चुनाव आयोग से सवाल !
भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे में चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यही संस्था पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को आधारभूत जमीन प्रदान करती है…
भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे में चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यही संस्था पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को आधारभूत जमीन प्रदान करती है जिसके ऊपर विधायिका का स्तम्भ खड़ा होता है। यह विधायिका ही दल गत आधार पर देश को प्रशासन उपलब्ध कराती है और कार्यपालिका को अपने प्रति जवाबदेह बनाती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र रूप से संविधान के शासन की व्यवस्था देखती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने हमें जो यह शास्त्रीय कसीदाकारी से युक्त पद्धति दी है उसमें हर स्तम्भ की अपनी अधिकार सीमा है। इनमें से चुनाव आयोग व न्यायपालिका सरकार के अंग नहीं हैं और ये दोनों सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपने कार्यों का निष्पादन करते हैं। अतः बहुत स्पष्ट है कि चुनाव आयोग कोई ‘दन्त विहीन’ संस्था नहीं है जैसी की अवधारणा पिछले दशकों में निर्मित की गई थी। चुनाव आयोग के पास देश में चुनावों के समय असीमित अधिकार होते हैं और यह शासन में बैठे हुए सत्ताधारी दल को केवल एक राजनैतिक दल के रूप में स्वीकार्यता देता है क्योंकि चुनावों के दौरान उस पर सभी दलों के लिए एक समान रूप से चुनावी जमीन देने का संवैधानिक दायित्व होता है। मगर पूरी चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता, पवित्रता व शुचिता कायम रखने के लिए वह सीधे आम जनता के प्रति जवाबदेह होता है। इसलिए चुनाव आयोग की पहली जिम्मेदारी देश के लोगों के प्रति ही होती है। यह उत्तर दायित्व चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता को लेकर होता है।
मगर हम देख रहे हैं कि जब से देश में इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से चुनाव होने शुरू हुए हैं तभी से चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सन्देह के बादल मंडराने लगे हैं। यदि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता शक के घेरे में आती है तो इसका कुप्रभाव पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर पड़ना लाजिमी है। क्योंकि चुनाव आयोग ही इस व्यवस्था की आधारभूमि है। यदि आम लोगों का विश्वास इससे उठेगा तो पूरी प्रशासन व्यवस्था खास तौर पर विधायिका के सन्देह के घेरे मंे आने का संशय तीव्र हो जाता है। चूंकि विधायिका संसद के माध्यम से सर्वोच्च अधिकारों से सम्पन्न रहती है अतः लोकतन्त्र की गंगा के उद्गम स्रोत से ही प्रदूषित होने का खतरा खड़ा हो जाता है।
चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर किसी प्रकार समझौता लोकतन्त्र में संभव ही नहीं है क्योंकि इसी की चाबी से लोकतन्त्र का ताला खुलता है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर तरह-तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं जिनका उत्तर सन्तोषजनक रूप से प्राप्त नहीं हो रहा है। अब इन संदेहों मंे एक और आयाम जुड़ गया है जो चुनावों में पड़े मतों की संख्या को लेकर है। यह बहुत गंभीर मसला है क्योंकि इसका सम्बन्ध चुनावों में भाग लेने वाले मतदाताओं के विश्वास से है। यह सवाल पिछले मई महीने में हुए लोकसभा चुनावों में भी उठा था कि मत देने वाले मतदाताओं की संख्या से गिने गये मतों की संख्या अधिक रही थी। चुनाव आयोग की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वह उतने ही वोट गिने जितने की वोटिंग मशीन में डाले गये हैं। पड़े हुए मतों को गिनने की अपनी वैज्ञानिक विधि है जिसकी तफसील में जाना जरूरी नहीं है। मगर अब जो नया आयाम जुड़ा है वह और भी अधिक संशयपूर्ण है। इस संशय को केवल इसलिए नहीं टाला जा सकता कि वह विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ से उठाया गया है और महाराष्ट्र के चुनावों मंे इसे बहुत करारी व एेतिहासिक शिकस्त मिली है।
महाराष्ट्र में विगत 20 नवम्बर को एक ही चरण में 288 सीटों के लिए विधानसभा चुनाव हुए थे। इस दिन सायं पांच बजे जब मतदान समाप्त हुए तो स्वयं चुनाव आयोग ने ही आंकड़ा दिया था कि पूरे राज्य में कुल 58.22 प्रतिशत मत पड़े। मगर इसके बाद मतदान केन्द्रों पर मौजूद लाइनों में खड़े मतदाताओं ने भी छह बजे तक वोट डाले अतः यह मत प्रतिशत बढ़कर 65.02 प्रतिशत हो गया। यह आंकड़ा चुनाव आयोग ने ही रात्रि साढ़े 11 बजे जारी किया। मगर इसके बाद भी मतगणना से पहले चुनाव आयोग ने दूसरा आंकड़ा 66.05 प्रतिशत का जारी किया। सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या एक घंटे के भीतर सात प्रतिशत मतदाताओं ने अपना मत डाल दिया। चुनाव आयोग केवल मत प्रतिशत ही क्यों बताता है वह मतदाताओं की संख्या क्यों नहीं बताता? महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में नौ करोड़ से अधिक मतदाता हैं। इनका सात प्रतिशत 75 लाख से अधिक बैठता है। प्रश्न उठ रहा है क्या केवल एक घंटे के भीतर मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या अपना वोट डाल सकती है। एक तरफ तो पिछले लोकसभा चुनावों में कहीं-कहीं धीमी मतदान गति की शिकायतें विभिन्न चुनाव क्षेत्रों से मिलीं थीं वहीं महाराष्ट्र में इतनी तेज गति हो गई कि एक घंटे के भीतर 75 लाख से अधिक मतदाताओं ने अपने मत डाल दिये! विपक्षी दलों की यही आशंका है जिसे कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आयोग को खत लिख कर पूछा है और आयोग ने जवाब दिया है कि वह इन सवालों के बारे में जांच करके उत्तर देगा।
चुनाव आयोग व राजनैतिक दलों के बीच में सरकार कहीं से भी बीच में नहीं आती है क्योंकि लोकतन्त्र पर सबसे पहले आम आदमी और उसके बाद राजनैतिक दलों की सबसे बड़ी दावेदारी आती है। इस समस्या से चुनाव आयोग को ही जूझना पड़ेगा और विपक्षी दलों को सन्तोषजनक उत्तर देना पड़ेगा। दूसरा संशय मतदाता सूचियों से मतदाताओं के नाम काटने व नाम जोड़ने का खड़ा हुआ है। महाराष्ट्र में पिछले 2019 के चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों तक पांच सालों में 34 लाख वोट जुड़े थे। मगर विगत मई माह में हुए लोकसभा चुनावों के बाद नवम्बर में हुए विधानसभा चुनावों के पांच महीने के दौरान ही मतदाताओं की संख्या 54 लाख बढ़ गई। यह सवाल भी खत में पूछा गया है। अतः चुनाव आयोग को अपनी विश्वसनीयता कायम रखने के लिए एेसे सभी सवालों का सन्तोषजनक उत्तर देना चाहिए और एेसी कथित अनियमितताओं की सूक्ष्म जांच करानी चाहिए। यह सवाल उसकी स्वायत्तता या खुद मुख्तारी से जुड़ा हुआ है।