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राजनीतिक शुचिता अब मतदाताओं की जिम्मेदारी

03:05 AM Apr 19, 2024 IST | Shivam Kumar Jha
राजनीतिक शुचिता अब मतदाताओं की जिम्मेदारी

यह गाथा काल्पनिक नहीं वास्तविक है। 1997 की है जब देश की स्वतंत्रता के पचास वर्ष पूरे हुए तब अनेक सामाजिक, शैक्षणिक संस्थानों ने एक ही विषय पर चर्चा परिचर्चा करवाई थी कि स्वतंत्रता के पचास वर्षों में भारतीय राजनीतिक और सामाजिक जीवन में कितना बदलाव आया। देश का विकास कितना हुआ। भारत में शिक्षा का प्रसार कितना हुआ। महंगाई बढ़ी या घटी? गरीबों को गरीबी से कुछ छुटकारा मिला है या नहीं? प्रश्न बार- बार यह भी किया जा रहा था कि 1997 में देश के गरीबी रेखा से नीचे नारकीय जीवन जीने वाले कितने ऐसे भाग्यशाली हैं जो यह रेखा पार करके सम्मानजनक वातावरण में सांस लेने लगे हैं। हर सेमीनार, विचार गोष्ठी, स्कूलों-कालेजों के मंचों में वाद- विवाद प्रतियोगिताओं में यही प्रश्न छाए रहते थे। आज की तारीख में हर राजनीतिक दल में विभीषण ही विभीषण हैं।

1967 से लेकर दल बदलना और उनको आया राम गया राम भी विशेषण से अलंकृत करना जनता का मुहावरा बन गया है, पर जैसे- जैसे हम शिक्षित हो रहे हैं लोकतंत्र का महत्व संभवत: कागजों और भाषणों में ही समझने लगे हैं। अनपढ़ नहीं शिक्षित जनप्रतिनिधि बन रहे हैं। ऐसे वातावरण में आस्था, विश्वास, वफादारी जैसे शब्द राजनीतिक जीवन से लगभग गायब हो गए हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि इस अमृत महोत्सव में जितना प्रदूषण अविश्वास राजनीति के क्षेत्र में और सभी राजनीतिक दलों में फैल रहा है वैसा तो स्वतंत्रता के पूर्व किसी ने नहीं सोचा होगा। न फांसी पर हंस- हंस कर झूलने वाले भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, मदनलाल ढींगरा इत्यादि ने और न ही काले पानी की यातनाओं से जूझने वाले वीर सावरकर और उसके साथी क्रांतिवीरों ने।

