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राजनाथ का चीन को सन्देश

भारत-चीन के सम्बन्ध 1962 तक बहुत सौहार्दपूर्ण व दोस्ताना रहे हैं। मगर 1962 में चीन द्वारा भारत पर अकारण ही किये गये हमले के बाद से इनमें खटास आयी जो किसी न किसी रूप में अभी तक जारी है।

10:45 AM Nov 01, 2024 IST | Aditya Chopra

भारत-चीन के सम्बन्ध 1962 तक बहुत सौहार्दपूर्ण व दोस्ताना रहे हैं। मगर 1962 में चीन द्वारा भारत पर अकारण ही किये गये हमले के बाद से इनमें खटास आयी जो किसी न किसी रूप में अभी तक जारी है।

राजनाथ का चीन को सन्देश

भारत-चीन के सम्बन्ध 1962 तक बहुत सौहार्दपूर्ण व दोस्ताना रहे हैं। मगर 1962 में चीन द्वारा भारत पर अकारण ही किये गये हमले के बाद से इनमें खटास आयी जो किसी न किसी रूप में अभी तक जारी है। अतः रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह का यह कहना कि भारत चीन के साथ सर्वसम्मति से मधुर सम्बन्ध चाहता है, बताता है कि इस 21वीं सदी में युद्ध की मानसिकता की जरूरत नहीं है बल्कि शान्ति व भाईचारे की मानसिकता से ही आपसी सम्बन्धों मंे सुधार आ सकता है। दुर्भाग्य से चीन की मानसिकता युद्ध या ‘सैनिकी’ जैसी ही है। ये उद्गार पं. जवाहर लाल नेहरू ने भारत की संसद में तब व्यक्त किये थे जब 1962 में चीनी आक्रमण के बारे में संसद का विशेष सत्र बुलाया गया था। चीन हमारा एेसा पड़ोसी देश है जिससे छह तरफ से हमारी सीमाएं लगती हैं। इसलिए राजनाथ सिंह ने वर्तमान सन्दर्भों में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का वह उवाच दोहराया जिसमें उन्होंने कहा कि हम अपने पड़ोसी को नहीं बदल सकते। बहुत साफ है कि रक्षामन्त्री ने एेसा वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कहा है क्योंकि एक तरफ प. एशिया में अरब- इजराइल युद्ध चल रहा है और दूसरी तरफ रूस व यूक्रेन लड़ाई में उलझे हुए हैं। ये दोनों युद्ध बजाय खत्म होने के लगातार आगे ही खिंचते जा रहे हैं।

यदि हम गौर से देखें तो भारत के प्रति पाकिस्तान के रवैये की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप में भी सम्पूर्ण शान्ति का माहौल नहीं बन पा रहा है, इस पर यदि भारत चीन के बीच सीमाओं पर तनाव बना रहता है तो इससे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां बदतर ही होंगी। जाहिर है कि भारत एेसा कभी नहीं चाहेगा जिससे इस उपमहाद्वीप में जरा भी तनाव में वृद्धि हो। हमें याद रखना चाहिए कि 2004 में जब केन्द्र में डा. मनमोहन सिंह की सरकार बनी थी तो भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी उस सरकार में रक्षामन्त्री बने थे। रक्षामन्त्री के रूप में स्व. प्रणव दा ने चीन की एक सप्ताह की राजकीय यात्रा की थी। तब उन्होंने बीजिंग की धरती पर खड़े होकर ही कहा था कि ‘आज का भारत 1962 का भारत नहीं है’। यह बयान प्रणव दा जैसे राजनेता ने बहुत सोच-समझ कर दिया था। तब भारत की प्रतिष्ठा वैश्विक समाज में बहुत महत्वपूर्ण बनती जा रही थी। प्रणव दा का यह बयान चीन के लिए कूटनीतिक चेतावनी इस मायने में था कि वह सैनिकी मानसिकता छोड़कर मित्रता व आपसी सहयोग की मानसिकता अपनाए। मगर प्रणव दा तो प्रणव दा ही थे इसलिए उन्होंने भारत-चीन सीमा क्षेत्र का दौरा भी किया था और देखा था कि चीन किस प्रकार सीमा क्षेत्र में आधारभूत विकास योजनाएं चला रहा है अतः उन्होंने भारत लौट कर चीन से लगी सीमाओं पर विकास कार्य कराने शुरू कर दिये थे और कई परियोजनाओं को हरी झंडी भी दे दी थी।

