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प्रीतनगर और गुरबख्श सिंह का प्रीतनगर

04:00 AM Nov 10, 2025 IST | Dr. Chander Trikha
प्रीतनगर और गुरबख्श सिंह का प्रीतनगर
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वैसे यह एक ख्वाब सा लगता है। क्या आज के माहौल में पंजाब या हरियाणा में कोई प्रीतनगर स्थापित करना संभव है? जिस प्रीतनगर की चर्चा आपसे बांट रहा हूं वह प्रीतनगर पंजाब का एक सीमावर्ती गांव है। यह अमृतसर से भी 20 किलोमीटर की दूरी पर है और लाहौर से भी 20 किलोमीटर ही दूर है। लेखक और चिंतक स. गुरबख्श सिंह चाहते थे प्रेम की एक ऐसी बस्ती बसाना जहां संवेदनशील, लेखक, चित्रकार, रंगकर्मी इकट्ठे रहे। वर्ष 1938 में कुल 175 एकड़ ज़मीन खरीदी गई। एक जैसी कोठियों का निर्माण हुआ। पहले-पहले वहां बसने वालों में बलवंत गार्गी, मुल्खराज आनंद, कर्तार सिंह दुग्गल, फैज़ अहमद फैज़, साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम, बलराज साहनी, नानक सिंह, नूरजहां, उपेंद्रनाथ अश्क, अहमद नदीम कासमी, शिव बटालवी, प्रो. मोहन सिंह आदि शामिल थे। कुछ वर्ष तो ‘प्रीत’ का जादू खूब चला, मगर धीरे-धीरे परिंदे अपनी-अपनी जड़ों की ओर उड़ने लगे। खुशबू अब भी थोड़ी बहुत कायम है। प्रेस है। पत्रिका निकलती है।
कुछ किताबें भी छपती हैं। पुरानी यादों की गर्म-सर्द हवा भी है। इसके संस्थापक थे सरदार गुरबख्श सिंह। थोड़ा अलग से इस शख्स सरदार गुरबख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ पर जि़ंदगी में थोड़ा झांक लें। इस लेखक की कृतियों की चर्चा अब भले ही कम होती हो, मगर ऐसी शख्सियतों की चर्चा दोहरा लेना भी सुखद लगता है। गुरबख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ का जन्म वर्तमान पाक सियालकोट शहर में 26 अप्रैल, 1895 को हुआ था। वर्ष 1918 में उन्होंने रुड़की स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में डिग्री प्राप्ति के बाद सेना की इंजीनियरिंग शाखा में नौकरी ले ली। सेना की नौकरी के सिलसिले में उन्हें बगदाद में तैनाती मिली। वहां कुछ वर्ष बिताने के बाद वह सिविल इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका की मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी में प्रविष्ट हो गए। वापसी पर भारतीय रेलवे में 1925 से 1932 तक नौकरी करते रहे।
अलग-अलग तरह के अनुभवों से गुज़रते हुए डॉ. गुरबख्श सिंह के मन में एक ऐसा कस्बा बसाने की परिकल्पना लगी जिसमें लेखन कला व संस्कृति से जुड़ी नामी शख्सियतें एक साथ रह सकें। शुरूआत ‘प्रीतलड़ी’ के प्रकाशन से हुई। मध्यम वर्ग, निम्न मध्य वर्ग और थोड़े उच्च माध्यम वर्ग से लेखन व कला की दुनिया में आए बुद्धिजीवियों को ‘प्रीतलड़ी’ ने प्रकाश में आने का अवसर दिया। गुरबख्श सिंह स्वयं भी खूब लिखते थे। उनका लेखन क्षेत्र उपन्यास था। सिलसिला इतना प्रभावी था कि गांधी व नेहरू को भी एक जिज्ञासु पर्यटक के रूप