Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

निजीकरण के दौर में रेलवे

पिछले कुछ दिनों से रेलवे कर्मचारियों में रेलवे के निजीकरण को लेकर चर्चा जारी है और कर्मचारी संगठन निजीकरण के विरोध में आंदोलन की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं।

04:31 AM Oct 18, 2019 IST | Ashwini Chopra

पिछले कुछ दिनों से रेलवे कर्मचारियों में रेलवे के निजीकरण को लेकर चर्चा जारी है और कर्मचारी संगठन निजीकरण के विरोध में आंदोलन की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं।

पिछले कुछ दिनों से रेलवे कर्मचारियों में रेलवे के निजीकरण को लेकर चर्चा जारी है और कर्मचारी संगठन निजीकरण के विरोध में आंदोलन की रूपरेखा बनाने में जुटे हैं। यह खबर तो आ चुकी है कि​ रेल मंत्रालय 150 ट्रेनें और 50 स्टेशन निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर चुका है। हाल ही में लखनऊ और दिल्ली के बीच देश की पहली प्राइवेट ट्रेन तेजस चलाई जा चुकी है। सितम्बर 2014 में नीति आयोग के सदस्य और अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय की अध्यक्षता में भारतीय रेल के निजीकरण के लिए एक सात सदस्यीय कमेटी गठित की गई थी। 
Advertisement
इस कमेटी ने ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह सुझाव दिया था कि भारतीय रेल के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए प्राइवेट सैक्टर को ट्रेन और मालगाड़ियां चलाने की अनुमति देनी चाहिए। इसके अलावा जो काम रेलवे का मूलभूत नहीं है, जैसे निर्माण कार्य, उत्पादन और रेल संबंधी आधारभूत सेवाएं हैं, उन्हें भी निजी क्षेत्र को दे देना चाहिए। तेजस एक्सप्रैस पीपीपी मॉडल पर चलाई गई ट्रेन है। इस ट्रेन में विमान की तरह ही हर सुविधा उपलब्ध है। दुनिया की सबसे बड़ी रेल सेवाओं में से एक भारतीय रेलवे 1853 में अपनी स्थापना के समय से ही सरकार के हाथों में रही है। 
भारतीय रेल करोड़ों देशवासियों की जीवन रेखा है। यह बड़ा रोजगार प्रदाता संस्थान भी है। हर राजनीतिक दल ने अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए रेलवे का इस्तेमाल किया। एक वह भी दौर था कि सरकार में भागीदार राजनीतिक दलों में रेलवे मंत्रालय लेने के लिए लड़ाई होती थी ताकि अपने समर्थकों को रोजगार बांटे जा सकें। हर रोज लगभग ढाई करोड़ लोगों को गंतव्य स्थान तक पहुंचाने वाली कम्पनी की दुर्दशा के लिए राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप भी कोई कम जिम्मेदार नहीं। सरकारी कम्पनियों का विनिवेश कोई नया नहीं है। 1990-91 के समय से सरकारी कम्पनियों के निजीकरण की शुरूआत हुई। 
यह प्रक्रिया कांग्रेस, भाजपा और दूसरी सरकारों के समय में भी जारी रही और इन सालों में हिन्दुस्तान जिंक, भारत एल्यूमीनियम और सेंटूर होटल जैसी सरकारी कम्पनियों को निजी हाथों में सौंपा गया। विनिवेश की प्रक्रिया को वैश्वीकरण से जोड़कर भी देखा जाता है। दरअसल सरकारी कम्पनियों के कामकाज का तरीका कभी भी प्रोफैशनल नहीं रहा और अनेक सरकारी कम्पनियां घाटे में चली जाती हैं। सरकारी कंपनियों के मुकाबले निजी कम्पनियां लाभ कमाती हैं। सरकार के सामने घाटे की भरपाई के लिए इन कम्पनियों को निजी हाथों में बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। चालू वित्तीय वर्ष में सरकार ने विनिवेश से एक लाख करोड़ जुटाने का लक्ष्य रखा है। यह भी सत्य है कि अनेक सरकारी कम्पनियों की दुर्दशा इसलिए की गई ताकि निजी क्षेत्र मुनाफा कमा सके। 
अब सवाल यह है कि क्या अंधाधुंध निजीकरण देश और जनता के हित में है या नहीं? देश में 400 रेलवे स्टेशनों को निजी भागीदारी के तहत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने की योजना थी लेकिन यह योजना भी सिरे नहीं चढ़ी। कई सेवाएं भी निजी हाथों में सौंपी गईं लेकिन वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके। भोपाल ​स्थित हबीबगंज रेलवे स्टेशन को प्राइवेट कम्पनी की पार्टनरशिप में अत्याधुनिक बनाया गया तो आम आदमी बेबस नजर आया। रेलवे स्टेशन की पार्किंग दरें दस गुणा बढ़ा दी गईं। अगर आम आदमी को महीने भर हजारों रुपए पार्किंग शुल्क देना पड़े तो वह घर कैसे चलाएगा। निजी कम्पनियों का सारा ध्यान मुनाफे पर केन्द्रित रहता है, उन्हें आम लोगों के हितों की परवाह नहीं होती। 
घाटे में चल रही रेलवे की ओवरहालिंग की जा सकती है। 
दुनिया के चार बड़े देशों अमेरिका, जापान, ब्रिटेन और कनाडा के रेलवे का करीब-करीब निजीकरण हो चुका है और वहां इसका सफल परिचालन हो रहा है। यात्रियों को वहां विश्वस्तरीय सुविधाएं भी मिल रही हैं। यह सही है कि धनी लोग सुविधाओं के बदले पैसे देने को तैयार हैं लेकिन इस प्रक्रिया में आम आदमी के हितों से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। देखना होगा कि रेलवे में निजी कम्पनियों की भागीदारी का ढांचा क्या होगा। अमीर, गरीब के लिए रेलवे की यात्रा सहज और सुलभ होनी ही चाहिए। 
सरकार का मकसद निजीकरण के जरिये गुणवत्ता सुधारना और विनिवेश के जरिये धन जुटाना है लेकिन अर्थव्यवस्था की हालत उत्साहवर्धक नहीं है। सरकार के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं, ​विनिवेश का लक्ष्य पूरा करना मुश्किल दिखाई देता है। भारतीय रेलवे में कि​सी भी तरह के बड़े परिवर्तन और प्रयोग सभी पहलुओं पर विचार करके ही किया जाना चाहिए क्योंकि​ निजीकरण एक ट्रेन का ही नहीं होगा, उससे जुड़ी हर चीज का निजीकरण हो जाता है।
Advertisement
Next Article