबद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के नजदीक स्थित है। इसे बनवाए जाने के कुछ समय बाद ही आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने इसे दोबारा बनवाया था जिनका नाम भी इस महल के नाम के साथ जुड़ा है। महल के अहाते में संगमरमर की बनी भव्य मोती मस्जिद है और इसमें कई शाही कब्रें भी हैं। इनमें शाह आलम और शाह आलम द्वितीय जैसे मुगल शासकों की कब्र भी शामिल हैं। मगर बादशाह ज़फर को बड़े चाव से बनवाए इस महल में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हो पाई। उन्हें रंगून में ही दफन होना पड़ा था।

चांदनी चौक की पुरानी गलियों में फतेहपुरी मस्जिद से कुछ ही दूरी पर स्थित है जीनत महल जिसकी देखरेख पर लंबे वक्त तक ध्यान नहीं दिया गया। इतिहास बताता है कि यह महल को बहादुर शाह जफर ने खास तौर ने अपनी रानी जीनत महल के लिये बनवाया था। इसमें जटिल जालीदार काम आज भी देखा जा सकता है। कहा जाता है कि जब जीनत हुस्न की मलिका थीं और जब वह महल के भीतर दाखिल होती थीं, तब उनका स्वागत शहनाई की धुनों से किया जाता था। बहादुर शाह अपनी पत्नी जीनत से सबसे ज्यादा प्यार करते थे लेकिन जीनत की मौत के बाद उन्होंने यहां आना छोड़ दिया था। अगर आप भूत-प्रेतों के बारे में सुनकर रोमांचित होते हैं तो आपको यहां का तहखाना भी देखना चाहिए। अंग्रेजों के समय में इस तहखाने में कई लाशों को दफना दिया गया था जिसकी वजह से लोग मानते हैं कि यहां रूहों का साया है और रात में सिसकियों की आवाजें सुनाई देती हैं।

1806 में निर्मित बेगम समरू का महल अब भागीरथ पैलेस कहलाता है। किनारी बाज़ार की नौघरा हवेलियां भी विलक्षण हैं। 18वीं सदी की ये जैन-हवेलियां उस काल की निर्माण कला के संदर्भ याद करा देती है। शाहजहां के कोषाध्यक्ष की हवेली अब भी खज़ांची हवेली के नाम से चर्चा में है। इस हवेली से एक लम्बी सुरंग भी निकलती है, जो लाल किले में खुलती है।

इसी शृंखला में कटरा नील की चुन्नामल हवेली व लाल कुआं बाज़ार स्थित ज़ीनत महल-हवेली भी चर्चा में बनी रही है। इसी बाज़ार के कूचा सैदुल्लाह खान में स्थित हवेली-नाहरवाली के नसीब उस दिन चर्चा में आई जब लगभग डेढ दशक पूर्व पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ अपनी जड़ों की तलाश में यहां आए। इसी नाहरवाली हवेली में मुशर्रफ ने पहली बार इस दुनिया में आंख खोली थी। मुशर्रफ ने अपनी भारत-यात्रा के मध्य इस हवेली में जाने की विशेष इच्छा जताई थी। वह वहां उस बुज़र्ग औरत से भी मिले थे, जो उनके जन्म के समय घर में मौजूद थी। बाज़ार सीताराम स्थित हक्सर हवेली ने भी चांदनी-चौक में अपनी विशेष पहचान सन् 1916 में बनाई थी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उस वर्ष यहीं कमला नेहरू के साथ विवाह किया था।

सर्वाधिक चर्चित रही गली कासिम जान में स्थित उर्दू के महान शायर मिर्जा गालिब की हवेली। इस हवेली में ही इस महान उर्दू शायर ने उर्दू साहित्य के इतिहास को एक ऐसा संकलन दिया जो ‘दीवाने-गालिब’ के नाम से पिछली लगभग डेढ शताब्दी से शायरी के दीवानों व शोधार्थियों के लिए चर्चा का विषय बना हुआ है। इस गली को ‘गली-बल्लीमारान’ के नाम से भी जाना जाता है।

19वीं शताब्दी के इस महान शायर की यह चर्चित हवेली अब पुरातत्व द्वारा संरक्षित क्षेत्र घोषित हो चुकी है। हवेली मुगल काल के उस स्वाभिमानी शायर की जीवनशैली का बयान है। इसकी दीवारों पर गालिब का एक विशाल ‘पोट्ररेट’ चस्पां है। दीवारों पर उनके कुछ बेहद लोकप्रिय शेअर भी खुदे हैं। जब से दिल्ली सरकार ने इसे गालिब-स्मृति संग्रहालय का रूप दिया है, तब से इसकी हालत संवर गई है।

अब तो हवेली में गालिब के बहाने से उनके समकालीनों उस्ताद ज़ौक, अबू जफर, मोमिन व मीर के ‘पोट्ररेट’ भी लगा दिए गए हैं। 27 दिसम्बर, 2001 को दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बहुचर्चित मूर्तिकार भगवान रामपुरे द्वारा निर्मित मिर्जा गालिब के एक बुत्त का भी अनावरण इसी हवेली में किया था। यह बुत्त कलाकार भगवान रामपुरे ने प्रख्यात शायर गुलज़ार के आग्रह पर बनाया था।

हवेली में एक और विशाल पोर्र्टेरट भी लगा है जिसे देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने स्वयं बनवाया था। मिर्जा गालिब आगरा से आने के बाद इसी हवेली में रहने लगे थे। इसी हवेली में उन्होंने अपनी अधिकांश गजलें हस्तलिखित पांडुलिपियां, हवेली के संग्रहालय में संजोकर रखी गई हैं।

जिन दिनों गालिब वहां रहते थे, हवेली का रखरखाव उस शान से नहीं हो पाता था जिनके वह काबिल थी। अब पुरातत्व विभाग वालों ने मशक्कत की है कि गालिब काल निर्माण कला, हवेली में बहाल हो। अब एक बार फिर से ‘मुगल-लाखोरी’ ईंटें व पत्थर लगवाए गए हैं ताकि गालिब को 19वीं सदी वाले दिन लौटाए जाएं।

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