में खींच लाया लेकिन सृजन की दुनिया के इन बंदों को जोड़कर नहीं रख पाए गुरबख्श सिंह। वर्ष 1970 में एक बार चंडीगढ़ में ही भेंट हुई थी। मैं उन्हें अम्बाला छावनी भी ले गया। वहां पंजाबी समीक्षक प्रो. सतींद्र ‘नूर’ के साथ एक लम्बी व साझी बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘ज़्यादातर लेखक अपने अहम के गुम्बदों से बाहर ही नहीं आ पाते। इसी कारण सभी सुख-सुविधाओं के बावजूद प्रीतनगर में लम्बा टिकाव नहीं हो पाया।’ इस विलक्षण शख्स की चर्चित 24 कृतियों में ‘इश्क जिन्हां दी हड्डी रचया’, ‘अनवियाही मां’, ‘जि़ंदगी ते कविता’, ‘शबनम’, ‘जि़ंदगी वारस है’, ‘भावी मैना’, ‘मंज़ल दिस पई’, ‘प्रीतां दी पहरेदार’, ‘खुला दर’ आदि शामिल हैं। आखिर वर्ष 1977 में स. गुरबख्श सिंह अधूरे सपने लिए ही चंडीगढ़ में ही चल बसे थे। ऐसा कभी होता नहीं कि किसी व्यक्ति की कोई पत्रिका ही उसके नाम का एक हिस्सा बन जाए। लेखक गुरबख्श सिंह के बारे में सही जानकारी ‘नेट’ पर भी चाहिए तो आपको उनके नाम के साथ उनकी पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ का नाम भी लगाना होगा। भारत-पाक विभाजन के समय प्रीतनगर भी उजड़ गया था हालांकि लेखकों में से कई वहां से कुछ वर्ष बिताने के बाद ही चले गए थे। प्रीतलड़ी पत्रिका वर्ष 1933 में आरंभ की गई थी। तब ‘प्रीतनगर’ पांच वर्ष का हो चुका था। गुरबख्श सिंह पश्चिम में लम्बी अवधि तक पढ़ते रहे थे। कहीं न कहीं उनके मन में प्रीतनगर में हर चीज़ का स्तर अंतरर्राष्ट्रीय रखे जाने की ललक भी थी, वहां एक ‘सामुदायिक किचन’ थी, जिसमें रोज़ का ‘मेन्यू’ तय था लेकिन प्रीतनगर के निवासी वहां अपनी पसंदीदा चीज़ें भी अलग से बनवा सकते थे। एक ‘एक्टिविटी स्कूल था, जिसमें रंगमंच, खेलकूद, राजनीतिक संवाद, पिकनिक स्थल, पुस्तकालय और वाचनालय आदि सक्रिय रूप में थे।’ भारत-पाक विभाजन के समय दंगों व असुरक्षा की भावना ने यहां पर हलचल पैदा की। अनेक लेखक दिल्ली या लाहौर या जालंधर चले गए। श्री गुरबख्श सिंह का परिवार भी एक बार तो वहां से चला गया था लेकिन कुछ अन्य परिवारों के साथ वे कुछ माह बाद वापिस लौट आए। गुरबख्श सिंह वर्ष 1977 में चल बसे थे लेकिन तब तक इतना व्यापक लिख चुके थे कि उन्हें पंजाबी गद्य का जनक कहा जाने लगा था। वर्ष 1990 के दशक में वहां ‘गुरबख्श सिंह-नानक सिंह फाउंडेशन’ के नाम से एक ट्रस्ट बना। उनके बेटे नवतेज सिंह ने काफी लम्बे समय तक गतिविधियों को चलाया और उनके बाद उनके बेटे सुमित सिंह ने परंपरा जारी रखी। बड़ी बेटी उमा गुरबख्श सिंह ट्रस्ट की देखरेख करती रही है। जब सीमा पर शांति होती तो तब पाकिस्तान से भी कुछ रंगकर्मी यहां अपनी प्रस्तुतियां देने आ जाते थे। 22 फरवरी, 1984 को प्रीतनगर देशभर में चर्चा का केंद्र बना। उस दिन आतंकवादियों ने समीपवर्ती गांव लोपोके में सरदार गुरबख्श सिंह के पोते व प्रीतलड़ी के युवा सम्पादक सुमित सिंह की हत्या कर दी थी। सिर्फ 30 वर्ष के सुमित सिंह उन दिनों कट्टरपंथियों एवं आतंकियों के खिलाफ जमकर लिखते थे।
