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फिलिस्तीन को मान्यता

06:00 AM Sep 23, 2025 IST | Aditya Chopra

जब भी हम इजराइल और फिलिस्तीन संघर्ष की बात करते हैं तो हमें हैरानी होती है कि एक शताब्दी बीत जाने के बावजूद भयानक अतीत आज भी मौजूद है। सामूहिक विनाश की लालसा और सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए कुछ निर्दोष लोगों पर खुलेआम अत्याचार करते आए हैं और कर रहे हैं लेकिन वैश्विक शक्तियां नरसंहार देखकर भी खामोश बनी रहती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि फिलिस्तीन का हमास संगठन आतंकवादी संगठन है। उसने इजराइल पर हमला कर उसके कई नागरिकों को बंधक बना लिया था। इस पर इजराइल ने कड़ा रुख अपनाया और गाजा को तहस-नहस कर दिया। आतंकवाद के खिलाफ इजराइल की सैन्य कार्रवाई को उचित ठहराया जा सकता है लेकिन बेंजामिन नेतन्याहू के आदेश पर इजराइल सेना ने गाजा में जाे ​किया वह भी एक गम्भीर युद्ध अपराध है। अक्तूबर 2023 में शुरू हुए इजराइल-हमास संघर्ष में 64 हजार से अधिक निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं। अब तक 270 से अधिक पत्रकार और मीडियाकर्मी मारे जा चुके हैं। अस्पतालों और राहत शिविरों पर बेरहमी से बमबारी कर महिलाओं और बच्चों को मारा गया। सड़कें शवों से भरी पड़ी हैं। गाजा में लगभग 19 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं।

ऐसी खबरें रोज आती हैं कि भोजन लेने के लिए कतार में खड़े फिलिस्तीनियों पर इजराइली सेना लगातार हमले कर रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो आजकल लीडर कम ट्रेडर ज्यादा नजर आ रहे हैं वह भी आंखें मूंद कर बैठे हैं। ट्रंप के हाथ भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से फिलिस्तीनियों के खून से रंगे हैं। इसी बीच ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया और पुर्तगाल ने फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दे दी है। अब फिलिस्तीन को मान्यता देने वालों की संख्या 150 के लगभग हो चुकी है। फ्रांस भी अगले कुछ दिनों में फिलिस्तीन को मान्यता देने का ऐलान कर देगा। यह मिडिल ईस्ट की राजनीति में बड़ा धमाका है। गोरे लोगों का फिलिस्तीन को मान्यता देना राजनीति और कूटनीतिक तौर पर बड़ा गेम चेंजर माना जा रहा है। कनाडा, ब्रिटेन ने अमेरिकी दबाव के आगे झुकने से साफ इंकार कर दिया है। अमेरिका के पुराने दोस्त अब दूसरी तरफ खड़े दिखाई दे रहे हैं। फिलिस्तीन एक ऐसा स्टेट है जो अस्तित्व में है भी और नहीं भी। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक मान्यता प्राप्त है, विदेशों में इसके राजनयिक मिशन हैं तथा ओलंपिक सहित खेल प्रतियोगिताओं में इसकी टीमें भाग लेती हैं। लेकिन इजराइल के साथ फ़िलिस्तीनियों के लंबे समय से चले आ रहे विवाद के कारण इसकी कोई अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत सीमाएं, कोई राजधानी और कोई सेना नहीं है। पश्चिमी तट पर इजराइल के सैन्य कब्जे के कारण, 1990 के दशक में शांति समझौतों के बाद स्थापित फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण अपनी जमीन या लोगों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख पा रहा है।

गाज़ा, जहां इजराइल भी एक कब्ज़ाकारी शक्ति है, एक विनाशकारी युद्ध की चपेट में है। एक तरह के अर्ध-राज्य के रूप में इसकी स्थिति को देखते हुए मान्यता अनिवार्य रूप से कुछ हद तक प्रतीकात्मक है। यह एक मजबूत नैतिक और राजनीतिक बयान होगा लेकिन जमीनी स्तर पर इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं आएगा लेकिन प्रतीकात्मकता बहुत मजबूत है। जैसा कि ब्रिटेन के पूर्व विदेश सचिव डेविड लैमी ने जुलाई में संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण में कहा था, "दो-राज्य समाधान का समर्थन करने की ज़िम्मेदारी ब्रिटेन पर विशेष रूप से है।"यद्यपि जमीनी हालात तुरंत नहीं बदलने वाले लेकिन मान्यता पूरी दुनिया को संदेश देती है कि मानवता की रक्षा के लिए दो राष्ट्र सिद्धांत को जिन्दा रखना जरूरी है। इजराइल भी सुरक्षित रहे और फिलिस्तीन आजाद हो, यही एकमात्र समाधान है। फिलिस्तीन के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वहां कोई एक सरकार नहीं है। गाजा पर हमास, पश्चिमी तट पर फतेह का कब्जा है। दोनों जगह अलग-अलग सरकारें हैं। 2006 के बाद यहां चुनाव नहीं हुए हैं। एक पूरी पीढ़ी ऐसी है जिसने कभी वोट नहीं डाला। युवा पीढ़ी पूरी तरह से हताश और थकी हुई है। बिना किसी शांति समझौते, बिना किसी सरकार के और सीमाओं को तय किये बिना दो राष्ट्र के समाधान तक पहुंचना काफी मुश्किल है।

फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले ब्रिटेन का कहना है कि फिलिस्तीन में भविष्य के शासन में हमास की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। अतीत की गलतियां सुधार कर ही हिंसा और पीड़ा का अंत किया जा सकता है। इजराइल और अमेरिका दोनों ही फिलिस्तीन को मान्यता देने का विरोध कर रहे हैं। इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का कहना है कि फिलिस्तीन को आजाद देश मानना आतंकवाद को ईनाम देना है। वह भी एक दौर था जब भारत की सहानुभूति फिलिस्तीन के साथ थी। भारत ने नवम्बर 1988 में फिलिस्तीन को राष्ट्र के रूप में मान्यता दी थी। उस समय केन्द्र सरकार ने फिलिस्तीनी लोगों के संघर्ष के पक्ष में खड़े होकर अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर मानवता और न्याय के मूल्यों को कायम रखते हुए दुनिया को संदेश दिया था। फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा के दिग्गज नेता यासिर अराफात भारत आते-जाते रहते थे। आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन ने 37 वर्ष बाद वही मार्ग अपनाया। सिर्फ मान्यता भर से फिलिस्तीनी लोगों के आत्म निर्णय के अधिकार को समर्थन मिलेगा और उन्हें वैश्विक मंच पर मजबूती मिल सकती है। मान्यता ​मिलने पर फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर अपनी बात रखने का मौका मिलेगा। वहां कई देशों के कूटनीतिक मिशन खुल सकते हैं। देखना होगा कि क्या शांति वार्ता का रास्ता खुलेगा या नहीं।

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