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शेख अब्दुल्ला का क्षेत्रवाद

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09:23 AM Oct 06, 2018 IST | Desk Team

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महाराजा हरिसिंह ने पाकिस्तानी आक्रमण के खिलाफ 26 अक्तूबर 1947 को भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय पत्र पर दस्तखत किए। इसमें शर्त रखी गई कि उनकी रियाया को वे ही विशिष्ट अधिकार मिलेंगे जो कि उनके शासन के दौरान थे जिसके लिए जम्मू-कश्मीर का पृथक संविधान होगा और इसका अपना अलग ध्वज और प्रधानमन्त्री होगा तथा वह सदरे रियासत रहेंगे मगर पूरा राज्य भारतीय संघ की भौगोलिक सीमा का अंग होगा। संविधान सभा जो उस समय नए भारत के कानून लिख रही थी, उसने इस मुद्दे को विशेष अनुच्छेद के तहत रखा जिसे 370 कहा जाता है। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और इसमें वह इलाका भी शामिल था जो 26 अक्तूबर तक पाकिस्तानी आक्रमणकारियों के कब्जे में चला गया था।

उधर पाकिस्तान को खदेड़ने में लगी फौज अपना कार्य कर रही थी और जम्मू-कश्मीर का भारत में संवैधानिक तौर पर विलय हो चुका था तो पाकिस्तान को उसकी सही सीमा रेखा पर भेजने के लिए पं. नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने का फैसला किया। उनके इस फैसले पर तब केन्द्रीय मन्त्रिमंडल के किसी भी सदस्य ने आपत्ति नहीं जताई जबकि 15 अगस्त 1947 को गठित उनकी सरकार राष्ट्रीय सरकार थी और इसमें हिन्दू महासभा की तरफ से इसके नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उद्योग मन्त्री थे। डा. मुखर्जी संविधान सभा के भी सदस्य थे। सभा के सामने जब जम्मू-कश्मीर के विशेष शर्तों के साथ विलय का प्रश्न आया तो एक मन्त्री की हैसियत से उन्होंने भी इसका समर्थन किया था। राष्ट्रसंघ में पं. नेहरू के जाने पर सुरक्षा परिषद ने हस्तक्षेप किया और दोनों देशों की फौजों को यथास्थिति में युद्ध विराम करने का आदेश दिया। राष्ट्रसंघ में पाकिस्तान ने महाराजा हरिसिंह द्वारा उसके साथ किए गए ‘स्टैंड स्टिल’ समझौते को कवच बनाने का प्रयास भी किया।

पं. नेहरू और पूरे भारत तथा विधि विशेषज्ञों की अपेक्षा के विपरीत सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव पारित किया कि पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में भारतीय सेना और अन्तर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी में जनमत संग्रह कराकर तय किया जाए कि इस राज्य की रियाया क्या चाहती है? पं. नेहरू ने इस प्रस्ताव को कूड़े की टोकरी में डालते हुए कहा कि इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत का स्वेच्छा से भारत में विलय किया है। इस विलय को दुनिया की किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि यह दोनों पक्षों के बीच बनी संवैधानिक सर्वसम्मति की उपज है। पं. नेहरू ने विलय पत्र पर शेख अब्दुल्ला के भी दस्तखत लिए थे जिससे लोकतान्त्रिक पद्धति के अनुसार जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का वैध हिस्सा बन सके और इस राज्य की जनता की स्वीकृति की मुहर लग सके। राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव भारत द्वारा अमान्य कर दिए जाने और पाकिस्तान द्वारा अपने अधिकार में आए कश्मीरी हिस्से को नहीं छोड़े जाने पर निष्क्रिय हो गया लेकिन भारत में विलय के बाद राज्य की सत्ता महाराजा ने लोकतान्त्रिक ताकतों के हाथ में देकर अनुच्छेद 370 का पालन किया और शेख अब्दुल्ला को प्रधानमन्त्री के औहदे पर बिठाया।

शेख साहब को जम्मू-कश्मीर राज्य का वजीरे आजम कहा गया और महाराजा हरिसिंह को सदरे रियासत लेकिन विदेशों से सम्बन्ध के मुद्दे पर शेख साहब खास रियायतें भी चाहते थे विशेषकर पाकिस्तान के सन्दर्भ में। इसी बीच 1951 में नेहरू मन्त्रिमंडल के सदस्य हिन्दू महासभा नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने दिसम्बर 1950 में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां और पं. नेहरू के बीच हुए इस समझौते के विरोध में त्यागपत्र दिया था कि दोनों देशों के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए दोनों देश अपने-अपने यहां ‘अल्पसंख्यक आयोग’ बनाकर उनके साथ किसी प्रकार का अन्याय नहीं होने देंगे। डा. मुखर्जी ने पाकिस्तान के इस्लामी देश होने के सन्दर्भ में इस समझौते को तर्कहीन माना और अपनी नई पार्टी जनसंघ बनाने की घोषणा की। तभी जम्मू-कश्मीर में ‘जम्मू प्रजा मंडल’ के नेता के तौर पर पं. प्रेमनाथ डोगरा व बलराज मधोक शेख अब्दुल्ला सरकार के विरुद्ध आन्दोलन चला रहे थे और मांग कर रहे थे कि नई सरकार में जम्मू क्षेत्र की उपेक्षा के साथ ही भारतीय संघ में रियासत के विलय को एकरूपता दी जाए। पं. प्रेमनाथ डोगरा ने इस आन्दोलन में आने का निमन्त्रण डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिया और वह इसमें कूद पड़े तथा उन्होंने कहा कि एक ही देश में दो विधान, दो प्रधान व दो निशान नहीं चलेंगे।

उस समय जम्मू-कश्मीर में प्रवेश के लिए आम हिन्दोस्तानी को परमिट भी लेना पड़ता था। यह आन्दोलन जम्मू की हिन्दू बहुल जनसंख्या में रोष पैदा कर रहा था और उधर शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान के कब्जे में पड़े हुए कश्मीर के लोगों से राब्ता कायम करने की तजवीजें ढूंढ रहे थे मगर इस आंदोलन के चलते शेख अब्दुल्ला ने डा. मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया और स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर 1953 में उनकी मृत्यु हो गई। इससे जम्मू-कश्मीर में भारी साम्प्रदायिक तनाव व्याप्त हो गया। उनकी मृत्यु का दोष शेख अब्दुल्ला को दिया जाने लगा तब पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सरकार को उस ‘कराची षड्यंत्र’ के लिए बर्खास्त कर दिया जिसमें पाकिस्तान से भारी धन आने का इल्जाम लगाया था। केन्द्र सरकार ने तब शेख अब्दुल्ला को नजरबन्द कर दिया था और परमिट की व्यवस्था समाप्त कर दी थी और नई सरकार बख्शी गुलाम मुहम्मद के नेतृत्व में गठित कर दी गई थी जिसे शेख अब्दुल्ला मंत्रिमंडल के सदस्यों का पूरा समर्थन प्राप्त था। सबसे विशेष बात यह थी कि नेहरू जी ने शेख अब्दुल्ला की सरकार को राज्य विधानसभा में बहुमत खोने पर बर्खास्त नहीं किया था बल्कि इस आधार पर बर्खास्त किया था कि उन्होंने अपने मन्त्रिमंडल का विश्वास खो दिया है जिसका सम्बन्ध कराची षड्यंत्र से जोड़ा गया था। (क्रमशः)

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