सुमित सिंह उस दिन अपने भाई ऋतुराज सिंह के साथ मोटरसाइ​िकल पर उस दिन दर्जी के पास सिले हुए कपड़े लेने जा रहे थे तभी आतंकवादियों ने रोक लिया और उसे भाई से अलग ले जाकर गोली मार दी। सुमित, साम्यवादी नेता श्री मदनलाल दीदी के दामाद थे। पत्नी पूनम भी प्रगतिशील विचारों की थी लेकिन धार्मिक उन्माद के खिलाफ आक्रोश इतना था कि वह अपने पति की अंतिम अरदास में भी शिरकत करने नहीं गई। सुमित सिंह ने हत्या के कुछ दिन पूर्व ही अपना अंतिम सम्पादकीय लेख लिखा था। वह बाद में छपा लेकिन वही लेख आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का शंखनाद सिद्ध हुआ था। प्रीतलड़ी ने जब अपने प्रकाशन के 80 वर्ष पूर्व पूरे किए तब पत्रकार एवं कवयित्री निरुपमा दत्त ने ‘दी ट्रिब्यून’ में एक लेख लिखा था, वह इस प्रकार था-
साहित्य, कला व संस्कृति है प्रीतनगर की रीत, कभी कलाकारों और साहित्यकारों का मक्का कहलाता था ये गांव : उस जमाने में भी उनके विचार बेहद प्रगतिशील थे। उन्होंने प्रीतनगर में एक सामूहिक रसोई बनाई जिसमें न केवल साझा चूल्हा था। बल्कि उसके लिए साझी डेयरी, साझी खेती का भी प्रावधान रखा। गुरबख्श सिंह की बहन उमा पंजाब की पहली महिला रंगमंच कलाकार थीं। उनसे पहले महिलाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाते थे। इसके अलावा उन्होंने एक अनोखा स्कूल वहां शुरू किया था। वहां बच्चों को किताबी शिक्षा से ज्यादा, अनुभव आधारित पाठ पढ़ाए जाते थे। देश में 1936 में गांव के लिए नक्शा तैयार किया गया। 1937 में इसके लिए जमीन खरीदी गई और 7 जून 1938 को वह सपना सच हुआ जब 16 परिवारों ने वहां रहना शुरू किया। पहला विदेशी ट्रैक्टर लाने वाले गुरबख्श सिंह की ऐसी सोच के पीछे थी उनकी विदेश में हुई पढ़ाई। वह अमेरिका से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर लौटे थे। इस पढ़ाई के पीछे उनकी पत्नी का बलिदान भी था, जिन्होंने अपने जेवर बेचकर उन्हें पढ़ने विदेश भेजा था जो साहित्यकार प्रीतनगर में रहे उनमें उपन्यासकार नानक सिंह का विशेष उल्लेख जरूरी है क्योंकि वे अंतिम सांस तक प्रीतनगर की मिट्टी से जुड़े रहे। यही कारण था कि गुरबख्श सिंह तथा उनकी याद में 16 अप्रैल, 1999 को ‘गुरबख्श सिंह- नानक सिंह फाउंडेशन’ की स्थापना की गई।
परंपरा चौथी पीढ़ी के हवाले : प्रीतलड़ी की संपादक पूनम सिंह बताती थी कि इस गांव की परंपरा को जारी रखने का जिम्मा अब चौथी पीढ़ी ने उठाया था। रतिका सिंह और समिया सिंह द्वारा शुरू किए गए ‘आर्टिस्ट्स रेजि़डेंसी प्रोग्राम’ के अंतर्गत ब्रिटिश, कोलंबिया तथा स्कॉटलैंड से भी विद्यार्थी आकर यहां पंजाबियत के बारे में लिखते और डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाते रहे हैं। यहां मॉरिशस, कनाडा, बैंगलूरू के कलाकारों का काम भी प्रदर्शित है।

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