पूर्वी लद्दाख के क्षेत्र में भारत ने तभी से सैनिक निर्माण कार्य करना शुरू कर दिया था हालांकि उनके बाद बने रक्षामन्त्री ए. के. एंटोनी ने इसमें ज्यादा रुचि नहीं दिखाई क्योंकि 2006 में प्रणव दा विदेश मन्त्री बन गये थे। अतः राजनाथ सिंह चीन के सन्दर्भ में जिस सैनिक कूटनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भारत की सुरक्षा के लिए बहुत संवेदनशील मगर पुख्ता रास्ता है। अतः श्री सिंह के ये वचन कि भारत सर्वसम्मति से दोस्ती की राह पर चलना चाहता है, युद्धरत देशों के लिए अनुकरणीय है। क्योंकि युद्ध से केवल तबाही ही हासिल की जा सकती है जबकि अन्त मंे युद्धरत देशों को भी बातचीत का रास्ता अख्तियार करके ही विवादों को सुलझाना पड़ता है। राजनाथ सिंह ने इस बार दीपावली का त्यौहार उत्तर पूर्व के असम राज्य की तेजपुर छावनी में जाकर सैनिकों के साथ मनाया। वास्तव में श्री सिंह की यह दूरदृष्टि है कि उन्होंने तेजपुर मंे सैनिकों के साथ भोजन करते हुए सैनिक कूटनीति का हवाला दिया क्योंकि पूर्वी लद्दाख के इलाकों में चीनी सेना पीछे हटनी शुरू हो गयी है। यह कार्य दोनों देशों के सैनिक कमांडरों के बीच दर्जन बार से अधिक चली बातचीत के जरिये ही हुआ है। मगर रक्षामन्त्री ने बीच-बीच में चीन को भारत की सैनिक क्षमता भी दिखाई जिससे चीन को लगा कि वास्तव में आज का भारत 1962 का भारत नहीं है।

बेशक चीन के साथ भारत के सम्बन्ध थोड़े खटास भऱे हैं मगर यह भी सत्य है कि चीन के साथ भारत की सीमाओं का आधिकारिक निर्धाऱण अभी तक नहीं हुआ है और चीन अपनी मर्जी के मुताबिक भारतीय क्षेत्रों मंे यह बहाना बना कर घुस आता है कि सीमा के बारे में उसकी अपनी अवधारणा है। असल में फसाद की जड़ यह अवधारणा ही है जिसे दूर करने के लिए डा. मनमोहन सिंह की सरकार के समय दोनों देशों के बीच एक उच्चस्तरीय वार्ता दल का गठन किया गया था। वार्ता दल गठित करने का फैसला 2004 से पहले की भाजपा नीत वाजपेयी सरकार ने तब किया था जब 2003 में भारत ने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार कर लिया था। अतः लोकतन्त्र में सरकार एक सतत् प्रक्रिया होती है और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस पार्टी की सरकार ने फैसला किया और किस पार्टी की सरकार ने उसे लागू किया। विदेशियों के लिए केन्द्र की सरकार भारत की सरकार ही होती है चाहे वह कांग्रेस पार्टी की सरकार हो भाजपा की। इसलिए उच्च वार्ता दल को सीमाओं के निर्धाऱण का कार्य गंभीरता के साथ करना चाहिए। रक्षामन्त्री का पहला दायित्व देश की सरहदों की सुरक्षा करना ही होता है। राजनाथ सिंह पूरी मुस्तैदी के साथ यही काम कर रहे हैं और सेना की मार्फत चीन को शान्ति व सौहार्द बनाये रखने का पैगाम भी दे रहे हैं। नहीं भूला जाना चाहिए कि पचास के दशक में ही भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौता किया था जिसमें शान्ति व सह अस्तित्व समाहित है।

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