रमज़ान, नेकी का एक रिफ्रेशर कोर्स !
पहले ही रमजान के रोज़े पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से सभी मुस्लिम…
पहले ही रमजान के रोज़े पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से सभी मुस्लिम लोगों को शांति और सद्भावना का सुंदर नर्सरी में ‘जहान-ए-ख़ुसरो’ के अवसर पर यह सुंदर संदेश दिया उसका बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा है, भारत और वैश्विक मुसलमानों पर। न केवल धर्म बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी रमज़ान उपवास मास का आंकलन किया जाए तो ज्ञात होगा कि यह एक ऐसा पवित्र समय है जिसमें न केवल मुस्लिमों, बल्कि पूर्ण अंतर्धर्म समाज की खुशहाली का प्रण िलया जाता है, उसको ऐसे ही कार्यान्वित भी किया जाता है कि जैसे गुरुद्वारों में बिरादरान-ए-वतन, सिख भाई करते हैं। इफ्तार (रोज़ा खोलना) के समय कहीं भी, कोई भी, किसी भी धर्म का व्यक्ति उसका भाग बन सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे गुरुद्वारों में लंगर के समय कोई भी शामिल हो सकता है।
इस्लाम में अल्लाह को “रब्बुल आलमीन” (पूर्ण विश्व का रब) कहा गया है, जिसका अर्थ है कि अल्लाह केवल मुसलमानों का भगवान नहीं है, बल्कि सर्व समाज का अल्लाह है, बिल्कुल उसी प्रकार से जैसे, हज़रत मुहम्मद (स.), जिन्हें “रहमतुल्लिल आलमीन” (पूर्ण विश्व का हमदर्द) कहा जाता है, क्योंकि वे केवल मुसलमानों के हमदर्द नहीं, बल्कि सभी धर्मों के अनुयायियों से प्रेम करते थे।
धर्म चाहे जो भी हो, हर धर्म से जुड़ी कुछ विलक्षण, अनोखी और अनूठी बातें ऐसी होती हैं जिनके बारे में कहना पड़ता है कि जहां साइंस समाप्त होती है वहां आस्था शुरू होती है। उदाहरण के तौर पर रमजान के पूर्ण महीने में 14 से 16 घंटे उपवास रखने के बाद भी मानव शरीर को कोई क्षति नहीं पहुंचती, बल्कि स्वास्थ्य के एतबार से लाभ ही पहुंचता है कि अंदर के विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं। यह ऐसे ही है जैसे महाकुंभ में 65 करोड़ लोगों के स्नान के बाद भी गंगा का जल ऐसा ही स्वच्छ है जैसा एल्कलाइन पानी या बॉटल्ड वाटर होता है, जैसा कि एपीजे अब्दुल कलाम के साथ कार्यरत, वैज्ञानिक, पद्मश्री अजय कुमार सोनकर ने अपनी लैब में प्रमाणित किया है।
रमज़ान, वास्तव में इन्सानियत का पाठ पढ़ाता है। रमजान का एक अलग ही जोश होता है और मुस्लिम समुदाय एक रमज़ान के जाते ही अगले रमज़ान की प्रतीक्षा करने लगते हैं। कुछ लोग सोचते हैं रमजान मात्र भूखा रहना है जो कि बिल्कुल ऐसा नहीं। रमज़ान के रोज़े इस बात का आभास कराते हैं कि जिन लोगों को दो वक्त खाना नहीं मिलता उनकी क्या दशा होती है। साथ ही रोज़े इस बात की भी गारंटी होते हैं कि मुस्लिम व्यक्ति किसी प्रकार के गुनाह या चरित्रहरण जैसे पापों से भी दूर रहे।
