रुपए के निशान पर विवाद !
राजभाषा हिन्दी को लेकर दक्षिण के तमिलनाडु प्रदेश की द्रमुक की एम.के. स्टालिन सरकार
राजभाषा हिन्दी को लेकर दक्षिण के तमिलनाडु प्रदेश की द्रमुक की एम.के. स्टालिन सरकार जो रुख अपना रही है उसे किसी भी रूप में राष्ट्रहित में नहीं कहा जा सकता। उत्तर और दक्षिण भारत के एेसे दो ध्रुव हैं जो इस देश की सांस्कृतिक एकता से बंधे हुए हैं इसमें भाषा को लेकर विवाद खड़ा करना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारतीय संविधान इस देश की सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं को बराबर का सम्मान देता है। इसमें क्षेत्रीय राष्ट्रवाद को ऊपर रखकर सकल राष्ट्रवाद के ऊपर प्रहार करना केवल राजनैतिक हित साधने के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। द्रमुक अपने जन्मकाल से ही हिन्दी विरोधी रही है मगर किसी भी सूरत में इस देश की केन्द्र सरकार ने कभी भी दक्षिण पर हिन्दी लादने की कोशिश नहीं की। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी हिन्दी को गैर हिन्दी भाषा राज्यों पर लादा नहीं जा रहा है बल्कि राष्ट्रीय एकता व अखंडता की दृष्टि से जो त्रिभाषा फार्मूला लागू किया जा रहा है उसके सुपरिणाम ही निकल रहे हैं।
उत्तर से दक्षिण जाने वाले भारतीयों को वहां के लोगों के साथ समरस होने में इससे मदद मिलती है और बदले में दक्षिण से उत्तर आने वाले भारतीयों को भी एेसा ही एहसास होता है। मगर स्टालिन सरकार कह रही है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार उन पर हिन्दी लाद रही है। त्रिभाषा फार्मूला 1968 में स्व. इन्दिरा गांधी के शासन के दौरान लागू हुआ था। इसका लाभ यह रहा कि गैर हिन्दी भाषा राज्यों के लोगों को हिन्दी भाषी राज्यों में आने पर काम करने में सुविधा हुई। हिन्दी वैसे भी सबसे सरल और वैज्ञानिक भाषा है। इसे बोलने और लिखने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती है। यह भारत की हर भाषा से शब्द लेने में यकीन रखती है। मगर जिस प्रकार तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री श्री स्टालिन ने भारत की मुद्रा रुपए के प्रतीक चिन्ह को लेकर विवाद खड़ा किया है वह वास्तव में बहुत चिन्तनीय है और राष्ट्रीय अखंडता के विपरीत है। रुपए का प्रतीक चिन्ह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर डाॅलर व पौंड की तरह पहचाना जाता है लेकिन इसे भारत के ही एक राज्य में बदल कर उसका तमिल रूपान्तरण कर देना किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता। प्रतीक चिन्ह के लिए 2010 में जब वित्त मन्त्री के पद पर भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी तो बाकायदा राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता हुई थी जिसमें तमिलनाडु के ही युवक डी. उदय कुमार ने बाजी मारी थी और रुपए को एक निशान दिया था। 2010 में यूपीए की मनमोहन सरकार थी जिसमें द्रमुक पार्टी भी शामिल थी। उस समय द्रमुक ने भी इस निशान का सहर्ष स्वागत किया था परन्तु 2025 में श्री स्टालिन इसका विरोध कर रहे हैं। एेसा केवल राजनैतिक हितों को साधने के लिए किया जा रहा है और तमिल उप-राष्ट्रीयता के भाव को भड़काया जा रहा है। जबकि रुपए का प्रतीक चिन्ह पूरे विश्व में भारतीय मुद्रा को एक विशिष्ट पहचान देता है। एेसा सब हिन्दी विरोध के नाम पर किया जा रहा है क्योंकि रुपए का प्रतीक चिन्ह हिन्दी देवनागरी लिपी की ही एक सुन्दर कलाकृति है जिसे दक्षिण के ही एक कलाकार ने बनाया। इसमें केन्द्र की मौजूदा सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि 2010 में ही इस निशान को भारत के सभी राज्यों ने अपनाया।
जहां तक हिन्दी का सवाल है तो दक्षिण के राज्यों के छात्र यदि अपनी मात्रभाषा व अंग्रेजी के अलावा हिन्दी भी पढ़ते हैैैं तो इसमें बुराई क्या है। हिन्दी के ज्ञान से उन्हें भारत को समग्रता में जानने का बोध ही होता है मगर यह फार्मूला उत्तर भारत के लोगों पर भी लागू होता है। दुखद यह रहा कि 1968 के बाद उत्तर भारत के राज्यों की सरकारों ने विद्यालयों में दक्षिण की कोई एक भाषा पढ़ाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया, उल्टे अंग्रेजी विरोध के नाम पर अपने छात्रों को अंग्रेजी से दूर रखने का प्रयास किया। अंग्रेजी को ऐच्छिक विषय बना कर उन्होंने विद्यार्थियों के साथ ही अन्याय किया क्योंकि आज पूरे विश्व में भारत की युवा पीढ़ी जिस कम्प्यूटर के साफ्टवेयर की विधा में अग्रणी भूमिका निभा रही है उसके पीछे उसका अंग्रेजी ज्ञान ही है। अतः अंग्रेजी विरोध के नाम पर उसका बहिष्कार करना उचित नहीं था लेकिन श्री स्टालिन ने बात का बत्तंगड़ बनाकर जिस प्रकार हिन्दी का विरोध किया है उसका सम्बन्ध राष्ट्रीय अखंडता से है। निश्चित रूप से जब 1965 में हिन्दी को राजभाषा का व्यावहारिक दर्जा स्व. लाल बहादुर शास्त्री के शासनकाल में दिया गया था तो यह भ्रम फैलाया गया था कि अब सारा राजकीय कार्य हिन्दी में ही हुआ करेगा जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी राजकीय भाषा बनी हुई थी। श्री स्टालिन हिन्दी को लेकर जिस तरह से उग्रता दिखा रहे हैं वह उचित नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय अखंडता को अक्षुण्य रखने की कसम उठाकर ही वह मुख्यमन्त्री बने हैं।
उत्तर भारत के लोग दक्षिण के राजनेताओं का भी पूरा सम्मान करते रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तमिलनाडु के ही मुख्यमन्त्री रहे स्व. कामराज नाडार है जो कांग्रेस पार्टी के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। नेहरू काल में लाया गया उनका कामराज फार्मूला हर उत्तर भारतीय को आज भी याद है। यह फार्मूला 1963 में कांग्रेस पार्टी का कायाकल्प करने के लिए तब लाया गया था जब लगभग पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का राज था। कामराज राजनीतिज्ञों के लिए आज तक आदर्श माने जाते हैं।