पोस्टल बैलेट गणना और चुनाव आयोग
बाबा साहेब अम्बेडकर जब भारत का संविधान लिख रहे थे, तो उन्होंने संविधान सभा के संरक्षण में चुनाव आयोग का गठन किया और इसे सरकार का अंग न बनाकर इसकी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की। इसके साथ ही भारत में न्यायपालिका की भी स्वतन्त्र संवैधानिक सत्ता स्थापित की गई और इसे भी सरकार से अलग रखा गया, तब बाबा साहेब ने कहा कि भारत का लोकतन्त्र चार पायों पर टिका होगा। इसके चार पाये विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका व चुनाव आयोग होंगे। इनमें चुनाव आयोग का काम प्राथमिक स्तर पर पूरे भारत में लोकतन्त्र की उर्वरा जमीन तैयार करने का होगा जिस पर विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के तीनों मजबूत खम्भे खड़े होंगे। इस भ्रम को दूर किया जाना चाहिए कि संविधान में स्वतन्त्र पत्रकारिता या मीडिया को चौथा खम्भा बताया गया था। वास्तव में संविधान में प्रैस का कहीं कोई जिक्र नहीं है और इसकी उत्पत्ति संविधान के अनुच्छेद 19(1) की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार से होती है। इसी अधिकार से स्वतन्त्र व निर्भीक पत्रकारिता का जन्म होता है, क्योंकि लोकतन्त्र में आजाद अभिव्यक्ति का अधिकार मौलिक अधिकारों में आता है। भारत की स्वतन्त्रता के बाद 1967 तक चुनाव आयोग न तो कभी विवाद में आया और न ही लोकचर्चा में क्योंकि यह अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ निर्भीकता व निष्पक्षता के साथ करता था। अतः समाजवादी चिन्तक स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस पार्टी की पूरे देश में जबर्दस्त पकड़ और उठते हुए विपक्ष के सन्दर्भ में कहा कि स्वतन्त्र प्रेस अर्थात मीडिया लोकतन्त्र का चौथा खम्भा होता है, जो सरकार के कामकाज की सतत समीक्षा करता रहता है और उसकी खामियों की तरफ निशानदेही करता रहता है। डा. लोहिया ने जो चौखम्भा राज लोकतन्त्र में बताया उसमें चुनाव आयोग की जगह उन्होंने स्वतन्त्र प्रेस को रख दिया। इसकी वजह यह थी कि स्वतन्त्र प्रेस के परिवेश में पत्रकारों की जिम्मेदारी राजनीतिज्ञों की भांति ही आम जनता के प्रति होती है और केवल जनहित ही उनकी लेखनी का लक्ष्य होता है, परन्तु कालान्तर में मीडिया एक व्यापार के रूप में विकसित होता गया और पत्रकारों की जिम्मेदारी मीडिया मालिकों के प्रति होने लगी जिसमें जनहित का पक्ष गौण होता चला गया, मगर दूसरी तरफ चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बढ़ने लगी, क्योंकि विधानसभा व लोकसभा चुनाव अलग- अलग होने लगे। 1967 तक पूरे देश में लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे जिन्हें चुनाव आयोग बखूबी किया करता था, मगर इस वर्ष पूरे देश के विधानसभा चुनाव परिणामों में मूलभूत अन्तर आया और भारत के तब के कुल 15 राज्यों में से नौ राज्यों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो सका। इनमें से जहां मिला भी वहां कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने विद्रोह कर कुछ विधायकों के साथ कांग्रेस पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टियां बना लीं। इन नौ राज्यों में सभी कांग्रेस विरोधी दलों ने आपस में हाथ मिला कर खिचड़ी सरकारें बनाईं, जिन्हें संयुक्त विधायक दलों की सरकार कहा गया। बेशक कुछ राज्यों में दो या तीन से अधिक विपक्षी दलों ने मिलकर भी सरकारें बनाई थीं। ये सरकारें टिक नहीं सकीं और अपने ही अन्तर्विरोधों के चलते पांच साल से बहुत पहले ही गिर गईं जिसकी वजह से एेसे राज्यों में मध्यावधि चुनाव हुए। तभी से भारत में लोकसभा व विधानसभा चुनाव अलग-अलग होने लगे मगर इससे भारत का लोकतन्त्र मजबूत ही हुआ क्योंकि राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर मतदाताओं की पसन्द में अन्तर आने लगा। चुनाव आयोग ने मध्यावधि चुनाव भी बहुत सफलता के साथ कराये और ये चुनाव केन्द्र में कांग्रेस की स्व. इन्दिरा गांधी की सरकार रहते हुए, परन्तु पूरे भारत में 1969 में चुनाव आयोग पहली बार तब लोकचर्चा या जन विमर्श में आया जब इस वर्ष में कांग्रेस पार्टी का पहली बार विभाजन राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर हुआ। इन्दिरा जी ने प्रधानमन्त्री रहते हुए अपनी पार्टी कांग्रेस से इस मुद्दे पर विद्रोह कर दिया था। तब कांग्रेस पार्टी की सर्वोच्च संस्था कार्य समिति ने इन्दिरा जी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से ही अलग कर दिया। इस पर इन्दिरा जी ने कांग्रेस के अपने अनुयाई सांसदों व विधायकों के साथ एक समानान्तर दूसरी कांग्रेस पार्टी की घोषणा कर दी और इसे ही असली कांग्रेस बताया। मगर उस समय कांग्रेस के सभी बड़े नेता कांग्रेस कार्य समिति के फैसले के साथ थे जबकि इन्दिरा जी के साथ अधिकतर दूसरे पायदान पर रहने वाले नेता थे। तब कांग्रेस विघटन का मसला तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त स्व. एस.