पराजय के दुष्चक्र में फंसे राहुल गांधी
शुरूआत फुसफुसाहट से नहीं, गंगा के मैदान के आर-पार राजनीतिक विस्फोट से हुई। पिछले सप्ताह बिहार ने जो जनादेश दिया वह कांग्रेस के लिए इतना अपमानजनक था कि उसके घनघोर समर्थकों के लिए भी उसे हजम करना मुश्किल है।
कांग्रेस ने 61 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे मात्र छह सीटें मिलीं। यह पराजय नहीं, पतन है और इसके केंद्र में हमेशा की तरह राहुल गांधी हैं। लगभग दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय राहुल बीच-बीच में अपने शब्दाडंबरों और सोशल मीडिया घोषणाओं के साथ दिखते हैं, फिर उसी तेजी से गायब हो जाते हैं। कभी वह सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका निभाते हैं, पर नेपथ्य में चले जाते हैं। इसका कांग्रेस पर भीषण असर पड़ा है। इसने न सिर्फ अपनी मास अपील खो दी है, बल्कि पराजय के एक ऐसे चक्र में फंस गयी है जिससे बाहर निकलने की क्षमता उसमें नहीं दिखती।
राहुल गांधी 2004 में राजनीति में आये। वर्ष 2009 से वह पार्टी के फैसलों को प्रभावित करने लगे थे। तब से देशभर में हुए 83 विधानसभा चुनावों में से 71 में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी। उसके इस बदतर प्रदर्शन पर उसके आलोचक भी स्तब्ध थे। फिर 99 सीटों तक पहुंचने में पार्टी को एक दशक लग गया। राज्यों में उसकी शक्ति का क्षय तो और भी चौंकाने वाला है। वर्ष 2014 में देश के 11 राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं। आज केवल तीन राज्यों-कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में इसकी सरकारें हैं। कभी पूरे नक्शे पर फैली हुई राष्ट्रीय पार्टी आज कुछ टुकड़ों में सिमट गयी है। इसकी विधानमंडलीय शक्ति भी इसके पतन के बारे में बताती है।
देशभर में कांग्रेस विधायकों की संख्या एक दशक में आधी रह गयी है। अब जो बचा है, वह एक थकी हुई पार्टी के चुके हुए नेतागण, जर्जर ढांचा और ध्वस्त बुनियाद है। किसी भी संदर्भ में यह त्रासद है। पर नेहरू-गांधी परिवार के लिए तो यह बेहद चौंकाने वाला है। अपने समकालीनों की तुलना में तो राहुल संघर्ष कर ही रहे हैं, अपने परिवार के नेताओं की तुलना में भी वह कमतर साबित हुए हैं। उनके परनाना जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता थे और उन्होंने लगातार तीन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी मतों से जीत दिलायी थी। नये गणतंत्र की वैचारिक और प्रशासनिक बुनियाद गढ़ने वाली नेहरू की कांग्रेस की तीन-चौथाई से भी अधिक राज्यों में सरकारें थीं।
इंदिरा गांधी की राजनीतिक समझ बहुत तेज और चुनावी वर्चस्व बेजोड़ था। उन्होंने भी तीन लोकसभा चुनाव जीते, जिनमें से दो में उन्हें भारी बहुमत मिला था। उनके नेतृत्व में फिर से देश के दो-तिहाई से अधिक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं। राहुल की मां सोनिया गांधी ने भी वह हासिल किया जो असंभव लग रहा था। उन्होंने 2004 में केंद्र की सत्ता में कांग्रेस की वापसी का पथ प्रशस्त किया। हालांकि वह वंशवादी रास्ते से नहीं, बल्कि कुशल राजनीतिक रणनीति के जरिये था। उन्होंने गठबंधन बनाये, विपरीत वैचारिकता वाली पार्टियों को साथ लिया और मनमोहन सिंह को गठबंधन सरकार का प्रधानमंत्री बनाया।
