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इंसान हैं भारत के लोग!

भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति को नागरिकता देते हुए उसके धर्म या मजहब का लेशमात्र भी संज्ञान नहीं लेता है अतः प्राथमिक दृष्टि से इस फैसले के पीछे राजनीतिक आग्रह काम करता हुआ कहा जा सकता है।

03:58 AM Mar 05, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति को नागरिकता देते हुए उसके धर्म या मजहब का लेशमात्र भी संज्ञान नहीं लेता है अतः प्राथमिक दृष्टि से इस फैसले के पीछे राजनीतिक आग्रह काम करता हुआ कहा जा सकता है।

भारत के संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय  जगत में जिस प्रकार की प्रतिक्रिया हुई है उसे सामान्य घटना नहीं कहा जा सकता। हालांकि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने पर भी कुछ तबकों ने असहजता दिखाई थी परन्तु नागरिक कानून को लेकर जो बेचैनी दुनिया के कुछ देशों ने दिखाई है वह निश्चित रूप से विचारणीय है।
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कश्मीर का मसला भारत की भौगोलिक अखंडता से जुड़ा हुआ है और हर दृष्टि से भारत का आन्तरिक मामला है परन्तु नागरिकता कानून का सम्बन्ध विदेशों से भारत आने वाले उन लोगों से है जिन्हें ‘शरणार्थी’ या सताये गये नागरिकों की श्रेणी में रखा जा सकता है।  दोनों में बहुत स्पष्ट अन्तर भी है। कश्मीर भारत की संप्रभुता, सार्वभौमिकता और राष्ट्रीय अखंडता व एकता के दायरे में आने वाला ऐसा मामला है जिसका सम्बन्ध भारत की संवैधानिक विधाओं में ही अन्तर्निहित था और कथित समस्या का उपचार भी इसी संविधान ने अपने भीतर बना रखा था।
यह उपचार यही था कि अनुच्छेद 370 को अस्थायी रूप से भारतीय संविधान में नत्थी किया गया था। अतः भारत की संप्रभु सरकार जब चाहे इस नत्थी किये गये प्रावधान को हटा कर ‘स्थायी’ रूप से हटा कर कश्मीर का समावेश संविधान के मूल प्रावधानों के अनुसार कर सकती थी। अतः विगत  5 अगस्त, 2019 को केन्द्र की मोदी सरकार ने संविधानपरक रास्ता अपना कर ठीक ऐसा ही किया इस निर्णय के पीछे ‘राजनीति’ का अंश न होकर ‘राष्ट्रनीति’ का परम स्वरूप था, परन्तु नागरिकता कानून का मसला अलग है और संविधान के ही मूल प्रावधानों से विपरीत रुख रखते हुए बहुमत के बूते पर अस्तित्व में आया है।
भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति को नागरिकता देते हुए उसके धर्म या मजहब का लेशमात्र भी संज्ञान नहीं लेता है अतः प्राथमिक दृष्टि से इस फैसले के पीछे राजनीतिक आग्रह काम करता हुआ कहा जा सकता है। बिना शक नागरिकता का मामला भी भारत का आंतरिक मामला है परन्तु इसके सरोकार सीधे अन्तर्राष्ट्रीय जगत की परिस्थितियों से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि उनके तार मानवीयता के सर्वग्राही मानकों से जाकर जुड़ते हैं। जिन तीन देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बंगलादेश के अल्पसंख्यक या गैर मुस्लिम नागरिकों के लिए यह नागरिकता कानून बनाया गया है, उनमें से केवल पाकिस्तान के साथ ही भारत के दोस्ताना सम्बन्ध नहीं हैं।
बंगलादेश का निर्माण ही भारत की मानवीय सोच के आधार पर हुआ है। मानवीयता के आधार पर ही भारत ने इस देश की मुक्ति वाहिनी के साथ मिल कर पाकिस्तान की आततायी सेना के भयंकर अत्याचारों से यहां के मुस्लिम नागरिकों को मुक्त कराया था। इस देश में  हिन्दू समेत बौद्ध व अन्य अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होने इसलिए असंभव है क्योंकि इस देश में भारत जैसा ही संसदीय लोकतन्त्र है और इसकी बांग्ला संस्कृति हिन्दू-मुस्लिम के भेद- विभेद से ऊपर है।
