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मदरसों के अस्तित्व पर सवाल

दुनिया भर के स्कूल और कालेजों में शिक्षित और कामयाब इंसान बनने की​ ​शिक्षा दी जाती है लेकिन धार्मिक मदरसों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है लेकिन मदरसों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा कट्टरपंथी विचारधारा को पुख्ता करती है।

01:39 AM May 25, 2022 IST | Aditya Chopra

दुनिया भर के स्कूल और कालेजों में शिक्षित और कामयाब इंसान बनने की​ ​शिक्षा दी जाती है लेकिन धार्मिक मदरसों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है लेकिन मदरसों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा कट्टरपंथी विचारधारा को पुख्ता करती है।

मदरसों के अस्तित्व पर सवाल
दुनिया भर के स्कूल और कालेजों में शिक्षित और कामयाब इंसान बनने की​ ​शिक्षा दी जाती है लेकिन धार्मिक मदरसों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है लेकिन मदरसों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा कट्टरपंथी विचारधारा को पुख्ता करती है। इसी कट्टरपंथी विचारधारा के चलते छात्र तालिबान और अलकायदा जैसे खूंखार संगठनों की विचारधारा से प्रभावित होकर आतंकवादी बनते हैं और बे-मौत मारे जाते हैं। बचपन गीली मिट्टी के समान होता है और इस दौरान आप बच्चों के व्यक्तित्व को जो आकार देते हैं वही उनके भविष्य की बुनियाद बन जाता है। वर्तमान दौर में चाहे अविभावक हिन्दू हों, मुस्लिम हों या किसी अन्य धर्म से ताल्लुक रखते हों उनमें से अधिकांश अविभावक बच्चों के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं। बहुत कम लोग चाहते होंगे कि उनके बच्चे मौलवी, पादरी या पुजारी बनें। सभी अपने बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर या अफसर बनाना चाहते हैं। भारत में मदरसों में दी जा रही धार्मिक शिक्षा को लेकर कई बार सवाल उठ चुके हैं।
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भारत में कुल 18 राज्य ऐसे हैं जहां मदरसों को केन्द्र सरकार से फंडिंग मिलती है। इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा आदि राज्य शामिल हैं। भारत का 70 वर्षों का इतिहास धार्मिक तुष्टिकरण की मिसालों से भरा पड़ा है। अल्पसंख्यकों को अपने मुताबिक शिक्षा हासिल करने का अधिकार भारत का संविधान भी देता है। संविधान के आ​र्टिकल 30 के मुताबिक भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वह अपने खुद के भाषायी और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और वे बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं। हालां​कि मदरसों में अब गणित और विज्ञान जैसे आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाते हैं लेकिन मूल रूप से इनका मकसद बच्चों को धर्म के रास्ते पर ही ले जाना होता है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि मदरसों में धार्मिक शिक्षा के नाम पर जो पढ़ाया जा रहा है उससे उन्हें तरक्की के रास्ते पर ले जाने की बजाय उन्हें कट्टरपंथी बनाया जा रहा है।
एक शोध के  मुताबिक मदरसों में पढ़ने वाले सिर्फ 2 प्रतिशत छात्र ही भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं। जबकि 42 प्रतिशत छात्रों का उद्देश्य भविष्य में उच्च शिक्षा हासिल करना होता है। 16 प्रतिशत छात्र शिक्षक बनकर धर्म की शिक्षा देना चाहते हैं। दरअसल धर्म की आड़ में छात्रों को आधुनिक शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। 70 वर्षों तक केन्द्र की सरकारों ने मुस्लिमों का तुष्टिकरण किया। उन्होंने मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि के मामले में पीछे धकेल दिया। मुस्लिमों को केवल वोट बैंक समझा गया। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने शासन काल में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति दिलाने का काम किया।
छोटी उम्र के बच्चों को धार्मिक ​शिक्षा देना सही या गलत यह बहस बहुत व्यापक है लेकिन अब वक्त आ गया है कि मुस्लिम समाज इस बात का फैसला करे कि केवल धार्मिक शिक्षा से समाज को सिर्फ कट्टरता के कांटे हासिल होंगे या फिर ज्ञान विज्ञान की छाया में आगे बढ़ेंगे। कई उदाहरण देश में सामने आए हैं, जहां मदरसों में छोटी उम्र में ही बच्चों को ​जिहादी शिक्षा दी जा रही थी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मदरसों को पूरी दुनिया में आतंकवाद के लांचपैड के तौर पर देखा जाता है। दुनिया में हुए कई आतंकवादी हमलों के तार इन मदरसों से जुड़ेे हुए हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमन्त बिस्व सरमा ने मदरसा प्रणाली का पुरजोर विरोध करते हुए इस मदरसा शब्द के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिए। उन्होंने मदरसा शब्द को खत्म करने की वकालत करते हुए कहा है कि स्कूलों में ही आधुनिक शिक्षा दी जानी चाहिए। ताकि छात्रों के पास भविष्य में कुछ भी करने का विकल्प हो। अगर किसी ने धार्मिक शिक्षा हासिल करनी है तो वह अपने घर पर ही करे। बच्चों को मदरसों में दाखिला दिलाना ही उनके मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है। जब तक यह मदरसा शब्द दिमाग में रहेगा तब तक बच्चे कभी डाक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकते। उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में मदरसों में सुधार करने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए कार्य योजनाएं तैयार की जा रही हैं। इन सब का ​विरोध किया जा रहा है। असम में लगभग 1500 से ज्यादा मदरसों को स्कूूल में बदलने का फैसला किया गया है। इनमें से 614 सरकारी और 900 प्राइवेट मदरसे हैं। सरकार इन्हें ग्रांट भी देती है।
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दरअसल किसी भी धार्मिक संस्थान में प्रवेश की उम्र ऐसी होनी चाहिए जहां युवा अपने फैसले खुद ले सकें। हर बच्चा औपचारिक शिक्षा पाने का हकदार है। उन्हें विज्ञान, गणित और आधुनिक शिक्षा की अन्य शाखाओं के ज्ञान से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि इन स्कूलों से अधिक प्रोफैशनल्स निकल सकें। मदरसे मुसलमानों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने का काम कर रहे हैं और शिक्षा के नाम पर इस्लाम को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। बच्चों के मन में जहर सिर्फ धर्मिक शिक्षा के आधार पर नहीं भरा जाता बल्कि उन्हें जिहाद की कहानियां सुनाकर हिंसक बनाया जाता है। मुस्लिम समाज को यह तय करना होगा कि उन्हें अपनी पीढ़ी का भविष्य उज्जवल चाहिए या हिंसक।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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