वर्ष 2009 में उनके दिशा-निर्देश में कांग्रेस ने दूसरा लोकसभा चुनाव जीता। राहुल गांधी इससे एकदम विपरीत हैं और नेहरू-गांधी खानदान के सबसे विफल राजनीतिक वारिस हैं। उनके पूर्वजों ने कांग्रेस का विस्तार किया, जबकि उनके दिशा-निर्देश में पार्टी सिकुड़ रही है। उनके पूर्वजों ने जहां सरकारें चलायीं, वहीं उनके समय में कांग्रेस सांस लेने के लिए संघर्ष कर रही है। यह स्थिति आयी है तो इसके कारण न तो छिपे हुए हैं, न ही रहस्यपूर्ण हैं। राहुल ने वैकल्पिक सरकार का कोई नक्शा तैयार नहीं किया है। घनघोर वैचारिक संघर्षों और सुस्पष्ट प्रशासनिक वादों के बीच उनके संदेश बिखरे हुए, अनियमित और अस्पष्ट हैं। उन्होंने एकजुटता का कोई विमर्श तैयार नहीं किया, न कोई यादगार नारा गढ़ा, न ही सामाजिक, आर्थिक या सांस्थानिक तौर पर पार्टी को लोगों से जोड़ने का कोई काम किया, जिसकी आज कांग्रेस को सबसे ज्यादा जरूरत है। भारतीय लोकतंत्र एक कमजोर विपक्ष के सहारे नहीं चल सकता। विपक्ष कमजोर है तो इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस की है। इसके बावजूद यह पार्टी आज सुस्पष्ट वैचारिकता के बजाय उसी परिवार द्वारा चालित है, जिसके प्रति कभी जातियों, क्षेत्रों और वर्गों की असंदिग्ध निष्ठा थी। आज यह पार्टी तो अपने काडर तक को प्रेरित नहीं कर पा रही है। कांग्रेस के अंदर बहुतेरे लोग कहते हैं कि गांधी ब्रांड चुनाव जीतने की क्षमता खो चुका है। यह ब्रांड पार्टी को विखंडन से भले बचा ले लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को खड़ा नहीं कर सकता।
राहुल के दिशा-निर्देश में कांग्रेस का संगठन बिखर चुका है। करिश्माई और प्रतिस्पर्धी राज्य स्तरीय नेताओं का न होना पार्टी के लिए घातक है। दक्षिण में फिर भी कांग्रेस के कुछ शक्तिशाली गढ़ हैं। पर राजनीतिक रूप से निर्णायक हिंदी पट्टी यानी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड और पंजाब जैसे राज्यों में भाजपा के स्थानीय नेतृत्व को चुनौती देने लायक नेताओं को तराशने में राहुल विफल हुए हैं। यह सिर्फ रणनीतिक विफलता नहीं, पार्टी के लिए आत्मघाती भी है। यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन बनाने के मामले में राहुल की निष्क्रियता भी चौंकाने वाली है। देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता के तौर पर भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी में उन्हें प्रमुख रणनीतिकार होना चाहिए था लेकिन उनकी आधी-अधूरी प्रतिबद्धता के कारण इंडिया गठबंधन बिखरने के कगार पर है।
कांग्रेस अगर अब भी भारत के लोकतांत्रिक भविष्य में अपनी भूमिका देखती है तो उसे तत्काल अपनी श्रेष्ठता ग्रंथि से बाहर निकलना होगा। उसे एक ऐसा नेता ढूंढना होगा जो सत्ता का भूखा हो लेकिन जल्दबाद नहीं, जो कभी-कभी नजर आने के बजाय हमेशा दिखता हो और प्रभाव पैदा करने के बजाय जो स्पष्ट विचारधारा का हो। कांग्रेस को एक ऐसा नेता चाहिए जो भ्रमण पर निकलने के बजाय रोज राजनीतिक युद्ध छेड़ने की मानसिकता रखता हो। या तो कांग्रेस खुद को नये सिरे से खड़ा करने का उद्यम ले, या जब भारतीय राजनीति का केंद्र स्थायी रूप से शिफ्ट हो रहा है तब राजनीति के फुटनोट में अपनी मौजूदगी दर्ज करना जारी रखें।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

Join Channel