राजनाथ सिंह की लद्दाख यात्रा
रक्षा मन्त्री श्री राजनाथ सिंह दो दिन की लद्दाख यात्रा पर रवाना हो रहे हैं जहां वह चीन के साथ लगती नियन्त्रण रेखा का दौरा भी करेंगे और कश्मीर में पाकिस्तान के साथ खिंची अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर भी जायेंगे।
04:57 AM Jul 17, 2020 IST | Aditya Chopra
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रक्षा मन्त्री श्री राजनाथ सिंह दो दिन की लद्दाख यात्रा पर रवाना हो रहे हैं जहां वह चीन के साथ लगती नियन्त्रण रेखा का दौरा भी करेंगे और कश्मीर में पाकिस्तान के साथ खिंची अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर भी जायेंगे। कुछ वर्ष पहले तक यह परंपरा रही है कि रक्षा मन्त्री जब भी सीमा क्षेत्र का दौरा करते थे तो अपने साथ पत्रकारों का एक दल भी ले जाते थे जिससे आम जनता के दिमाग में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े किसी भी मुद्दे पर किसी प्रकार का कोई भ्रम न रहे, परन्तु अब यह परपंरा समाप्त कर दी गई है। लोकतन्त्र में पारदर्शिता का महत्व इसीलिए होता है जिससे किसी प्रकार की अफवाह जन्म ही न ले सके। वास्तव में सीमा सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी रक्षा मन्त्री की ही होती है क्योंकि वह सेना के तीनों अंगों के कमांडरों के संसद की मार्फत संरक्षक होते हैं। चीन के साथ पिछले मई महीने से ही लद्दाख में खिंची नियन्त्रण रेखा पर जिस तरह की स्थिति बनी हुई है उसे देखते हुए उनकी यह यात्रा थोड़ी देर से भी कही जा सकती है मगर राजनाथ सिंह ऐसे राजनीतिज्ञ माने जाते हैं जो अपनी जवाबदेही से बचना नहीं सीखे हैं।
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यही वजह है कि उन्होंने विगत 2 जून को साफ कर दिया था कि लद्दाख के क्षेत्र में चीनी सेनाएं अच्छी-खासी संख्या में हमारे क्षेत्र में घुस आयी हैं। उसके बाद 15 जून को गलवान घाटी में वह घटना हुई जिसमें हमारे बीस वीर सैनिकों की शहादत हुई मगर यह भी हकीकत अब सामने आ रही है कि अप्रैल महीने के मध्य में ही सेना गुप्तचर विभाग ने चेतावनी दे दी थी कि चीनी सेनाओं की नियन्त्रण रेखा के समीप असहज हलचल हो रही है। इसी के अनुरूप भारत ने भी अपनी सेनाओं का जमावड़ा नियन्त्रण रेखा पर करना शुरू कर दिया था। 15 जून के बाद चीन को लेकर जो भी घटनाक्रम भारत के राजनीतिक धरातल पर हुआ उसे दोहराने से कोई लाभ इसलिए नहीं है क्योंकि गलवान घाटी के क्षेत्र में दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनाव रहित माहौल पीछे हटने से बन चुका है परन्तु पेंगोंग झील के क्षेत्र में अभी ऐसा वातावरण नहीं बन पाया है। दोनों सेनाओं के क्षेत्रीय कमांडरों के बीच वार्ता के कई दौर हो चुके हैं जिनका जोर सीमा से सम्बन्धित हुए दोनों देशों के बीच विभिन्न समझौतों पर है जिससे नियन्त्रण रेखा पर तनाव पैदा हो न सके। बेशक ये सभी समझौते पिछली सरकारों के कार्यकाल में हुए हैं परन्तु सभी में भारत की भौगोलिक अखंडता को हर कीमत पर कायम रखने की शपथ है।
लोकतन्त्र में सरकार एक सतत् प्रक्रिया होती है और हर सरकार का प्रथम दायित्व राष्ट्रहित सर्वोपरि रखना ही होता है। अतः घरेलू राजनीति में भी राजनीतिक दलों को एक-दूसरे की सरकार की आलोचना करते समय राष्ट्रहित को ही सर्वोपरि रखना चाहिए, परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं होता कि भौगोलिक अखंडता के मामले में ढिलाई पाये जाने की घटनाओं को भी नजर अन्दाज कर दिया जाये। इसी वजह से 1962 में चीनी हमले के समय पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार की जम कर आलोचना हुई थी। आज के सन्दर्भ में भी हमें समग्रता में ही वस्तुिस्थति को देखना चाहिए। सेना किसी पार्टी या सरकार की नहीं होती बल्कि वह देश की होती है और सेना का हर जवान देश की सुरक्षा में सन्नद्ध रहता है। सेना का काम संविधान सम्मत चुनी हुई सरकार के तहत अपने कार्य को अंजाम देना होता है क्योंकि भारतीय सेना संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति की सुरक्षा में रह कर संविधान के प्रति ही अपनी जवाबदेही निभाती है। यह खूबसूरत शास्त्रीय व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता हमें सौंप कर गये हैं। इसकी सुरक्षा करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है और सेना के शौर्य व बलिदान के प्रति नतमस्तक रहना उसका धर्म है। श्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि वह रक्षा मन्त्री रहते हुए भारत के सम्मान पर आंच नहीं आने देंगे। अतः उनका लद्दाख का दौरा करना बताता है कि भारतवासियों को अपनी सीमाओं की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त रहना चाहिए। राजनाथ सिंह यह भी सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान के सन्दर्भ में कह चुके हैं कि उससे बात होगी तो अब पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में ही होगी। उनका भारत-पाक सीमा रेखा का दौरा करना बताता है कि वह 130 करोड़ भारतवासियों को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि न तो पाकिस्तान और न चीन और न ही दोनों इक्ट्ठा होकर भारत की भौगोलिक सीमाओं को बदलने की हिमाकत कर सकते हैं। एेसी कोई भी हिमाकत उन्हें बहुत भारी पड़ेगी।
भारत की वीर सेनाओं के साथ 130 करोड़ देशवासियों का नैतिक बल है। जहां तक चीन के साथ पेंगोंग झील इलाके में बने गतिरोध का सवाल है तो भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि उसे वापस उसी जगह जाना होगा, जहां वह अप्रैल महीने के अन्त में था। इस बारे में सीमा प्रबन्धन समझौता-1996 दोनों देशों का नियामक सिद्धान्त होगा। बेशक चीन की नीयत अभी भी ठीक नहीं लगती है मगर उसे भी समझना होगा कि एशियाई महाद्वीप में भारत के सहकार व सहयोग से ही उसकी तरक्की संभव है।
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