Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgets
vastu-tips | Festivals
Explainer
Advertisement

बलात्कारियों को फांसी और पुलिस!

यह गंभीर विषय है कि इंतकाम और न्याय अथवा इंसाफ में क्या अंतर होता है। बलात्कर जैसे बर्बर पैशाचिक कृत्य के लिए हमारे कानून में फांसी की सजा है।

04:37 AM Dec 07, 2019 IST | Ashwini Chopra

यह गंभीर विषय है कि इंतकाम और न्याय अथवा इंसाफ में क्या अंतर होता है। बलात्कर जैसे बर्बर पैशाचिक कृत्य के लिए हमारे कानून में फांसी की सजा है।

हैदराबाद में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार करने वाले चारों अभियुक्तों को वहां की पुलिस ने गिरफ्तार करके जिस तरह मुठभेड़ में मार गिराया है उससे कुछ बुनियादी सवालों का उठना लाजिमी है और इनका उत्तर जितनी जल्दी से जल्दी ढूंढा जाये उतना ही भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश और इसके नागरिकों के दीर्घकालीन हित में होगा। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के एक गांव की पहले से ही बलात्कार की पीड़ित एक 23 वर्षीय युवती के साथ पुनः पांच लोगों ने सामूहिक बलात्कार करके उसे जिन्दा जलाने का घृणित कार्य किया है उससे भी सबक सीखना होगा। 
Advertisement
दोनों ही मामलों में पुलिस की भूमिका केन्द्र में है। हवस का शिकार तो हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक डा. प्रियंका को इस तरह बनाया गया कि बलात्कारी अपनी हवस को पूरा करने के दौरान उसकी मृत्यु हो जाने के बावजूद भी बलात्कार करते रहे। संसद का सत्र चालू है जिसमें इन कांडों की गूंज स्वाभाविक रूप से होनी थी और वह हुई भी परन्तु राज्यसभा में समाजवादी पार्टी की सदस्य और पूर्व काल की सिने अभिनेत्री जया बच्चन ने जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की वह वैचारिक खोखलेपन और प्रतिशोध की मानसिकता की हिंसक प्रवृत्ति का ही प्रतिनिधित्व करती है जिसे सभ्य समाज में ‘बदलाव’ कहा जाता है। 
अपराधी को समाप्त करने और अपराध को मिटाने का अन्तर हमें समझना पड़ेगा। संयोग से हैदराबाद पुलिस ने डा. प्रियंका के साथ अमानुषिक व पैशाचिक कृत्य करने वाले अपराधियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाने में बहुत फुर्ती का परिचय दिया है और कहा है कि चारों अपराधी घटनास्थल पर ले जाये जाने के बाद वहां से भागने का प्रयास कर रहे थे और उल्टे पुलिस को अपना शिकार बनाना चाहते थे जिसकी वजह से पुलिस को उन्हें मारना पड़ा। डा. प्रियंका के साथ किये गये राक्षसी कृत्य के खिलाफ पूरे देश के नागरिकों में भारी गुस्सा था और पुलिस के खिलाफ भी रोष था, पुलिस के इस कारनामे को सामान्य लोगों ने डा. प्रियंका के साथ किये गये दुष्कृत्य के उत्तर में ‘न्याय’ की तरह देखा है, परन्तु सवाल यही है कि क्या यह न्याय है। 
वास्तव में यह न्याय के रूप में प्रदर्शित बदला या इन्तकाम अथवा प्रतिशोध है। यह गंभीर विषय है कि इंतकाम और न्याय अथवा इंसाफ में क्या अंतर होता है। बलात्कर जैसे बर्बर पैशाचिक कृत्य के लिए हमारे कानून में फांसी की सजा है। 2012 दिसम्बर में जब निर्भया बलात्कार कांड का मामला सामने आया था तो संसद ने ही कानून को बहुत सख्त बना कर ऐसे कुकृत्य के लिए फांसी की सजा का प्रावधान किया था। निर्भया कांड के दोषियों को फांसी की सजा भी हुई मगर दो साल बीत जाने के बावजूद वे जेल में ही हैं। और हमारे संविधान के तहत राष्ट्रपति से दया याचना की दरख्वास्त लगा रहे हैं। 
