Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

आरबीआई : अर्थव्यवस्था से खिलवाड़ क्यों?

NULL

09:44 AM Nov 10, 2018 IST | Desk Team

NULL

एक के बाद एक बैंक घोटालों से बैंकों को काफी नुक्सान हो चुका है। देश के बैंकों से जुड़े स्कैंडल सामने आने के बाद आम धारणा कायम हो चुकी है कि बैंकिंग व्यवस्था पूंजीपतियों और कार्पोरेट घरानों के हितों के लिए काम करती है। बैंकों की पूंजी से खिलवाड़ करना देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंचाना ही है और ऐसा करना अक्षम्य अपराध ही है लेकिन ऐसा लगता है कि अपराधियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। मामूली कर्ज नहीं चुकाने वाले किसानों, दुकानदारों की सम्पत्ति जब्त करना, उनके नाम सार्वजनिक करना या उनकी सम्पत्ति पर नोटिस चिपकाना या विज्ञापनबाजी करना तो बैंकों के लिए सामान्य बात है। सामाजिक तौर पर प्रतिष्ठा पर आंच आने से किसान और अन्य लोग आत्महत्याएं भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ बैंकों का बढ़ता एनपीए यानी वसूली न जाने वाली रकम को बट्टे खाते में डालने की कवायद पर सवाल उठने लगे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भारी-भरकम कर्ज न लौटाने वालों के नाम सार्वजनिक करने में आनाकानी कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट यह निर्देश पहले ही दे चुकी है कि 50 करोड़ से अधिक का कर्ज नहीं चुकाने वालों के नाम सार्वजनिक किए जाएं और ऐसे कर्जदारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए।

केन्द्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक में टकराव के बीच अब केन्द्रीय सूचना आयोग ने भी रिजर्व बैंक की कार्यशैली पर असंतोष व्यक्त करते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है। सूचना आयोग ने यह नोटिस जानबूझ कर बैंक ऋण नहीं चुकाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अनुपालन नहीं करने पर जारी किया है। सूचना आयोग ने प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय और बैंक के फंसे कर्जों को लेकर रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की आेर से लिखे गए पत्र को भी सार्वजनिक करने को कहा है। सूचना आयोग ने उ​िर्जत पटेल को यह भी कहा है कि ऐसे डिफाल्टरों के नाम सार्वजनिक नहीं किए जाने को लेकर उन पर क्यों न जुर्माना लगाया जाए। सूचना आयोग ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को नोटिस भेजकर उचित कदम उठाया है क्योंकि यह सीधा-सीधा सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवमानना का मामला है।

सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि उर्जित पटेल ने इसमें जानबूझ कर लापरवाही बरती या किसी दबाव में आकर उन्होंने सूची सार्वजनिक नहीं की। यह गम्भीर प्रकरण है, जिसका सही जवाब पटेल को देना ही होगा। बैंकों में फंसे कर्ज के सन्दर्भ में पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का महत्वपूर्ण पत्र भी सार्वजनिक होना आवश्यक है। इससे अनेक बातें स्पष्ट होंगी। सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलूका का यह बयान भी विशेष अर्थ रखता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि आरटीआई नीति को लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर की बातों और उनकी वेबसाइट की जानकारियों में कोई मेल नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि रिजर्व बैंक की कार्यप्रणाली विसंगतियों की शिकार है। यह देश की अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में उचित नहीं है।

इसमें कोई शक नहीं कि करोड़ों का कर्ज लेने वाले बड़े लोग ही होंगे। इसमें कार्पोरेट जगत तो शामिल है ही ​बल्कि इसमें निर्वाचित जनप्रतिनि​िध आैर उनके व्यावसायिक भागीदार भी शामिल हैं। हालत यह है कि बैंकों के पास सरकारी योजनाओं के लिए धन की कमी हो चुकी है। सरकार की मुश्किल यह है कि वह अर्थव्यवस्था में योगदान करने में अपेक्षाकृत कमजोर क्षेत्रों को आसान शर्तों पर कर्ज दिलाने की योजनाएं नहीं चला पा रही। रिजर्व बैंक आैर केन्द्र सरकार के बीच खींचातानी के चलते पूरे घटनाक्रम में पर्दे के पीछे की कई ऐसी बातें सामने आ रही हैं जिनसे आम आदमी पहले कभी अवगत नहीं रहा। यह हकीकत है कि पिछली सरकार के समय जो एनपीए था वह राजग सरकार के कार्यकाल में बढ़कर दोगुना हो चुका है।

जब बैंकों की कमर टूटने लगी तो रिजर्व बैंक ने अपना डंडा घुमाया लेकिन उसमें बड़े घोटालेबाजों का जो बिगड़ना था वह तो बिगड़ा ही। माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और कुछ अन्य तो परिवारों सहित विदेश भाग लिए लेकिन छोटे आैर मंझोले किस्म के कर्जदार भी त्रस्त होकर बैंकिंग व्यवस्था आैर केन्द्र सरकार को कोसने लगे। केन्द्र सरकार की मुश्किल यह है कि यदि वह रिजर्व बैंक पर शिकंजा कसती है तो उस पर इस संस्था की स्वायत्तता पर हमला करने जैसा आरोप लगता है। सरकार अगर रिजर्व बैंक को अपनी मर्जी से चलने की छूट देती है तो भी वह आरोपी ठहराई जाती है। टकराव के चलते अगर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा देते हैं तो इसमें भी सरकार की किरकिरी होगी। सवाल केवल व्यक्ति विशेष का नहीं, सवाल यह है कि बैंकिंग व्यवस्था को पटरी पर कैसे लाया जाए। बट्टे खाते का पैसा बैंकों के पास आ जाए तो स्थितियां काफी बदल जाएंगी।

वास्तविकता तो यही है कि लोगों के जमा धन से ही बैंकों का कारोबार चलता है। यही पैसा कर्ज के तौर पर दिया जाता है, बैंकों को इस पर ब्याज मिलता है और उनकी कमाई हो जाती है। बैंकों का पैसा डूबने का अर्थ यही है कि देश के लोगों का धन डूबा। रिजर्व बैंक को ऐसे कर्जदारों के नाम नहीं छिपाने चाहिएं, उनके नाम सार्वजनिक कर देशवासियों को बताना चाहिए कि किस-किस ने जनता के पैसे का इस्तेमाल किया है आैर अपने साम्राज्य को खड़ा कर लिया लेकिन बैंकों को कंगाल बना डाला। उम्मीद की जानी चाहिए कि उर्जित पटेल सूचना आयोग के निर्देश पर तय समय पर कर्ज नहीं लौटाने वालों के नाम उजागर करेंगे। केन्द्र और आरबीआई को बातचीत कर मसला सुलझाना ही होगा।

Advertisement
Advertisement
Next Article