राजनीति को प्रदूषित करने में किसी एक दल एक व्यक्ति या एक प्रांत की कोई विशेष चर्चा नहीं। पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक राजनीति की दलदल में ऐसे लोगों का बोलबाला हो गया जिनका कोई चरित्र ही नहीं है। चुनावी रण में जाने के लिए एक डंडा तो हाथ में रखते हैं। उस पर झंडा किसका लगेगा यह सुविधानुसार तय कर लिया जाता है। कौन नहीं जानता कि यह दल बदलने वाले बहुत बहादुर हैं। कितनी भी निंदा हो जाए उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस वाणी वीरता से वे पहले विरोधियों पर चुनावी वार प्रहार करते थे वही उनकी वाणी वीरता तब देखने को मिलती है जब दल बदलकर उस पार्टी में चले जाते हैं जिसे पहले देश विरोधी, जनविरोधी और लोकतंत्र की हत्या करने वाले कहते थे।
ऐसे लोग आज भी संसद में हैं। अब पुन: चुनावी रण में अपनी वीरता दिखाने को तैयार हैं, जो भगवान श्रीराम जी का, भगवान विष्णु और माता सीता का अपमान संसद में करते रहे। व्हिस्की में विष्णु बसे, रम में बसे श्रीराम, जिन में माता जानकी.. कहते हुए उनकी जुबान न लड़खड़ाई, न कांपी और उनके हर दुवर्चन पर, हर कथन पर तालियां बजाने वाले भी पीछे बैठे मुस्कुराते रहे, तालियां बजाते रहे, लेकिन उन्होंने ही जब दल बदला तो फिर उनको अपना भविष्य रामजी में ही दिखाई दिया। फिर राम रम में बसे और विष्णु व्हिस्की में बसे नहीं दिखाई दिए, बल्कि राम जी अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के बाद भक्तों के लोक परलोक के आश्रय बने दिखाई देने लगे। राम जी तो हर भारतीय के मानस में बसे ही हैं, पर इन दल बदलुओं की केवल जुबान में हैं, दिल में तो संसद की सदस्यता पा लेना बसा है। एक नहीं, अनेक हैं और कुछ ऐसा बुरा नियम है कि भीड़ जो काम कर दे वह अपराध योग्य नहीं माना जाता। अब दल बदलने वालों की भीड़ है। यह ठीक है कि सत्तापतियों की ओर दल बदलुओं का झुकाव एकदम ज्यादा रहता है। झारखंड की सीता सोरेन शरण लेने के लिए संसद टिकट का समझौता करके ही सत्तापतियों की शरण में गई।
महाराष्ट्र में तो कमाल हो गया। एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री डूबते को तिनके का सहारा अन्यथा जांच एजेंसियों का घेरा समझकर ही लाभकारी समझौता कर गए। दल बदलने के बाद जो नया सूर्य निकला तब तक वे राज्यसभा में पहुंच गए। पंजाब में भी क्या हो रहा है। एक कांग्रेसी हारा हुआ विधायक पंजाब की सत्ता पार्टी ने संसद में पहुंचा दिया। बहुत अधिक मतों के साथ और और सांसद महोदय दल बदलते समय इतना समय भी नहीं लगाया जितना पुराने कपड़े उतारकर नए कपड़े पहनने में लगता है। भगवान श्रीकृष्ण जी ने यह कहा था कि जैसे शरीर पुराने कपड़े बदलकर नए पहनता है, वैसे ही आत्मा पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर प्राप्त करती है, पर भगवान श्रीकृष्ण जी ने यह कभी सोचा ही न होगा कि पुरानी पार्टी छोड़कर नई पार्टी ग्रहण करने वाले तो उतना समय भी नहीं लगाते जितना कपड़े बदलने में लगता है।
हिमाचल में क्या हुआ था जो नौ विधायक अपने राज्यसभा उम्मीदवार के साथ डिनर भी कर गए और स्वाद नाश्ता बिना कीमत दिए खा गए वही भोजन के साथ ही वफादारी भी पचा गए और दूसरी पार्टी के खेमे में पहुंच गए। भारत के उत्तर पूर्व में भी ऐसा हो रहा है। यूपी में, बिहार में तो सारे रिकार्ड ही तोड़ दिए। बिहार में एक व्यक्ति ने दल नहीं बदला, पूरे की पूरी सरकार ही बदल गई, पर नहीं बदला तो चेहरे का मुस्कुराना, लच्छेदार भाषण, आरोप-प्रत्यारोप अंतर इतना था कि तीर के निशाने बदले, डंडे के झंडे बदले और आज तक दल बदलने वाले अपने अपने भविष्य अगली पीढ़ियों के राजनीतिक भविष्य की चिंता करते हुए नई नई पार्टियां खोज रहे हैं। पंजाब में भाजपा के लोकसभा प्रत्याशी ज्यादा इम्पोर्टेड हैं। उनके पुराने राजनीतिक भागीदारों के भी। इसलिए अगर आज मुझे कोई पूछे कि अमृत महोत्सव के बाद अर्थात भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के बाद देश में क्या परिवर्तन आया। देश में तो आया है, विकास हुआ है। अगर कोई नया गीता ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण दुनिया को सुनाएंगे तो उसमें यह जरूर लिखेंगे जिस प्रकार शरीर पुराने कपड़े बदलता है वैसे ही राजनीति के खिलाड़ी दल बदलते हैं। यहां तो वे भी नेता पूरी तरह जिंदगी का आनंद ले रहे हैं जिन्होंने कहा था मर जाऊंगा, दल नहीं बदलूंगा। यह कहिए राजनीति की रीत यही बनाई वचन जाए पर गद्दी न जाई।

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