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नजीबाबाद से दिल्ली तक की राजनीति

06:00 AM Sep 20, 2025 IST | Rakesh Kapoor
नजीबाबाद से दिल्ली तक की राजनीति
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भारत की राजनीति का स्वरूप किस तरह और किस अन्दाज में पिछले तीन दशकों में बदला है उसकी कल्पना करना भी वर्तमान नई पीढ़ी के लिए बहुत मुश्किल काम है। इसकी वजह यह है कि वर्तमान में राजनीतिज्ञों का चरित्र पूरी तरह बदल गया है और वे सामाजिक बुराइयों के प्रतीक माने जाने लगे हैं। मुझे 1967 के आम चुनावों की अच्छी तरह याद है। उस वर्ष मैं इंटरमीटियेट के प्रथम वर्ष में प्रवेश कर गया था और राजनीति के प्रति मेरी जिज्ञासा जागृत हो चुकी थी। उस समय मेरा शहर नजीबाबाद उत्तर प्रदेश की देहरादून लोकसभा सीट के अन्तर्गत आता था जहां से नेहरू सरकार में मन्त्री रहे स्व. महावीर त्यागी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे। श्री त्यागी एक महान स्वतन्त्रता सेनानी थे और संविधान सभा के सदस्य भी रह चुके थे। मगर इस बार उनका मुकाबला एक ऐसे निर्दलीय प्रत्याशी और सांसद स्व. ठाकुर यशपाल सिंह से हो रहा था जिन्हें मन्त्रियों को हराने में ही महारथ हासिल था। 1962 के चुनाव में उन्होंने केन्द्रीय मन्त्री स्व. अजित प्रसाद जैन को पंजाब की (उस समय तक हरियाणा नहीं बना था) सीट से हराया था।

महावीर त्यागी बहुत सौम्य प्रतिभा के धनी थे। जबकि उनके प्रतिद्वन्दी यशपाल सिंह बहुत ओजस्वी वक्ता थे और रहन-सहन में भी पुराने रणवीरों की तरह देखे जाते थे। वह घोड़े पर चढ़ कर अपना चुनाव प्रचार करते थे। श्री त्यागी ने तब अपने चुनाव में शहर के प्रतिष्ठित साहू जैन परिवार का सहयोग मांगा। इस परिवार के साहू रमेश चन्द्र जैन तब दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया के वाणिज्य प्रबन्धक थे। बात उन तक पहुंची तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वह प्रकाशन समूह में होने के कारण उनकी प्रत्यक्ष मदद नहीं कर सकते हैं। साहू रमेश चन्द्र के पिताश्री स्व. रायबहादुर जगमन्दर दास के महावीर त्यागी के साथ बहुत मधुर सम्बन्ध रहे थे हालांकि साहू जगमन्दर दास को अंग्रेज सरकार रायबहादुर का खिताब अदा कर चुकी थी मगर उनके मन में कांग्रेसियों के प्रति निरादर का भाव नहीं रहता था। साहू रमेश चन्द्र जैन ने तब बहुत सरल भाव से यह तरीका निकाला कि नजीबाबाद के प्रभावी सामाजिक लोगों में मौजूद अपनी मित्र मंडली के सदस्यों को त्यागी जी का समर्थन करने के लिए कहा। इस चुनाव में विधानसभा का चुनाव नजीबाबाद से लगती साहरनपुर रियासत के पूर्व राजकुमार कुंवर देवेन्द्र सिंह लड़ रहे थे। साहू साहब की मित्र मंडली विधानसभा में देवेन्द्र सिंह का समर्थन कर रही थी। यह वही देवेन्द्र सिंह थे जिनके सुपुत्र भारतेन्दु सिंह बाद में बिजनौर लोकसभा सीट से भाजपा के सांसद हुए।

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हो रहे थे और शहर के मौजिज लोग लोकसभा में कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे जबकि विधानसभा में कांग्रेस का विरोध क्योंकि कुंवर देवेन्द्र सिंह निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे। चुनावों के दौरान एक बार साहू रमेश चन्द्र जैन नजीबाबाद आये भी मगर वह किसी राजनीतिक मंच पर नहीं चढे़। नगर में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। नगरवासियों में उनकी बात काटने की हिम्मत नहीं होती थी। लोकसभा चुनावों में महावीर त्यागी चुनाव हार गये जबकि देवेन्द्र सिंह जीत गये। मगर स्व. महावीर त्यागी को नजीबाबाद विधानसभा क्षेत्र से सर्वाधिक वोट मिले और वह इस विधानसभा सीट से भारी मतों से जीते मगर देहरादून विधानसभा व अन्य विधानसभाई क्षेत्रों में उनको बढ़त नहीं मिल सकी। साहू रमेश चन्द्र जैन के स्वर्गीय पिता रायबहादुर साहब जिला बिजनौर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दो बार चेयरमैन भी रहे थे और राजनीति में सक्रिय थे। अपने इस कार्यकाल में उन्होंने जिले के विकास के लिए उल्लेखनीय कार्य किये थे जिसके सभी जिलेवासी कायल थे। खास कर नजीबाबाद से लेकर बिजनौर तक की सड़क को पक्की कराने में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।

