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टुकड़ों मे बनते गठबन्धन !

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08:02 AM Jan 18, 2019 IST | Desk Team

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लोकसभा चुनाव आने से पहले जिस तरह विपक्षी गठबन्धन टुकड़ों में बन रहे हैं उनसे जाहिराना तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को खुशी हो सकती है क्योंकि विपक्ष के इस तरह टुकड़ों में बिखर जाने से उसके विरोधी मतों का बंटवारा होना स्वाभाविक प्रक्रिया होगी जिसका लाभ सीधे तौर पर भाजपा को ही होगा। उत्तर प्रदेश में जिस तरह सुश्री मायावती और अखिलेश यादव की पार्टियों बसपा और सपा ने इकतरफा गठजोड़ किया है उससे इस राज्य की 80 लोकसभा सीटों पर मुकाबला सीधे भाजपा से होने के बयान जारी किए जा सकते हैं मगर कांग्रेस द्वारा भी सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा से इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के लिए चुनौती फैंकना इतना आसान भी नहीं होगा कि सभी 80 सीटों का आंकड़ा कांग्रेस के खाते से बाहर कर दिया जाये।

दरअसल बसपा-सपा गठबन्धन की हकीकत यह है कि अखिलेश यादव बहन मायावती के साथ रहने वाले दलित वोट बैंक को पक्का मानकर चल रहे हैं और उसके इर्द-गिर्द ही अपनी चुनावी रणनीति बना रहे हैं जबकि जमीनी स्थिति का रसायन शास्त्र यह है कि पिछले लगभग 25 साल से सपा व बसपा की राजनीति मुख्य रूप से पिछड़े व दलितों की लागडांट पर ही निर्भर रही है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में तेलंगाना के मुख्यमन्त्री चन्द्रशेखर राव अपनी अलग ढफली पीट कर गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेसी मोर्चा बनाना चाहते हैं। यह मोर्चा भी केवल अभी तक वृहद आंध्रप्रदेश तक सीमित है क्योंकि वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी ने ही अभी तक खुलकर उनके साथ गठजोड़ बनाने की घोषणा की है। हालांकि वह ओडिशा व प. बंगाल में बीजू जनता दल व तृणमूल कांग्रेस से गले मिलकर आ चुके हैं मगर किसी ने भी उन्हें तरजीह देने का इशारा नहीं किया। अतः स्पष्ट है कि एक तरफ उत्तर में सपा-बसपा गठबन्धन और दूसरी तरफ दक्षिण में चन्द्रशेखर राव का गठबन्धन गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस के सिद्धान्त के आधार पर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश में रहेगा। मगर तीसरी तरफ आगामी 19 जनवरी को प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने अपनी रैली करने की घोषणा कर दी है जिसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस से लेकर जम्मू-कश्मीर नैशनल कांफ्रैस के नेता तक शिरकत करेंगे और सपा व बसपा भी शामिल होंगे। इसका मतलब यही निकलता है कि ममता दी भी राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय दलों को जोड़ना चाहती हैं। इन सभी के केन्द्र में मुख्य रूप से भाजपा की मुखालफत ही है।

ममता दी भी कांग्रेस को साथ लेने से हिचकिचा रही हैं। अपने राज्य में वह भाजपा की सबसे बड़ी विरोधी हैं मगर प. बंगाल में भाजपा को प्रवेश कराने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है क्योंकि स्व. वाजपेयी सरकार में एनडीए गठबन्धन का सदस्य रहते हुए जहां वह केन्द्र में रेलमन्त्री रहीं वहीं उन्होंने कांग्रेस के साथ महाजोट बनाकर वामपंथियों के खिलाफ विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। वामपंथियों के विरोध के चलते भाजपा ने जो राजनीतिक चौसर बिछाकर राज्य की राजनीति के मिजाज को बदलने का अभियान चलाया वही अब ममता दी को बुरी तरह अखर रहा है जिसकी वजह से राज्य में हुए विभिन्न उपचुनावों में बेशक जीत तृणमूल कांग्रेस की ही हुई हो मगर भाजपा अपने वोट बढ़ाने में कामयाब हुई है और कहीं-कहीं वह मार्क्सवादियों से भी आगे निकल गई है। इस तस्वीर में कांग्रेस पार्टी को जिस यत्न से हाशिये पर रखा जा रहा है उसी सरलता के साथ इस पार्टी के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के प्रमुख विरोधी के रूप में उभर रहे हैं क्योंकि संसद से लेकर सड़क तक उन्होंने भाजपा की सरकार को हर उस मुद्दे पर घेरा है जिनका वास्ता सीधे आम जनता की समस्याओं से है। जनता के मुद्दे ऐसे नहीं हैं जिन पर क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने न विरोध प्रकट किया हो मगर उन्हें लगातार जनता का मुद्दा बनाए रखने का काम राहुल गांधी ने ही किया है और सबसे ज्यादा आक्रमण भी सरकार द्वारा उन पर ही किया गया है।

गांधी परिवार किसी न किसी मुकद्दमे में उलझा हुआ है। लोकतन्त्र जातिगत गणित में किस तरह सिमटता है उसका उदाहरण 2009 के लोकसभा चुनावों में हमें देखने को मिला था जब समाजवादी पार्टी के संस्थापक माननीय मुलायम सिंह को उस नवोदित जनशक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा कल्याण सिंह से गले मिलना पड़ा जिनकी कयादत में 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। इसका हासिल यह निकला कि कल्याण सिंह भाजपा से विद्रोह करने के बावजूद लोकसभा में आने में कामयाब हो गए और मुलायम सिंह की पार्टी 20 के लगभग सीटें जीत गई मगर कांग्रेस पार्टी को भी इस राज्य से 23 सीटें मिल गईं। इसका मतलब यही निकलता है कि जातिगत गठबन्धन का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय हितों से नहीं बल्कि व्यक्तिगत हितों से होता है। मगर भाजपा के लिए यह स्थिति आरामदायक मानी जाएगी क्योंकि क्षेत्रीय विपक्षी दल कांग्रेस के साथ जाने से भी परहेज कर रहे हैं।

राहुल गांधी के लिए यह दिक्कत का सबब भी है क्योंकि उनके महागठबन्धन के ख्वाब को खुद विपक्षी दल ही टुकड़ों में बंटकर बिखेर देना चाहते हैं। ऐसे ही माहौल में भारत के मतदाता अक्सर करामात करने के लिए जाने जाते हैं और इसका प्रमाण यह है कि जितनी ज्यादा जोर से राम मन्दिर आन्दोलन का शोर मचाया जा रहा है उतनी ही ज्यादा जोर से आम मतदाता रोजगार से लेकर शिक्षा और विकास के मुद्दों पर सोचने लगे हैं। मुल्क की नई पीढ़ी के बूते पर चुनावों के नतीजे अब निकलते हैं क्योंकि भारत के 65 प्रतिशत मतदाता इसी वर्ग के हैं और यह पीढ़ी लिखित में हिसाब–किताब मांगती है जिससे वह अपने मोबाइल फोन पर उसे परख सके। जबानी जमा खर्च का दौर खत्म हो गया।

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