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लोकतन्त्र में लोकहित की राजनीति

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10:10 AM May 06, 2019 IST | Desk Team

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‘‘लोकतन्त्र में राजनीति केवल लोकहित के मुद्दों पर ही इस प्रकार होती है कि चुनावों के माध्यम से ‘जनता की सत्ता’ का अभिलेख प्रत्येक मतदाता बड़ी आसानी के साथ पढ़ और बाच सके। जो अनपढ़ हैं उनकी लोकतन्त्र में भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं होती क्योंकि वे हालात देख-सुन कर ही अपनी भागीदारी का फैसला करते हैं। सबसे ज्यादा समझदार ये लोग ही होते हैं क्योंकि वे अपने अनुभव के बूते पर इस अभिलेख को एक-दूसरे को बाचते हैं।’’ यह मेरा कथन नहीं है बल्कि संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर का है जो उन्होंने स्वतन्त्र भारत के प्रथम कानून मन्त्री के रूप में कहे थे।

अम्बेडकर कितने दूरदर्शी थे इसका अंदाजा उनके ‘हिन्दू कोड बिल’ से लगाया जा सकता था जिसमें उन्होंने स्वतन्त्र भारत के समाज को वैज्ञानिक आधुनिक पुट देने का प्रयास किया था। दुर्भाग्य से यह विधेयक कट्टरपंथियों के विरोध के कारण संविधान सभा (जिसे 1947 के बाद लोकसभा में परिवर्तित कर दिया गया था) गिर गया। मगर प. जवाहर लाल नेहरू ने इस विधेयक को 1952 के प्रथम लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी कांग्रेस एक प्रमुख मुद्दा बनाया और 1956 तक संसद में कई भागों में बांट कर इस विधेयक को पारित करने में सफलता प्राप्त की। यह नये भारत की सामाजिक परिवर्तन की बयार थी जो स्वतन्त्र भारत में बहनी शुरू हो गई थी। इसका समर्थन देश के उन अनपढ़ लोगों तक ने किया जो रूढि़वादी परंपराओं से जकड़े हुए थे। यह कार्य आम जनता को केन्द्र में रख कर ही नेहरू ने उनकी शिरकत लेकर सफलतापूर्वक किया और सिद्ध किया कि संविधान में जिस एक वोट की ताकत डा. अम्बेडकर ने प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के दी है उसकी ताकत कितनी जबर्दस्त होती है कि वह सदियों से चली आ रही दकियानूसी बेड़ियों को भी तोड़ सकती है।

मगर आज हम इस मोड़ पर आ गये हैं कि 17वीं लोकसभा चुनावों के मैदान में हमारे राजनैतिक दलों के पास कोई एेसे मुद्दे नहीं हैं जिनमें आम मतदाता अपनी सीधी भागीदारी महसूस कर सके। यह प्रमाण है कि लोकतन्त्र हमें असफल नहीं कर रहा है बल्कि हम लोकतन्त्र को असफल कर रहे हैं। भारतीय गणतन्त्र की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर 1999 मंे राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. के.आर. नारायणन ने जब भारत की सामाजिक स्थितियां देखते हुए यह कहा था कि ‘हमंे सोचना होगा कि क्या संविधान ने हमें असफल किया है अथवा हम संविधान को असफल कर रहे हैं’ तो पूरे देश में एक बवंडर मच गया था क्योंकि तब दलितों व महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं खूब प्रकाशित हो रही थीं और कुछ राज्यों में साम्प्रदायिक मारकाट भी हो रही थी।

