यादों के आंगन में राज साहब का राज
मेरा एक दोस्त था भाऊ देशमुख कलेक्टर का बेटा था। भाऊ ने एक पत्र राज कपूर को लिखा था।
स्कूल में मेरा एक दोस्त था भाऊ देशमुख कलेक्टर का बेटा था। अब वो डॉक्टर है, बचपन में बड़े लोगों को पत्र लिखना उसका शगल था। उस जमाने में बड़े लोग पत्रों की प्राप्ति का संदेश भेजते थे। भाऊ ने एक पत्र राज कपूर को लिखा था और प्राप्ति का संदेश उसने मुझे भी दिखाया, तो मन में एक चाह उठी कि काश कभी राज कपूर साहब से मिलने या कम से कम देखने का मौका तो मिल जाए। उस वक्त क्या पता था कि वक्त के सुनहरे पन्नों पर नई कहानी लिखी जाएगी। उनकी जन्मशताब्दी के मौके पर उन सुनहरे पन्नों पर दर्ज यादें एक-एक कर जीवंत होने लगीं…जैसे कल की ही बात हो। यूं तो उस दौर में चार अभिनेताओं-राज कपूर, देवानंद, दिलीप कुमार और सुनील दत्त के प्रति मैं ज्यादा आकर्षित था लेकिन राज साहब और देवानंद के प्रति खास तरह की दीवानगी थी। राज कपूर को सामने से देखने का मौका मुझे अपने कॉलेज के जमाने में मिला। ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के गाने ‘जीना यहां, मरना यहां…’ की शूटिंग के लिए मेरे कॉलेज से विद्यार्थियों को बुलाया गया था। उनमें मैं भी शामिल था, अपने चहेते अभिनेता को पास से देखना दिल को खुशियों से भर देने वाला था। मगर मुलाकात नहीं हुई।
हालांकि कुछ ही वर्षों के भीतर मुलाकात का वक्त भी आ पहुंचा, मैं उस वक्त की श्रेष्ठ फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ में प्रशिक्षु पत्रकार था। मैंने राज साहब से मिलने का वक्त मांगा और कमाल देखिए कि बुलावा भी आ गया। बड़े प्यार से उन्होंने स्वागत किया, केन की चटाई पर लुंगी और सफेद कुर्ते में कलम और दवात के साथ लिखा-पढ़ी वाली तखत लेकर बैठे थे। उनके पीछे नरगिस के साथ उनकी सदाबहार तस्वीर लगी हुई थी। मैं उस तस्वीर में खो गया, मेरी तंद्रा तब टूटी, जब उन्होंने कहा-‘तस्वीरों में क्या रखा है…मुझे देखिए न! आपने कभी तस्वीरों को बोलते हुए देखा है।’ मेरे मुंह से निकला…जी हां, तस्वीरें यदि बोलती नहीं तो हम रखते ही क्यों? फिर हमारी चर्चा शुरू हो गई। मैंने उनसे पूछा कि इतनी अच्छी फिल्में आप कैसे बनाते हैं? उन्होंने तपाक से कहा कि जैसे आप खबरें लिखते हैं, वैसे ही हम फिल्में बनाते हैं। मैंने कहा कि खबरें तो घटनाओं पर आधारित होती हैं। वे कहने लगे कि जो समाज में हम देखते हैं, वही तो फिल्मों में परोसते हैं, फिल्म ‘आवारा’ में एक तरह की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में वक्त के हालात को प्रदर्शित किया। फिल्में लोगों को अपनी जिंदगी के करीब लगनी चाहिए, मेरे साथी शैलेंद्र से क्या आप मिले हैं? शैलेंद्र जानते हैं कि फिल्म हिट कैसे होगी। आपकी सोच को समझने वाले ही आपके साथी बन सकते हैं, मेरी टीम भी मेरे विचारों में मेरे जितना ही सहभागी होती है।
