पंजाब पंजाबियत और चुनाव
पंजाब में इस बार पहले के मुकाबले भिन्न राजनीतिक परिस्थितियों में चुनाव हो रहे हैं।
02:34 AM Feb 18, 2022 IST | Aditya Chopra
पंजाब में इस बार पहले के मुकाबले भिन्न राजनीतिक परिस्थितियों में चुनाव हो रहे हैं। सर्वप्रथम 1967 के बाद पहली बार हो रहा है कि अकाली दल व जनसंघ (भाजपा) अलग-अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं और अकाली दल ने पहली बार बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया है। दूसरे पंजाब के मैदान में पारंपरिक पार्टियों के अलावा कोई तीसरा दल आम आदमी पार्टी राज्य में अपनी सरकार तक बनाने की जुर्रत दिखाने की बात कर रहा है। इससे पाकिस्तान की सीमा से लगे इस महत्वपूर्ण राज्य की राजनीति पहेली बनती जा रही है मगर एक तथ्य सभी को ध्यान में रखना चाहिए कि पंजाब का पूरा इतिहास मुल्क पर जांनिसारी का इतिहास है और यहां के लोग जीवन के हर पहलू में आधुनिकता व प्रगतिशीलता को अपनाते रहे हैं। यह स्वयं में विस्मयकारी नहीं है कि इस बार के चुनावों में ‘पंजाबियत’ पर इस प्रकार खुल कर चर्चा हो रही है कि यह स्वयं में एक मुद्दा बनता नजर आ रहा है।
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दरअसल हकीकत यह है कि पंजाबियत ऐसा जज्बा है जिसमें दिलेरी और इंसानियत इस तरह मिली-जुली रहती हैं कि व्यक्ति का विकास सम्पूर्णता में भौतिकवादी सुखों के आलोक में होता है। कृत अर्थात कर्म अथवा श्रम या मेहनत से पंजाबी परिस्थितियों को बदलने का हौसला रखते हैं और इसका असर हमें राजनीति में भी दिखाई पड़ता है। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद (पेप्सू समाप्त होने के उपरान्त) पंजाब के मुख्यमन्त्री बने स्व. सरदार प्रताप सिंह कैरों ने 1964 तक ही इस राज्य को ‘भारत का यूरोप’ बना दिया था और हर गांव तक सड़क व बिजली पहुंचाने के बाद प्रत्येक जिले में आईटीआई व आधुनिक सुविधा से युक्त सरकारी अस्पताल खोल दिया था। उस समय तक हरियाणा व हिमाचल प्रदेश भी पंजाब के ही हिस्सा थे। आज जो हम फरीदाबाद को औद्योगिक केन्द्र के रूप में देखते हैं उसकी आधारशिला स्व. कैरों ने ही रखी थी। वर्तमान राजनीति के सन्दर्भ में सरदार प्रताप सिंह कैरों का जिक्र इसलिए आवश्यक है कि उनके बाद 1966 में पंजाब राज्य के तीन राज्यों में विभक्त होने के बावजूद आज तक कोई ऐसा नेता नहीं आया जिसमें उनके जितनी दूरदर्शिता हो और जो पंजाबियों के सर्वांगीण विकास के लिए इतना कटिबद्ध हो।
आगामी 20 तारीख को होने वाले मतदान के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के जो बयान हम देख-सुन रहे हैं उनमें विकास की बात तो हो रही है परन्तु वह दृष्टि गायब है जिससे पंजाब की धरती को पुनः आधुनिक विज्ञान की सौगातों से नवाजते हुए इसे अपने पुराने अव्वल स्थान पर पहुंचाया जा सके। यदि हम बंटवारे से पहले के सम्पूर्ण पंजाब को लें तो आज के पाकिस्तान के पंजाब में रहने वाले हिन्दू और सिखों के भरोसे ही पंजाब की अर्थव्यवस्था चलती थी और इन्ही लोगों के पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में विभिन्न उद्योग व वित्तीय संस्थान थे और इन्ही की दानशीलता की वजह से पूरे पंजाब में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का कारगर ढांचा बना हुआ था। आज तक स्यालकोट में सरदार गंडा सिंह ओबेराय की विभिन्न खेलों का सामान बनाने की उस फैक्टरी के अवशेष बाकी हैं जिसमें हर खेल के खिलाड़ियों के लिए जरूरी सामान विश्व स्तर की गुणवत्ता का बनता था। आजादी के बाद पंजाब की यह खूबी जारी रही और एक समय में यह देश का सर्वाधिक खुशहाल राज्य भी रहा परन्तु राजनीतिक हितों के चलते इस राज्य की रंगत कुछ इस तरह बदलनी शुरू हुई कि पंजाबियों के हिस्से में आतंकवाद तक आ गया मगर उससे निजात पाने में भी पंजाबियों ने ही पहल की और अपने जज्बे से फिर से काम करना शुरू किया।
राजनीतिक सन्दर्भों में सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि पंजाबियों ने कभी भी अपनी संस्कृति को बाहर के किसी भी प्रभाव में नहीं आने दिया है। बेशक पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के पंजाबी आज पाकिस्तानी कहलाये जाते हैं मगर भारत के रहने वाले पंजाबियों और पाकिस्तान में रहने वाले पंजाबियों की संस्कृति में कोई अन्तर नहीं है सिवाय धर्म अलग होने के। अतः आज भारत के पंजाब में किसी भी प्रकार की राजनीति पंजाबियों को उनके मूल ‘दिलेरी और इंसानियत’ के जज्बे से अलग नहीं कर सकती। इस राज्य के लोगों की राजनीतिक सोच हमेशा राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने की रही है अतः इस राज्य में जिस किसी भी दल की सरकार रही है उसे पंजाबियों की इस सोच के साथ ही चलना पड़ा है। यही वजह है कि इस राज्य में भारत के दूसरे राज्यों से आने वाले लोग भी यहां की खुशहाली में हिस्सेदार बनते रहे हैं और पंजाबियत के जज्बे से सराबोर होते रहे हैं। चुनाव में अब बहुत कम समय शेष रह गया है अतः प्रत्येक राजनीतिक दल को यह सोच कर वोट मांगने होंगे कि पंजाब वैचारिक दृष्टि से भारत का आधुनिकतम राज्य है क्योंकि यहां सिख गुरुओं के ‘मानस की जात सबै एकौ पहचान बो’ के संस्कार हैं और जातिवाद का भेद समाप्त करने वाला भारत का यह पहला राज्य महान सन्त गुरु नानक देव जी महाराज के समय से ही रहा है। यहां सूरमा की परिभाषा भी यही है कि ‘जो लरै दीन के हेत सूरा सोही’ अर्थात शूरवीर वहीं है जो गरीबों या दीन- दुखियों के हित के लिए लड़ता है और वास्तव में पंजाबियत का अर्थ भी यही है।
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