हालांकि आज ही खबर आयी है कि गृह मन्त्रालय राष्ट्रपति से निवेदन करने जा रहा है कि बलात्कार जैसे मामलों के सजा याफ्ता अपराधियों की फांसी की सजा के सन्दर्भ में दया याचना न सुनी जाये। इसके बावजूद लोगों में इस लम्बी प्रक्रिया के खिलाफ गुस्सा तो है ही जिसे लोकसभा में बीजू जनता दल के सांसद प्रख्यात वकील पिनाकी मिश्रा ने बहुत संयत ढंग से अपने शब्दों में रखा, परन्तु सवाल यह है कि इस प्रक्रियागत लिजलिजेपन की वजह से क्या हम सीधे इतिहास के कबायली दौर में प्रवेश कर जायेंगे और अपराध की सजा किसी आरोपी के पकड़े जाने पर तुरन्त ही बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के सुना देंगे और अपराधी का खात्मा हाथोंहाथ बिना किसी सबूत या गवाह या मौका-ए-वारदात से मिले गुनाह के धब्बों की शिनाख्त किये बिना ही सुना देंगे और पुलिस को खुली छूट दे देंगे कि वह अपराध को समाप्त करने की अपनी मुख्य जिम्मेदारी से ध्यान हटाने के लिए अपराधी को ही समाप्त करके किसी जासूसी फिल्म की पटकथा लिख दे। 
यह वही भारत है जिसने 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई के छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन पर सरेआम हाथ में बन्दूक लेकर निरपराध भारतीय नागरिकों को भूनने वाले पाकिस्तानी अजमल कसाब को भी गिरफ्तार करके उसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के बाद उसके अपराधी घोषित होने पर फांसी पर चढ़ाया था। भारत पूरी दुनिया में कानून से चलने वाला देश माना जाता है और यहां शासन केवल कानून का होता है अर्थात जो संविधान कहता है वही लोगों द्वारा चुनी गई सत्ता पर काबिज सरकार को करना होता है। हम कबायली कानूनों के कायल क्यों होना चाहते हैं। 
जया बच्चन यदि यह कहती हैं कि बलात्कारियों को जनता को सौंप दिया जाना चाहिए और उनकी लिंच, भीड़ द्वारा हत्या करा देनी चाहिए तो हमें सोचना पड़ेगा कि हमारी संसद में बैठे सदस्यों का मानसिक स्तर क्या है और उनका हमारे उस संविधान पर कितना भरोसा है जिसकी वे कसम लेकर संसद के सदस्य का कर्त्तव्य निभाते हैं। यदि संसद से ही घोषित रूप से अराजकता पैदा करने का सन्देश जायेगा तो सामान्य जनता की मनःस्थिति कैसी होगी। हैदराबाद की घटना की मजिस्ट्रेट द्वारा जांच होगी और मुठभेड़ की सत्यता की पड़ताल की जायेगी मगर पड़ताल भी तो पुलिस ही करेगी। 
बलात्कारियों को सख्त से सख्त फांसी की सजा ही मिलनी चाहिए और इसके लिए प्रक्रियागत लिजलिजेपन को दूर करने का कार्य मुस्तैदी से किया जाना चाहिए। गंभीर सवाल यह है कि व्यवस्था के फेल हो जाने का जश्न हम किस तरह मना सकते हैं। हमें व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। यह मानसिकता ही सभ्य समाज को असभ्य व अराजक बनाने का उपाय कही जा सकती है। लोकतन्त्र कबायली तरीकों से नहीं बल्कि कानूनी तरीकों से चलता है। अतः बलात्कारियों को निश्चित रूप से फांसी की सजा होनी चाहिए और सभी सम्बन्धित प्रक्रियाओं को मुस्तैद व तेज बना कर यह कार्य होना चाहिए जिससे लोगों का कानून में विश्वास बना रहे और व्यवस्था में उनका यकीन पक्का हो।
Advertisement
Next Article