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कश्मीर पर सियासी उठापटक?

जम्मू-कश्मीर में महबूबा सरकार के इस्तीफे के बाद राज्यपाल शासन को लागू हुए तीन दिन ही हुए हैं मगर यहां के हालात पर राजनीतिक उठापटक का जो दौर शुरू हुआ है

12:43 AM Jun 24, 2018 IST | Desk Team

जम्मू-कश्मीर में महबूबा सरकार के इस्तीफे के बाद राज्यपाल शासन को लागू हुए तीन दिन ही हुए हैं मगर यहां के हालात पर राजनीतिक उठापटक का जो दौर शुरू हुआ है

जम्मू-कश्मीर में महबूबा सरकार के इस्तीफे के बाद राज्यपाल शासन को लागू हुए तीन दिन ही हुए हैं मगर यहां के हालात पर राजनीतिक उठापटक का जो दौर शुरू हुआ है उससे इस राज्य के अलग-थलग पड़ने का अंदेशा और बढ़ता नजर आ रहा है। सबसे पहले यह समझा जाना बहुत जरूरी है कि सिर्फ कश्मीर ही भारत का अटूट और अभिन्न अंग नहीं है बल्कि कश्मीरी जनता भी इस देश का अभिन्न हिस्सा है। हम कश्मीर और कश्मीरियों को अलग-अलग रख कर देखने की गलती नहीं कर सकते। इसके साथ ही यह भी समझा जाना बहुत जरूरी है कि राजनैतिक समस्या का हल सैनिक समाधान नहीं हो सकता। लोकतन्त्र में सबसे बड़ी हिस्सेदारी आम नागरिक की ही होती है और सेना उसके इसी हक के संरक्षक के रूप में कार्य करती है क्योंकि वह संविधान के प्रति शपथ लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा में अपना सर्वस्व न्यौछावार करने का प्रण लेती है।

भारत की महान सेना ने युद्ध और शान्ति दोनों ही समय में अपने कर्तव्य का निर्वहन आम लोगों को सुरक्षा देने के लिए ही किया है और संविधान की सर्वोच्चता का परचम लहराने में कहीं भी जरा सी कोताही नहीं बरती है। कश्मीर को राष्ट्र विरोधियों से मुक्त कराने की जिम्मेदारी भारतीय सेना के कन्धे पर है और वह इस काम को पूरी सत्यनिष्ठा के साथ अंजाम दे रही है। सेना को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि किसी राज्य में चुनी हुई सरकार है या वहां राज्यपाल का शासन है। उसे सिर्फ यह देखना होता है कि जो भी सरकार या शासक है वह संविधान के अनुसार प्रतिष्ठापित है या नहीं। अतः जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल का शासन लागू हो जाने के बाद सेना के तेवर बदल जायेंगे यह सोचना पूरी तरह अनुचित है। लेकिन राज्य के पुलिस उच्चाधिकारी श्री वैद्य के इस बयान पर नुक्ताचीनी की वाजिब वजह है कि राज्यपाल का शासन होने से पुलिस का काम करना आसान हो जायेगा। यह बयान भारत की लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली के अन्तर्निहित नियमों के विरुद्ध है।

पुलिस भी अपना काम संविधान के अनुसार ही करती है और वह संविधान के शासन को बनाये रखने की प्रमुख चौकीदार होती है। पुलिस किसी राजनैतिक दल की गुलाम नहीं होती बल्कि वह कानून और संविधान की गुलाम होती है। राज्यपाल के शासन का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि राज्य के नागरिकों के मौलिक अधिकार बर्खास्त हो जायेंगे और वे पुलिसिया राज में रहने को मजबूर कर दिये जायेंगे। वास्तव में कश्मीर को लेकर जो राजनैतिक बयानबाजी शुरू हुई है उसकी असली वजह यही है। श्री वैद्य का यह कहना कि चुनी हुई सरकार के रहते राजनैतिक हस्तक्षेप की वजह से पुलिस का काम करना मुश्किल होता था, बताता है कि महबूबा सरकार के दौरान जो काम हो रहा था उसके पीछे सियासी नीयत काम कर रही थी। यह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि पुलिस बजाये संविधान और कानून का पालन करने की जगह सियासी आकाओं को खुश करने में लगी हुई थी।