बेशक इस देश में कुछ वर्षओं के लिए इस्लामी कट्टरपंथी सैनिक शासन होने पर राजनीति का चरित्र बदलने की कोशिश की गई किन्तु सेना के समर्थन के साथ इस्लामी कट्टरपंथ की समर्थक बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी के शासन को छोड़ कर गैर मुस्लिमों पर कभी अत्याचार नहीं हुए, बल्कि इसके उलट इस्लामी चरमपंथियों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों को ही सबसे ज्यादा शिकार बनाया। ठीक ऐसा ही अफगानिस्तान के साथ भी है। इस देश के विकास में भारत ने शुरू से ही प्रमुख योगदान दिया है । केवल 1996 से 2001 तक के तालिबानी निजाम को छोड़ कर इस देश में अल्पसंख्यक वाजिब सम्मान पाते रहे हैं। 
पाकिस्तान की बात अलग है क्योंकि इसकी तामीर ही नाजायज बुनियाद पर सिर्फ मजहब की वजह से हुई है और इसके वजूद की शर्त यहां की नामुराद फौज ने भारत व हिन्दू विरोधी बना दी है। मगर ‘बेनंग-ओ-नाम’ पाकिस्तान की तर्ज पर हिन्दोस्तान न कभी चला है और न भविष्य में कभी चल सकता है। इस बेगैरत मुल्क की दास्तान यहां के वे मुस्लिम नागरिक ही पूरी दुनिया में सुनाते घूम रहे हैं जो इस्लाम धर्म के ही  उधार माने जाने वाले तबकों से जुड़े हुए हैं।  इनमें शिया से लेकर हजारा, बोहरा, अहमदिया, आगा खानी वगैरा शामिल हैं। इसके साथ ही बलौच मुसलमान भी अपने ऊपर होने वाले जुल्मों की कहानियां सुनाते घूम रहे हैं।
जब इस्लाम के ही दीनदारों की पाकिस्तान में यह हालत है तो हिन्दुओं या अन्य गैर मुस्लिमों की हालत के बारे में आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है।  इसलिए भारत के संविधान में नागरिकता देने के मामले में हमारे संविधान निर्माताओं ने जो नियम बनाये थे वे पूरी तरह मानवीयता के सिद्धान्त पर आधारित थे। इस सिद्धान्त को हम बदल कर हम अपने ऊंचे कद पर वजन नहीं रख सकते, लेकिन दीगर सवाल खड़ा किया जा रहा है कि क्या इस नये नागरिक कानून की भारत को जरूरत थी ?
यह सवाल भारत के कई मुख्यमन्त्रियों ने पूछा है कि जब किसी देश से भारत में शरणार्थी आ ही नहीं रहे हैं तो नये कानून की जरूरत क्यों आ पड़ी ? इसका जवाब सरकार दे रही है कि यह कानून नागरिकता देने के लिए है किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं मगर मुद्दा यह है कि नागरिकता देने के लिए पहले से ही संविधान में कानून मौजूद है तो केवल पाकिस्तान की वजह से हम अपने देश की सामाजिक शान्ति भंग करने का जोखिम क्यों उठायें और अन्तर्राष्ट्रीय जगत की आलोचना का बेवजह शिकार क्यों बने।
यह पहली बार हो रहा है कि मानवीय अधिकार आयोग में राष्ट्रसंघ की उच्चायुक्त श्रीमती मिशेल बेचलेट जेरिया ने संशोधित नागरिकता कानून के विरुद्ध भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमित्र के रूप मे तीसरा पक्ष बनने की दरख्वास्त लगाने का फैसला किया है। उनका कहना है कि दुनिया में मानवाधिकारों की संरक्षक के तौर पर ऐसा करने का उन्हें अधिकार है। क्योंकि भारत राष्ट्रसंघ के विभिन्न मानवाधिकार प्रस्तावों का हस्ताक्षरकर्ता है, परन्तु यह भी हकीकत है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय को ही इस कानून के बारे में अपना फैसला देना है।
जरूरत इस बात की है इस मुकदमे पर सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए क्योंकि इसकी वजह से भारत में सामाजिक शान्ति को भंग करने के प्रयास हो रहे हैं और वारिस पठान तथा कपिल मिश्रा जैसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बने नेता हिन्दू-मुसलमानों को लड़वाने की तजवीजें भिड़ा रहे हैं जबकि भारत का संविधान हिन्दू-मुसलमान की नहीं बल्कि इंसान और भारतीय की बात करता है। संविधान में एक बार ही अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण देने के लिए हिन्दू धर्म का नाम आया क्योंकि इसमें इन जातियों के लोगों के साथ पशुओं से भी बदतर अमानवीय व्यवहार किये जाने को धर्म का अंग मान लिया गया था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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