संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर उठते सवाल
वर्ष 1945 में दुनिया के 50 देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर कर संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन किया था, जिसके बाद से प्रतिवर्ष 24 अक्तूबर को संयुक्त राष्ट्र दिवस मनाया जाता है।
दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को अधिक समतापूर्ण और न्यायोचित बनाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना का विचार उभरा था, जो पांच राष्ट्रमंडल सदस्यों तथा आठ यूरोपीय निर्वासित सरकारों द्वारा 12 जून 1941 को लंदन में हस्ताक्षरित अंतर-मैत्री उद्घोषणा में पहली बार सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त हुआ था। उस उद्घोषणा के अंतर्गत एक स्वतंत्र विश्व के निर्माण हेतु कार्य करने का आह्वान किया गया था, जिसमें लोग शांति और सुरक्षा के साथ भयमुक्त वातावरण में रह सकें तथा निजीकरण एवं आर्थिक सहयोग के मार्ग की खोज कर सकें। उसके बाद 1944 में सोवियत संघ, अमेरिका, चीन तथा ब्रिटेन के प्रतिनिधियों द्वारा वाशिंगटन के डम्बर्टन ओक्स एस्टेट में कई बैठकों के आयोजन के बाद एक शांतिरक्षक वैश्विक संस्था बनाने की रूपरेखा तैयार की गई, जिसके आधार पर 50 देशों के प्रतिनिधियों के बीच 1945 में बातचीत हुई और 26 जून 1945 को सभी 50 देशों द्वारा चार्टर पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद यह चार्टर 24 अक्तूबर 1945 से प्रभावी हो गया। तभी से प्रतिवर्ष 24 अक्तूबर को ‘संयुक्त राष्ट्र दिवस’ मनाया जाने लगा।
अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ को इतनी शक्तियां प्रदान की गई कि वह अपने सदस्य देशों की सेनाओं को विश्व शांति के लिए कहीं भी तैनात कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से ही दुनिया के अनेक देश इसके साथ जुड़ते गए और 50 सदस्यों के साथ शुरू हुए इस वैश्विक संघ के सदस्य देशों की संख्या अब 193 हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश थे अमेरिका, फ्रांस, रूस तथा यूनाइटेड किंगडम, जिनकी द्वितीय विश्वयुद्ध में अहम भूमिका थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य उद्देश्यों में युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, सभी देशों के बीच मित्रवत संबंध कायम करना, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक एवं आर्थिक विकास, निर्धन तथा भूखे लोगों की सहायता करना, उनका जीवन स्तर सुधारना, बीमारियों से लड़ना इत्यादि शामिल हैं और इन उद्देश्यों को निभाने के लिए 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई। हालांकि विडम्बना है कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के इन 80 वर्षों में यह वैश्विक संस्था अब धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खोने लगी है। दरअसल बीते 80 वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, अर्थव्यवस्था, हथियार, मीडिया, समाज, मुद्रा तथा समाज से संबंधित तमाम नीतियां इसके पांच स्थायी सदस्य देशों ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस तथा फ्रांस के राष्ट्रीय हितों के अनुरूप ही निर्धारित की जाती रही हैं, जिस कारण ऐसी नीतियों का खामियाजा भारत के अलावा जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, इजराइल, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे कई अन्य देशों को भुगतना पड़ा है, जो संयुक्त राष्ट्र महासभा की स्थायी सदस्यता के लिए तमाम मानदंडों को पूरा करने के बाद भी दशकों से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के लिए प्रयासरत हैं।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के आठ दशकों में विश्व के सामरिक और आर्थिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं लेकिन इतना लंबा समय बीत जाने और तमाम वैश्विक समीकरण पूर्ण रूप से बदल जाने के बावजूद वीटो अधिकार वाले पांचों स्थायी सदस्यों में से कोई भी अपने वीटो अधिकार और स्थायी सीट को छोड़ने को तैयार नहीं है। हालांकि स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने पर संयुक्त राष्ट्र में आम सहमति है लेकिन चीन को खासकर एशिया से वीटो अधिकार वाले सदस्यों की संख्या बढ़ाना किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं है, जहां स्थायी सदस्यता के दोनों दावेदारों (भारत और जापान) पर वह विभिन्न कारणों से संदेह करता है। भारत ने जिस चीन को मान्यता देने में पहल की थी और सुरक्षा परिषद में उसकी स्थायी सीट को सिद्धांत के तौर पर लेने से मना कर दिया था, आज वही चीन भारत की स्थायी सदस्यता के मार्ग में रोड़े अटका रहा है। भारत चीन के वीटो पावर के कारण ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बन पा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित किए जाने वाले प्रस्ताव बाध्यकारी प्रकृति के नहीं होते। आश्चर्य की बात है कि महासभा में 193 सदस्य देशों द्वारा पारित किए जाने वाले प्रस्ताव भी सुरक्षा परिषद के 5 स्थायी सदस्यों की सहमति पर ही निर्भर करते हैं। इसीलिए अनेक देशों द्वारा इसमें सुधार किए जाने की मांग बीते कई वर्षों से निरंतर की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी की वकालत करते हुए कह चुके हैं कि नई ताकतों को केन्द्रीय भूमिका में लाए बिना दुनिया की यह सबसे बड़ी पंचायत स्वयं से की जाने वाली अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाएगी। दुनिया के कई देश बार-बार कहते रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र का ढांचा अब पुराना पड़ चुका है और इसकी स्थापना के समय जो परिस्थितियां थी, वे अब बहुत पुरानी हो चुकी हैं। इसलिए यदि यह वैश्विक संस्था अपने भीतर समयानुकूल सुधार नहीं लाती है तो कालांतर में यह महत्वहीन होती चली जाएगी।
रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इजराइल-फिलस्तीन, इन संघर्षों में दोनों ही पक्षों के हजारों बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं, हजारों परिवार उजड़ चुके हैं, लाखों की आबादी पलायन की त्रासदी से जूझ रही है, शहर के शहर मलबे में तब्दील हो रहे हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ इन संघर्षों को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सका है। इसीलिए दुनिया में जगह-जगह युद्ध टालने के लिए संयुक्त राष्ट्र की ओर से ठोस योजनाओं पर अमल किए जाने की जरूरत महसूस होती रही है क्योंकि इस वैश्विक संस्था का गठन ही दुनिया में अमन-चैन कायम रखने के उद्देश्य के साथ किया गया था लेकिन चिंता की बात है कि इन युद्धों में उसकी निष्क्रियता समूची मानव सभ्यता पर भारी पड़ रही है। भीषण होते इन युद्धों के कारण दुनिया अब दो धड़ों में बंटती जा रही है और संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्य देश भी अब केवल बयान जारी करने से आगे नहीं बढ़ रहे।
बहरहाल, यदि अभी भी संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती है तो यह संस्था आने वाले समय में अपना महत्व खो देगी। सही मायनों में दुनिया की इस सबसे बड़ी पंचायत को अब गंभीर आत्ममंथन की जरूरत के साथ पर्याप्त सुधारों की सख्त दरकार है।
- योगेश कुमार गोयल