रायबहादुर साहब मानद मजिस्ट्रेट भी थे। अतः नजीबाबाद वासियों में उनकी छवि एक न्यायप्रिय नेता की थी। इसका लाभ साहू रमेश चन्द्र को मिला हालांकि रायबहादुर की मृत्यु तभी हो गई थी जब वह मात्र दस वर्ष के थे। आज की पीढ़ी को यह समझने की जरूरत है कि भारत का समग्र विकास शहरों के अंधाधुंध विकास से नहीं हुआ है बल्कि गांवों के स्तर से यह विकास का क्रम चला है और रायबहादुर सरीखे इंसानों की अहम भूमिका रही है। ग्रामीण राजनीति का चरित्र रहा है कि इसने गांवों या छोटे कस्बों से उठा कर वहीं के लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठापित किया है। इसका उदाहरण साहू रमेश चन्द्र जैन थे जो नजीबाबाद जैसे छोटे से कस्बे से उठ कर दिल्ली पहुंचे थे। उनका पूरा जीवन जिला बिजनौर की खाक में छिपी प्रतिभाओं को निखारने में ही लगा रहा। यह गुण उनमें पिताश्री से वंशानुगत तरीके से आया था।

बाद में महावीर त्यागी के साहू साहब से सम्बन्ध बहुत मधुर बने रहे हालांकि 1970 में हुए कांग्रेस के विघटन के बाद वह सिंडीकेट की संगठन कांग्रेस में चले गये थे। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमन्त्री बनने से पहले एक बार नजीबाबाद आना हुआ। उस समय तक नजीबाबाद में कोई कायदे का होटल तक नहीं था और स्व. वाजपेयी के कद को देखते हुए उन्हें किसी कायदे के स्थान पर ही रुकवाना था। किसी भाजपा कार्यकर्ता का घर भी इस योग्य नहीं था कि स्व. वाजपेयी को उसमें ठहराया जा सके। साहू रमेश चन्द्र के भाजपा नेताओं से भी बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। अतः कुछ नेताओं ने दिल्ली में उनसे सम्पर्क किया और साहू साहब ने यह समस्या बहुत सरलता से हल कर दी। उन्होंने सुझाव दिया कि वाजपेयी से नजीबाबाद के नगर सेठ स्वयं सम्पर्क करेंगे और उन्हें अपने घर ठहरने के लिए आमन्त्रित करेंगे।

कहने का मतलब यह है कि पुरानी राजनीति में इंसानी रिश्तों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती थी जो वर्तमान समय में विलुप्त होती जा रही है। उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध सिर्फ नजीबाबादवासी होने की वजह से ही रहा वर्ना उनकी हैसियत और मेरे परिवार की हैसियत में जमीन- आसमान का अन्तर था। अक्सर राजनीति के बारे में कहा जाता है कि इसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों की कोई खास महत्ता नहीं होती क्योंकि वैचारिक सम्बन्ध राजनीति में एक-दूसरे को जोड़ने में महती भूमिका निभाते हैं। इसी प्रकार मुझे स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा की याद आती है जो हर दुख-दर्द में सभी राजनैतिक भेदभाव भूल कर इंसानी रिश्ता निभाने हर किसी के दरवाजे पर चले जाते थे। यही गुण श्री लाल कृष्ण अडवानी में भी है। मगर राजनीति से ऐसे लोग गायब होते जा रहे हैं। जिसकी वजह से राजनीतिक आवाजें लगातार कर्कश होती जा रही हैं। आमों का मौसम निकल चुका है। एक जमाना था कि राजनीतिज्ञों की आमों की दावत के बहुत चर्चे हुआ करते थे। जिसमें हर पार्टी का धुर विरोधी नेता दिखाई दे जाता था। अब वह जमाना लौट कर आयेगा, संभव नहीं लगता।

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