बातचीत के बीच उन्होंने पूछा कि आप कहां रहते हैं? मैंने कहा-चर्च गेट तो कहने लगे कि चलिए, मैं भी उधर ही जा रहा हूं, बातचीत करते चलेंगे। निकलते वक्त उन्होंने कहा कि आपके पिताजी, दर्डा जी को मैं जानता हूं, मेरे पिताजी पृथ्वीराज कपूर और आपके परिवार के संबंध रहे हैं। मैंने कहा कि मुझे पता है कि पृथ्वीराज कपूर जी को यवतमाल में झंडावंदन के लिए बाबूजी ने बुलाया था। वे एक ड्रामा लेकर भी आए थे, दोनों अवसर की तस्वीरें मेरे पास हैं। वे प्रसन्न हो गए कि मुझे ये बातें पता हैं। मेरे जेहन में तत्काल यह बात कौंधी कि शायद इन संबंधों के कारण ही मुझ जैसे प्रशिक्षु को इन्होंने मुलाकात का मौका दिया। कार में एक पैड उनके हाथ में था, वे कभी मौन होते, तो कभी कुछ लिखने लगते। बीच-बीच में सवालों के जवाब भी देते, मैंने पूछा कि आप गाते-बजाते भी हैं, जिंदगी में इतनी विविधता कैसे ला पाते हैं? बड़े दार्शनिक अंदाज में बोले कि खुशियों के साथ जीना या जीवन में गम भर लेना अपने हाथ में है, महत्वपूर्ण बात है कि दो रोटी आप गुनगुनाते हुए खाते हैं या रोते हुए खाते हैं। मैंने बहुत पैसे वालों को भी रोते हुए रोटी खाते देखा है और ऐसे गरीब भी देखे हैं जो मस्ती में खाना खाते हैं। लगे हाथ मैंने पूछा कि आपके परिवार की लड़कियां फिल्मों में काम क्यों नहीं करती हैं? वे कहने लगे कि लड़कों का भी मूवी में जाना अच्छा नहीं माना जाता था।
हमारे दादाजी इच्छुक नहीं थे कि हम फिल्मों में काम करें। बातों ही बातों में लोकमत नागपुर संस्करण की चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि मेरी बहन उर्मिला का रिश्ता सिआल परिवार में है, एक शादी में बच्चों के साथ नागपुर आए थे। उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी कृष्णा जबलपुर की हैं लेकिन काफी समय वह नागपुर में भी रही हैं तो मैंने उन्हें बताया कि मेरे बाबूजी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जबलपुर की जेल में थे। उन्होंने जबलपुर के न्यू एम्पायर सिनेमा हॉल के बारे में भी चर्चा की जो उनके ससुराल वालों का था। संदर्भ के लिए बता दें कि मशहूर एक्टर प्रेमनाथ, राजेंद्रनाथ तथा नरेंद्रनाथ उनके साले थे। बातचीत के इसी दौर में कार चौपाटी में भारतीय विद्या भवन के पास एक पान दुकान पर रुकी। पान वाले ने तत्काल पान बनाए। उन्होंने पान खाया, कुछ पान बंधवा लिये और वहां से कार सीधे चर्च गेट में गेलार्ड होटल में आकर रुकी, मैं कुछ ही दूर रहता था लेकिन घर जाने के बजाय मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया क्योंकि मैं देखना चाहता था कि गेलार्ड होटल अंदर से कैसा है? एक किनारे की टेबल पर जयकिशन बैठे थे। पता चला कि राज साहब प्राय: वहां चाय पीने आते थे, राज साहब ने कहा कि आर.के. स्टूडियो की होली में कभी आओ लेकिन कभी मैं जा नहीं पाया।
राज साहब से जुड़ा एक प्रसंग याद आ रहा है। बाबूजी उद्योग मंत्री थे तो राज साहब मिलने आए और कहा कि घर बनाने के लिए सीमेंट नहीं मिल रहा है। तब सीमेंट की बड़ी किल्लत थी। सीमेंट देने के लिए ए.आर. अंतुले की अपनी शर्तें थीं लेकिन बाबूजी ने लीक से हटकर सीमेंट दिलवाया क्योंकि राज कपूर को बाबूजी भारत का सांस्कृतिक दूत मानते थे। वास्तव में रूस, जापान और इजराइल में उन्हें लोग आज भी याद करते हैं। अलमाटी में एक होटल का पूरा फ्लोर उनके नाम पर है। राज साहब यवतमाल आने वाले थे लेकिन नहीं आ पाए। यह बात ऋषि कपूर को पता थी इसलिए वे कबड्डी के कार्यक्रम में यवतमाल आए, उम्मीद है कि रिश्तों का यह धागा जोड़ते हुए रणबीर कपूर कभी यवतमाल जरूर आएंगे। रणबीर में तो मुझे राज साहब का अक्स दिखाई देता है। विनम्र आदरांजलि राज साहब, हम आपको कभी भुला न पाएंगे।