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राजनीति में लोकलज्जा

04:42 AM Sep 04, 2025 IST | Aditya Chopra
राजनीति में लोकलज्जा
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

राजनीति में गाली-गलौच के लिए कोई स्थान नहीं होता क्योंकि इसकी मार्फत लोकतन्त्र में आम जनता अपने अधिकारों के लिए लड़ती है। यह लड़ाई पूर्णतः वैचारिक आधार पर होती है अतः जब भी राजनीति में भाषा का स्तर गाली पर उतर आता है तो उसे वैचारिक खोखलेपन का सबूत माना जाता है। वैचारिक खोखलापन राजनीति में तब भी माना जाता है जब नीतिगत सिद्धान्तों के स्थान पर व्यक्तिगत आलोचना होने लगती है। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डाॅ. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि राजनीति में जब वैचारिक स्तर पर खोखलापन शुरू होता है तो व्यक्तिगत आलोचना शुरू होती है और यह चरित्र हत्या तक पहुंच जाती है। मगर भारत में पिछले दो दशक से राजनीति का स्तर लगातार गिरता जा रहा है जिसके लिए सत्ता व विपक्ष दोनों ही जिम्मेदार हैं। हाल ही में बिहार में वोटर अधिकार यात्रा के दौरान जिस प्रकार प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को मां की गाली दी गई, उसकी हर हाल में हर पक्ष द्वारा निन्दा की जानी चाहिए। सवाल यह नहीं है कि यह गाली एक विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा दी गई, बल्कि असल सवाल यह है कि यह गाली कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के मंच से दी गई। यह भी सवाल नहीं है कि उस समय मंच पर कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी व राजद नेता श्री तेजस्वी यादव मौजूद नहीं थे और उनकी सभा समाप्त हो चुकी थी, बल्कि सवाल यह है कि जिस व्यक्ति ने प्रधानमन्त्री को गाली दी उसने इन दोनों नेताओं के मंच का ही प्रयोग किया। अतः बहुत स्वाभाविक सवाल है कि इसकी जिम्मेदारी सभा के आयोजनकर्ता को लेनी चाहिए। कांग्रेस का तर्क है कि बिहार के दरभंगा शहर में जहां यह घटना घटी वहां के सभा आयोजक एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने घटना के लिए माफी मांग ली है जिसके बाद विवाद समाप्त हो जाना चाहिए था, मगर घटना के लिए यदि कांग्रेस व राजद का शीर्ष नेतृत्व भी दुख प्रकट कर देता है तो उससे उसका कद छोटा नहीं हो जायेगा। कांग्रेस महात्मा गांधी की पार्टी है और इसकी विरासत बहुत विशाल व गरिमामयी है। महात्मा गांधी ने 1920 में अपना असहयोग आन्दोलन इसीलिए वापस ले लिया था कि चौरी-चौरा में हिंसक घटना हो गई थी और आन्दोलनकारियों ने पुलिस स्टेशन को आग लगा दी थी। अपने आन्दोलन में हिंसा को होते देख राष्ट्रपिता ने आन्दोलन की वापसी की घोषणा कर दी थी। अतः कांग्रेस पार्टी को दरभंगा के मामले पर गंभीरता और गहराई से विचार करने के बाद ही प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए थी। कांग्रेस पार्टी और राजद की यात्रा आम जनता के हकों के लिए ही हो रही थी इसलिए इन दोनों पार्टियों को आम जनता के हितों का ध्यान रखना चाहिए था। इस यात्रा के दौरान गाली जैसी विसंगति के पैदा होने के बाद इस मुद्दे की गंभीरता पर विचार करना चाहिए था और सोचना चाहिए था कि उनका मुकाबला उस भाजपा पार्टी है से है जो एेसे मुद्दों को अपने पक्ष में भुनाने की माहिर मानी जाती है।
विचारणीय पक्ष यह है कि स्वतन्त्र भारत में भाजपा की राजनीति पूरी तरह कांग्रेस पार्टी की खामियों पर ही टिकी हुई है। इसके वैचारिक पक्ष का प्रमुख हिस्सा कांग्रेस की आलोचना ही रहा है अतः विपक्ष में आने के बाद कांग्रेस को हर कदम फूंक- फूंक कर रखना होगा और देश की जनता को दिखाना होगा कि उसकी राजनीति केवल भाजपा की आलोचना पर टिकी हुई नहीं है बल्कि वह अपनी मौलिक विचारधारा पर चलने वाली पार्टी है। राजनीति में व्यंग्य-विनोद के लिए तो पर्याप्त स्थान है मगर गाली जैसी कलुषता के लिए लेशमात्र भी जगह नहीं है। भाजपा को जनता के बीच स्थापित करने में इसके स्वर्गीय नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का विशिष्ट स्थान माना जाता है। 1969 में जब स्व. वाजपेयी भारतीय जनसंघ (भाजपा) के नये-नये अध्यक्ष बने थे तो उस समय तीसरी पंचवर्षीय योजना अधर में लटक गई थी। इसकी वजह यह थी कि 1962 में भारत की चीन से लड़ाई हुई और 1965 में पाकिस्तान से। इन दोनों लड़ाइयों के कारण तीसरी पंचवर्षीय योजना अधूरी ही रह गई तो स्व. वाजपेयी ने एक जनसभा में कहा कि ‘हम सरकार से पूछते हैं कि पंचवर्षीय योजना का क्या हुआ तो वह कहते हैं कि यह प्रसव में है। हम कहते हैं कि जल्दी निकालों तो वे कहते हैं कि पीड़ा होती है’।
श्री वाजपेयी के इस कथन को तब विपक्ष की ही स्वतन्त्र पार्टी के नेता स्व. पीलू मोदी ने बहुत गंभीरता से लिया था और कहा था कि श्री वाजपेयी को अपने शब्द वापस लेने चाहिए क्योंकि उन्होंने नारी की प्रसव वेदना का उपहास उड़ाया है। इस पर वाजपेयी ने दुख भी प्रकट कर दिया था। अतः भारतीय राजनीति की यह पंरपरा रही है। एेसा नहीं है कि दो दशक पहले तक राजनीति पूरी तरह साफ-सुथरी थी। इससे पहले भी सत्ता पक्ष की आलोचना विपक्ष में बैठी पार्टियां जमकर किया करती थीं, खासकर जनसंघ पार्टी तो कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देती थी और व्यक्तिगत आलोचना तक पर उतर आती थी मगर उसमें लोकलज्जा का भाव जरूर रहता था। सबसे बड़ी चिन्ता की बात आज यह है कि राजनीति से लोकलज्जा समाप्त होती जा रही है जबकि यह लोकतन्त्र का गहना मानी जाती है। लोकलज्जा को कायम रखना केवल विपक्ष का ही काम नहीं है, बल्कि सत्ता पक्ष की भी यह जिम्मेदारी होती है कि उसका हर काम इसी दायरे में हो। डाॅ. लोहिया यह भी कहा करते थे कि लोकतन्त्र केवल लोकलज्जा से ही चल सकता है क्योंकि इसके समाप्त होते ही राजनीतिक द्वेष घृणा का रूप ले लेता है।

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