जम्मू-कश्मीर की समस्या इतनी सरल नहीं है जितनी इसे पेश करने की कोशिश की जा रही है। मैं शुरू से ही कहता रहा हूं कि जम्मू-कश्मीर के नागरिक पाकिस्तान निर्माण के सख्त खिलाफ रहे हैं और इस मुल्क के कब्जे में पड़े हुए दो तिहाई कश्मीरी हिस्से को भी अपने कश्मीर का अटूट हिस्सा मानते हैं। पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर में जो जुल्म और सितम ढहाये हैं उन्हें केन्द्र में ना लाकर अभी तक की सरकारों ने जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ न्याय नहीं किया है। केवल जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस हिस्से की सीटंे खाली छोड़ने से कश्मीरी रियाया को अपनी एकात्मतता का सांकेतिक परिचय ही मिला है। इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की जन सांख्यिकी (डेमोग्राफी) ही बदल दी जाये और भारत के कश्मीर में पत्ता तक न हिले। दूसरी तरफ घाटी में वह कारनामा अंजाम दे दिया जाये जिसकी कल्पना भी कभी नहीं की जा सकती थी।

घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन जिस तरह से कराया गया वह भारत की सम्पूर्ण संप्रभु-सार्वभौमिक सत्ता को चुनौती देने के अलावा और कुछ नहीं था लेकिन यह मानना बेमानी होगा कि आम कश्मीरी ने कभी भी इस प्रकार की साजिश का समर्थन किया हो। इसका प्रमाण यह है कि कश्मीर में बने हिन्दू तीर्थ स्थलों की रक्षा का भार आज भी मुसलमान नागरिक अपने कन्धों पर उठाने में गर्व का अनुभव करते हैं। श्री अमरनाथ यात्रा के प्रबन्धन में 90 प्रतिशत कश्मीरी मुस्लिम नागरिकों की भागीदारी रहती है। मगर इस इत्तेहाद की दुश्मन अगर कोई रही है तो वह इस राज्य की 1990 के बाद की उपजी सियासत रही है। इन सियासी पार्टियों ने एक तरफ कश्मीर में अलगाववाद को हवा दी और दूसरी तरफ साम्प्रदायिक आधार पर यहां की महान संस्कृति को बांटना चाहा।

हकीकत यह है कि पत्थरबाज यहां खुद ही पैदा नहीं हुए बल्कि इन्हें सियासत में मौजू बनाने के लिए पैदा किया गया। असल में कश्मीर की समस्या केवल इतनी है कि यहां के लोग भी अमन पसन्द शहरी की तरह रहना चाहते हैं। वे भी चाहते हैं कि उनका पूरा कश्मीर एक हो और नाजायज मुल्क पाकिस्तान की हुकूमत वहां से खत्म हो मगर इसके लिए भारतीय संघ के तहत लाये गये कश्मीरियों के साथ किये गये वादों का एहतराम ईमानदारी के साथ हो। देखिये फिर किस तरह पाकिस्तान अपने कब्जे में कश्मीर के बड़े हिस्से को रख पाता है। कश्मीर का विशिष्ट नैसर्गिक चरित्र भारत के लिए कभी समस्या नहीं रहा है क्योंकि इस धरती का स्वर्ग बनाये रखने के लिए इसकी प्राकृतिक विशिष्टता आवश्यक है। यह काम केवल भारत ही कर सकता है, यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि पचास के दशक के शुरू में शेख अब्दुल्ला ने राष्ट्रसंघ में दिये गये अपने भाषण में कहा था।

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