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सुरों के रसराज पंडित जसराज

इस वर्ष भारत ने एक के बाद एक हस्तियों को खोया है। कई प्रतिभाओं को खोया है लेकिन विधि के विधान के आगे हमें निशब्द हो जाना पड़ता है। पद्म विभूषण

12:19 AM Aug 19, 2020 IST | Aditya Chopra

इस वर्ष भारत ने एक के बाद एक हस्तियों को खोया है। कई प्रतिभाओं को खोया है लेकिन विधि के विधान के आगे हमें निशब्द हो जाना पड़ता है। पद्म विभूषण

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सुरों के रसराज पंडित जसराज
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इस वर्ष भारत ने एक के बाद एक हस्तियों को खोया है। कई प्रतिभाओं को खोया है लेकिन विधि के विधान के आगे हमें निशब्द हो जाना पड़ता है। पद्म विभूषण से अलंकृत शास्त्रीय संगीत के ​प्रसिद्ध गायक पंडित जसराज का अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में निधन हो गया। पंडित जसराज को रसराज भी कहा गया। उनके निधन से संगीत जगत को जो क्षति पहुंची है, उसकी भरपाई तो कभी नहीं हो सकती क्योंकि पंडित जसराज जैसी प्रतिभाएं विरले ही मिलती हैं।
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कई वर्षों से देश में ही नहीं दुनियाभर में रह रहे लाखों भारतीयों के घरों में सुबह पंडित जसराज की आवाज से होती है। ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ हो या ओम नमो शिवाय।’ पंडित जसराज की आवाज प्रार्थना की आवाज बन गई है। अब केवल उनके स्वर गूंजते रहेंगे। उनका जाना ऐसे है जैसे एक युग का गुजर जाना। पाठकों को याद होगा कि उन्होंने अपनी अंतिम प्रस्तुति 9 अप्रैल को हनुमान जयंती पर फेसबुक लाइव के जरिये वाराणसी के हनुमान मंदिर के ​लिए दी थी। उन्होंने वैश्विक स्तर पर शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाया और स्वयं भी लोकप्रियता के शिखर को छुआ। उनका जन्म 28 जनवरी, 1930 को हरियाणा के फतेहाबाद के ग्राम पिली पंडोरी में ऐसे परिवार में हुआ था जिसने चार पीढ़ियों से शास्त्रीय संगीत की परम्परा को आगे बढ़ाया था। पहले उनके पिता पंडित मोती राम ने मुखर संगीत की शिक्षा दी थी। बाद में उनके भाई प्रताप नारायण ने उन्हें तबला बजाना सिखाया। वह अपने सबसे बड़े भाई पंडित मणिराम के साथ एकल प्रदर्शन में भी शामिल होते रहे। उन्होंने मणिराम से ही संगीत की शिक्षा ली। उनके पिता मेवाती घराने के गायक थे। तबला वादक के रूप में उन्हें यह महसूस हुआ कि एक तबला वादक को वह सम्मान नहीं मिलता जो सम्मान एक गायक को मिलता है। गायन के लिए वह बेगम अख्तर से काफी प्रेरित हुए और 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने गाना शुरू कर ​दिया था। उन्होंने एक ऐसा संगीत कलाकार बनने की ठान ली जिसकी ख्याति भारत से लेकर विदेशों तक में हो। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि जब तक वह एक संगीतकार नहीं बन जाते तब तक वह अपने बाल नहीं कटवाएंगे।
उनके जीवन का एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है जो वह हमेशा अपने साक्षात्कार में बताते रहे। हुआ यूं कि वर्ष 1960 में एक अस्पताल में उनकी मुलाकात बड़े गुलाम अली खान से हुई थी, तब गुलाम अली ने उनसे शिष्य बनने को कहा लेकिन जसराज ने साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा था कि बड़े भाई मणिराम उनके पहले गुरु हैं, वे कैसे अब दूसरा गुरु बना लें। उन्होंने आल इंडिया रेडियो और फिर दुनिया भर में कंसर्ट कर न सिर्फ नाम कमाया बल्कि देश और भारतीय संगीत को लेकर नए लोगों में नया सम्मान जगाया। उन्हें लुप्त होती जा रही संगीत विधाओं को फिर से स्थापित करने का जुनून था। जैसे ज्यादातर मंदिरों में गाया जाने वाला हवेली संगीत, इसे फिर से लोकप्रिय बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा।
1970 में उन्होंने एक अलग तरह की जुगलबंदी शुरू की, जिसे जसरंगी कहा जाता है। ऐसा कंसर्ट पुणे में हुआ था। इसमें एक पुरुष और एक महिला गायक अपने-अपने राग में गाते हैं और आखिर में दोनों एक स्केल पर आ जाते हैं। ऐसा प्रयोग पहले नहीं हुआ था। उनकी विशेषता भी यही थी कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत में नए-नए प्रयोग किये। श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा रचित मधुराष्टकम भगवान श्रीकृष्ण की बहुत ही मधुर स्तुति है। पंडित जसराज ने इस स्तुति को अपने स्वर से घर-घर तक पहुंचाने का काम किया। 82 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंटार्कटिका पर अपनी प्रस्तुति दी। इसके साथ ही वे सातों महाद्वीप में कार्यक्रम पेश करने वाले पहले भारतीय हैं। उन्होंने 8 जनवरी, 2012 को अंटार्कटिका तट पर सी ​स्पिरिट नामक क्रूज पर गायन कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीत भी दिया। हालांकि फिल्मों में वह तभी गाते थे जब गाना राग आधारित हो। हालांकि एक हॉरर फिल्म में उन्होंने एक गीत गाया था जो इस मायने में अपवाद था। उनकी विदेश में लोक​प्रियता इतनी थी कि इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने उनके नाम पर एक ग्रह का नाम रखा। इस ग्रह का नम्बर है 300128,  ये संख्या रेंडम नहीं है, इसे रिवर्स आर्डर में रखेंगे तो उनकी जन्मतिथि बनती है। ऐसा सम्मान  पंडित जी से पहले किसी गायक को नहीं मिला। उनका सबसे बड़ा योगदान संगीत को जनता के लिए सरल और सहज बनाना रहा। उन्होंने ख्याल गायकी में ठुमरी का पुट डाला जो सुनने वालों के कानों में मिठास घोल जाता है। वह बंदिश भी जसरंगी अंदाज में गाते थे। उन्होंने नए रागों का सृजन भी किया। उन्हें ढेरों सम्मान आैर पुरस्कार मिले लेकिन उन्होंने कहा था-‘‘यह कह पाना कठिन है कि कितनी सांसें लेनी हैं, कितने कार्यक्रम करने हैं, मैं नहीं मानता कि संगीत के क्षेत्र में मेरा कोई योगदान है। मैं कहां गाता हूं, मैंने कुछ नहीं किया, मैं तो केवल माध्यम मात्र हूं, सब ईश्वर की कृपा है। मैं तो ईश्वर के लिए गाता हूं।’’
‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा’’ हमारे जेहन में हमेशा रहेगा। किसी देवस्थल के समक्ष जलता हुआ दीपक जैसे भारतीय परम्परा में प्रार्थना प्रतीत होता, वैैसे ही पंडित जसराज अमेरिका में भारत के शास्त्रीय संगीत के प्रतीक थे। जसराज अमेरिका में जरूर बस गए थे, लेकिन न तो भारतीय वेशभूषा को छोड़ा, न ही संगीत के सुरों को छोड़ा। उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की लौ की तरह याद रखा जाएगा।
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