स्व. नारायणन स्वयं एक दलित थे जो राष्ट्रपति पद तक पहुंचे थे। तब से लेकर अब तक 20 वर्ष लगभग हो चुके हैं परन्तु भारत की सामाजिक परिस्थितियों में बजाय अन्तर आने के और ज्यादा हालत बिगड़ी है। इसे सुधारने का जिम्मा अगर राजनीति का नहीं है तो क्या वैज्ञानिकों का है? हमने देखा है कि किस तरह भारत में असहिष्णुता पर लम्बी-लम्बी बहसें हुई हैं और आंदोलन तक हुए हैं। किस तरह दलित युवकों को नंगा करके सरेआम पीटा जाता रहा है और उनकी महिलाओं के साथ कुकर्मों के नये रिकार्ड बनाये गये हैं। किस तरह धर्म की आड़ में लोगों को एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाने की तरतीबें भिड़ाई गई हैं।

आखिरकार इन सब मुद्दों पर यदि चुनाव के मौके पर विमर्श नहीं उभरेगा तो कब अभरेगा ? चुनाव ही तो मौका होता है जब राजनैतिक दल एक-दूसरे को आइना दिखाकर जनता के सामने सच्चाई रखने का हौंसला दिखाते हैं। हर चुनाव देश को आगे ले जाने के लिये होते हैं न कि पीछे मुड़-मुड़ कर गड़ी कब्रें खोद कर उनका पोस्टमार्टम करने के लिए। इस देश को बनाने में पिछली सभी सरकारों की भूमिका रही है तभी तो आज हम इस मुकाम पर पहुंचे हैं कि राजनैतिक बदलाव के जरिये अपना भाग्य और सुनहरा बनाना चाहते हैं। यदि स्व. राजीव गांधी ने भारत में कम्प्यूटर क्रान्ति और सूचना क्रान्ति न लाई होती तो क्या इस देश के युवा आज साफ्टवेयर उद्योग में दुनिया के सिरमौर बन पाते? यदि स्व. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर भारत की पूर्वी सीमा को निर्भय न बनाया होता तो आज बचे-खुचे पाकिस्तान के रवैये को देखते हुए देश के हालात क्या होते?

हमें आज बात करनी है कि लगातार बड़े कल-कारखानों के टैक्नोलोजी मूलक होने से श्रमिक संख्या घटने का हल रोजगार के नये साधन उपलब्ध कराकर किस प्रकार निकलेगा? क्या वह है कि लाखों की संख्या में सरकारी नौकरियां रिक्त पड़ी हुई हैं और करोड़ों की संख्या मंे शिक्षित युवा बेरोजगार हैं। दरअसल विकास कोई एेसी प्रक्रिया नहीं होती जो स्थिर रह सकती है। यह सतत् प्रक्रिया होती है जिसे नकारात्मक राजनीति के जरिये कभी भी आगे नहीं बैठाया जा सकता। इसका सीधा सम्बन्ध सामाजिक विकास से होता है क्योंकि जड़ समाज अपने वजूद के लिए विकास को चुनौती समझता है। इस हकीकत को बाबा साहेब बखूबी समझते थे जिसकी वजह से उन्होंने भारत को एेसा संविधान दिया जिसमें सामाजिक से लेकर आर्थिक व राजनैतिक विकास का पहाड़ा लिखा हुआ है।

इसका सबसे बड़ा परीक्षण इन्हीं चुनावों मंे किसी और की नहीं बल्कि चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर ही हो रहा है क्योंकि संविधान में ही यह स्पष्ट है कि चुनावों में हर राजनैतिक दल को एक समान वातावरण उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी आयोग की होगी। यदि फिर भी इसमें कोई कोताही रहती है तो संविधान में ही चुनाव आयोग के फैसलों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनाव निपटने के बाद चुनौती दी जा सकती है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। 1974 में दिल्ली सदर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी स्व. अमरनाथ चावला का लोकसभा चुनाव निरस्त होना (सीमा से अधिक धन खर्च करने के मुद्दे पर) और उसके बाद 1975 में रायबरेली सीट से तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द होना (चुनाव मंे सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने के मुद्दे पर )। ये मुद्दे चुनाव आचार संहिता से ही जुड़े हुए थे। सोचिये इस लोकतन्त्र की ताकत।

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