पी. सेन वर्मा के पास गया, क्योंकि कांग्रेस के दोनाें ही गुट अपने-अपने को असली कांग्रेस बता रहे थे। दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का मुख्यालय 10 जन्तर-मन्तर रोड कार्यसमिति के नेताओं के कब्जे में था, तो सरकार पर इन्दिरा गुट का कब्जा था हालांकि उनकी सरकार कांग्रेस के दोफाड़ होने की वजह से अल्पमत में आ गई थी, मगर तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों ने इन्दिरा गांधी का साथ दिया और उनकी सरकार को थामे रखा। श्री सेनवर्मा के सामने दोनों ही कांग्रेस गुटों ने दलील दी कि वे ही असली कांग्रेस हैं अतः पार्टी के चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी पर उनका ही दावा ही सही है। एेसे ही दावे पार्टी के मुख्यालय 10 जन्तर-मन्तर रोड के बारे में किये गये। श्री वर्मा के समक्ष यह मुकद्दमा बहुत लम्बा चला। उन्होंने अन्त में अपना फैसला दिया कि चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी जब्त (सीज) किया जाता है और दोनों गुटों द्वारा सुझाये गये अन्य चुनाव चिन्हों पर विचार करने के बाद कार्यसमिति वाले कांग्रेस गुट को संगठन कांग्रेस व इन्दिरा गुट को कांग्रेस (ई) का नाम दिया जाता है तथा संगठन कांग्रेस को चरखा कातती हुई महिला व इन्दिरा कांग्रेस को गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह आवंटित किया जाता है तथा 10 जन्तर-मन्तर कार्यालय संगठन कांग्रेस को दिया जाता है। जब तक चुनाव आयोग का यह फैसला आया तब तक पूरे देश में मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.पी. सेन वर्मा का नाम बच्चे- बच्चे की जुबान पर चढ़ चुका था और लोगों को पता चल चुका था कि प्रधानमन्त्री होने के बावजूद इन्दिरा गांधी को चुनाव आयोग की चौखट पर कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। इसके बाद 1977 में इमरजैंसी हटने के बाद जब लोकसभा चुनाव हुए तो चुनाव आयोग के प्रति विपक्ष आशंकित तो हुआ मगर उसने भरोसा नहीं खोया। चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि भारत का चुनाव आयोग एेसे खरे सोने की तरह है जिसमें रंचमात्र भी मिलावट नहीं है, क्योंकि इन चुनावों में इन्दिरा गांधी प्रधानमन्त्री होने के बावजूद अपना लोकसभा चुनाव हार गई थीं, परन्तु वर्तमान में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जिस तरह संकट गहरा रहा है वह भारत के लोकतन्त्र के हित में नहीं है। बहुत मामूली सी बात है कि जब भी चुनाव में मतगणना शुरू होती है तो वह पोस्टल बैलेटों की गिनती से ही शुरू होती है। पहले आम चुनावों 1952 में यह परम्परा पड़ी थी जिस पर बाद के दशकों पर ईमानदारी से अमल होता रहा मगर पिछले मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के जमाने में इसमें अचानक परिवर्तन आ गया और इनकी गणना सबसे बाद में की जाने लगी जिस पर विपक्षी दलों ने कड़ा एेतराज जाहिर किया और इसे चुनाव परिणामों में हेर-फेर करने वाली गतिवििध तक कहा। जब राजीव कुमार से विपक्षी दलों न शिकायत की तो उन्होंने कह दिया कि एेसा तो पहले भी होता रहा है अतः वह चुनावों के मौके पर कोई नया फैसला नहीं कर सकते हैं। यही मसला जब नये मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के सामने आया तो उन्होंने फैसला दिया कि पोस्टल बैलेटों की गिनती गणना का अंतिम चक्र पूरा होने से पहले कर ली जायेगी। आखिरकार उनकी कौन सी मजबूरी है कि वह यह नहीं कह सकते कि पोस्टल बैलेटों की गिनती सबसे शुरू में ही पूरी कर ली जायेगी जिससे किसी भी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश ही न रहे। चुनाव आयोग के कामकाज को पूरी तरह पारदर्शी बनाने की नैतिकता से मुख्य चुनाव आयुक्त बंधे रहते हैं।
उन्हें आयोग के हर कार्य को पूरी तरह पारदर्शी इसलिए भी बनाना होता है, क्योंकि इस देश के लोगों के सबसे बड़े संवैधानिक अधिकार के वह संरक्षक होते हैं और यह अधिकार एक वोट का होता है। अतः सभी चुनाव आयुक्तों को अपने पुराने समकक्षों के कामकाज को ध्यान में रखना चाहिए। बेशक इस सिलसिले में टी.एन. शेषन का नाम भी लिया जा सकता है।