इन सबसे परे हटकर रमज़ान, जो सबसे बड़ी शिक्षा देता है, वह है, ‘तकवे’ की जिसका अर्थ है कि अल्लाह-मुहम्मद को सामने रख कर सही फैसला किया जाए और किसी के अधिकारों का हनन न हो। यह बिल्कुल वैदिक उसूल लोन “सर्वे भवन्तु सुखिना/ सर्वे संतु निरामया:” और “वसुधैव कुटुंबकम्” की भांति है, को केवल रमजान मास के लिए नहीं, बल्कि पूर्ण जीवन के लिए है। कई लोग रमजान में जायज़, नाजायज धंधे भी करते हैं, जैसे लेखक के क्षेत्र ज़ाकिर नगर में रमज़ान से पूर्व, पपीता 40 से 50 रुपए प्रति किलो बिकता था, मगर पहले रोज़े से ही, कई चीजों के दाम बढ़ा दिए जाते हैं। यहां इन दुकानदारों को उन हिंदू दुकानदारों से सबक़ लेना चाहिए कि जो होली, दीवाली आदि पर ख़ूब सस्ते दामों पर सामान देते हैं और नाना प्रकार के रिबेट देते हैं।
वैसे भी रमज़ान वास्तव में एक ऐसा रिफ्रेशर कोर्स है जो मुस्लिमों से कहता है कि उनको मात्र एक मास के लिए नहीं बल्कि पूर्ण जीवन के लिए इसी प्रकार से ज़िन्दगी गुजारनी है कि किसी के साथ नाइंसाफी हरगिज़ नहीं, किसी भी व्यक्ति का कभी भी दिल नहीं दुखाना, किसी को धोखा नहीं देना, किसी के प्रति किसी भी प्रकार का व्यभिचार नहीं रखना। किसी को गाली नहीं देना, ऊंची आवाज़ से नहीं बोलना आदि। मगर समस्या यह है कि यह सब बस मात्र एक महीने के लिए होता है जबकि हज़रत मुहम्मद (स.) ने अपनी तमाम ज़िंदगी बेतहाशा ईमानदारी के साथ इन्हीं उसूलों पर गुजार दी, मगर मुस्लिमों के साथ समस्या यह है कि वे हज़रत मुहम्मद (स.) के रास्ते पर उनकी तरह से नहीं चलते। वे हज़रत मुहम्मद (स.) को तो मानते हैं, मगर उनकी नहीं मानते।
रमज़ान में किया गया हर काम अर्थात सहरी से लेकर नमाजें पढ़ना, कुरान पढ़ना, स्वयं अच्छी बातों पर अमल कर दूसरों को वसुधैव कुटुंबकम् की तरह स्तर लेकर चलना ऐसी बातें हैं कि जिनको अल्लाह पसंद करता है और भरपूर पुण्य मिलता है।
रमज़ान की नूरानी महफिलें चाहे तरावियों की हों, इफ्तार की हों या बाजार की हों, उनका जवाब नहीं? सारे बाज़ार दुल्हन की तरह सज जाते हैं। नाना प्रकार के कचालू, फल और मिठाइयां बाजारों की ज़ीनत बनते हैं। कपड़ों, जैसे कुर्ते-कुर्तियों, कोटियों, पजामों, लेडीज़ सूटों आदि के ढेर लग जाते हैं। इफ्तार की आज़ान या सायरन से पहले मस्जिदों, घरों, बाजारों में सभी के लिए इफ्तार सामग्री लगा दी जाती है। सहरी में रोजेदारों को जागने की प्रभात फेरियां और नगाड़े बजाना भी पहले आम बात थी।
देर रात तक सभी मुस्लिम बस्तियों में चहल-पहल की रौनक लगी रहती है। ईद से एक दिन पूर्व जब चांद दिखाई देता है तो बच्चों की टोलियां, “चांद हो गया है”, के नारे लगाते फिरते हैं जिससे बड़ी रौनक बनी रहती है। जब रमज़ान जाने लगते हैं तो मुस्लिम मन बड़ा दुःखी होता है। ऐसा कहा जाता है कि रमज़ान के महीने में शैतान को क़ैद कर दिया जाता है, जिसका सांकेतिक अर्थ यही होता है कि मुस्लिम अपने अंदर की बुराइयों को बंद कर नेकियां बटोरते हैं।