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रिजर्व बैंक और महंगाई

रिजर्व बैंक द्वारा पिछले तीन महीनों के दौरान तीन बार अन्तर्बैंकिंग ऋणों पर ब्याज दरें बढ़ाने के फैसले से ही स्पष्ट है कि देश में बढ़ती महंगाई का खतरा मुंह बाये खड़ा है।

02:15 AM Aug 07, 2022 IST | Aditya Chopra

रिजर्व बैंक द्वारा पिछले तीन महीनों के दौरान तीन बार अन्तर्बैंकिंग ऋणों पर ब्याज दरें बढ़ाने के फैसले से ही स्पष्ट है कि देश में बढ़ती महंगाई का खतरा मुंह बाये खड़ा है।

रिजर्व बैंक द्वारा पिछले तीन महीनों के दौरान तीन बार अन्तर्बैंकिंग ऋणों पर ब्याज दरें बढ़ाने के फैसले से ही स्पष्ट है कि देश में बढ़ती महंगाई का खतरा मुंह बाये खड़ा है। फिलहाल भारत में थोक मूल्य सूचकांक में 7 प्रतिशत के लगभग की वृद्धि दर्ज है मगर खुदरा स्तर पर पहुंचते-पहुंचते यह 14 प्रतिशत से भी ऊपर तक  हो जाती है जिससे आम जनता की तकलीफें बहुत बढ़ जाती हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकान्त दास को इस हकीकत का एहसास है जिसकी वजह से वह महंगाई का मुकाबला करने के लिए  मौद्रिक मोर्चे पर उपाय कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि वह बाजार में रोकड़ा की उपलब्धता ‘कसना’ और महंगी बनाना चाहते हैं जिससे महंगाई पर लगाम लग सके। रिजर्व बैंक की ब्याज दर बढ़ कर अब 5.4 प्रतिशत हो गई है जिसका सीधा असर व्यावसायिक व वाणिज्यिक बैंकों द्वारा दिये जाने वाले कर्जों की ब्याज दरों पर पड़ेगा अर्थात बैंकों से ऋण लेना अब पहले की अपेक्षा महंगा होगा। बैंक जब स्वयं ही रिजर्व बैंक से 5.4 प्रतिशत की दर से ऋण लेंगे तो आगे  ग्राहकों को भी बढ़ी हुई दरों पर देंगे परन्तु अपने यहां जमा धन पर भी उन्हें ब्याज दर में आनुपातिक वृद्धि करनी होगी। किसी भी बैंक का मुनाफा और घाटा इस बात पर निर्भर करता है कि वह ब्याज की किस दर पर कर्जा देता है और किस दर पर अपने यहां जमा धन पर ब्याज देता है। इसे तकनीकी वित्तीय भाषा में ‘स्प्रेड’ कहा जाता है। इसके बाद बैंक के खर्चे आते हैं जो कर्मचारियों की तनख्वाहों व रख रखाव के होते हैं। ( यहां जड़ सम्पत्तियों अर्थात नान परफार्मिंग एसेट्स का जिक्र नहीं हो रहा है)। अतः बहुत स्पष्ट है कि जब बैंकों से कर्जा महंगा मिलेगा तो बाजार में रोकड़ा की उपलब्धता कम होगी जिसकी वजह से खुले बाजार में माल की आवक बदस्तूर समुचित रहने से उनके दामों में वृद्धि नहीं होगी। मौद्रिक मोर्चे पर महंगाई थामने के उपाय करने का अर्थ यही होता है। लेकिन जब थोक बाजार में किसी वस्तु के भाव में मसलन एक रुपये की वृद्धि होती है तो खुदरा बाजार तक पहुंचते-पहुंचते यह औसतन तीन रुपये तक हो जाती है। जिसकी वजह दुकानदारों का मुनाफा व परिवहन माल ढुलाई आदि का खर्चा होता है। यही वृद्धि सामान्य उपभोक्ता को मार डालती है और वह महंगाई का दर्द महसूस करने लगता है। लेकिन इससे निपटने के उपाय भी सरकार के पास होते हैं जिसे ‘बाजार हस्तक्षेपनीति’ कहा जाता है। इसके तहत सरकार स्वयं बाजार में अपनी विभिन्न विपणन एजेंसियों की मार्फत व्यापारी बन कर उतरती है और सीधे उपभोक्ताओं को सस्ती दरों पर उपभोक्ता सामग्री सुलभ कराती है। परन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में यह नीति प्रायः छूट सी गई है । इसके बहुत से कारण हैं जिनका खुलासा सीमित शब्दों में किया जाना संभव नहीं है। फिलहाल यह मान कर चला जाना चाहिए कि सरकार बाजार में हस्तक्षेप नहीं करेगी और विविध बाजार मूलक उपायों से महंगाई को नियन्त्रित करने का प्रयास करेगी जिनमें से एक उपाय यही है जो रिजर्व बैंक ने किया है। यहां यह बताना आवश्यक है कि नकद फसलों ( कैश क्राप्स) जैसे सब्जी आदि की महंगाई कोई महंगाई नहीं होती है जबकि सबसे ज्यादा रोना इन्हीं का रोया जाता है। इससे भी ज्यादा दुखद यह है कि देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों के छोटे से लेकर बड़े नेता सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए आम जनता का ध्यान भी इन्हीं चीजों की तरफ केन्द्रित करने के प्रयास करते हैं। कैश क्राप्स की कीमत प्रतिदिन सब्जी मंडियों में आने वाली  सब्जी की आवक पर निर्भर करती है जिसका सीधा सम्बन्ध किसान से होता है। किसान के खेत में जितनी उपज होती है वह दैनिक आधार पर मंडी में ले आता है और उस उपज को देखते हुए उस सब्जी या फल के दाम नियत हो जाते हैं। यहां से माल खुदरा बाजार में जाता है और प्रत्येक खुदरा कारोबारी के लाभ के अनुसार उसके दाम बढ़ते जाते हैं। लेकिन असली महंगाई स्थायी उपजों जैसे गेहूं, आटा, चावल, दाल, चीनी, तेल, गुड़ , मसालों, दूध, दही, घी आदि की होती है। उत्तर भारत के गांवों में एक कहावत बहुत प्र​चलित हुआ करती थी कि यदि ‘गेहूं महंगा तो सब महंगा’। मगर यह संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था के दौर की कहानी है। पिछले तीन दशकों में भारत बहुत बदला है और इसकी अर्थव्यवस्था के मूल मानकों में भारी परिवर्तन आया है। सेवा क्षेत्र का हिस्सा सकल विकास उत्पाद में लगातार बढ़ रहा है। औद्योगिक व उत्पादन क्षेत्र का अंश भी बढ़ रहा है। अतः हमें लोहों से लेकर सीमेंट व अन्य धातुओं के साथ औषधि क्षेत्र व घरेलू टिकाई उपकरणों ( बिजली उत्पादों समेत) के उत्पादों की महंगाई की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। इन सभी उत्पादों की कीमत बढ़ने का सीधा असर उपभोक्ता सामग्रियों पर पड़ता है। अर्थात अब अर्थव्यवस्था के समीकरण बदलने लगे हैं। भविष्य में यह चलन और गहरा होगा क्योंकि भारत तरक्की की राह पर चल रहा है और डिजिटल दौर में प्रवेश कर चुका है। अब जाकर हमें अपनी अर्थव्यवस्था के आधारभूत मानकों की तरफ देखना होगा जिनकी वजह से महंगाई पर लगाम कसे जाने की संभावनाएं पैदा होंगी। औद्योगिक उत्पादन से लेकर यदि टिकाऊ घरेलू उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन बढ़ रहा है तो हमें ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं है और यदि सेवा (पर्यटन समेत) क्षेत्र में भी वृद्धि हो रही है तो सोने पर सुहागा। ये दोनों कारक आय में वृद्धि और उसके वितरण के वाहक होते हैं। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर इससे भी समझा जा सकता है। परन्तु गैस सिलेंडर से लेकर पेट्रोल व डीजल के दाम इस बात पर निर्भर करते हैं कि सरकारें इनके मूल दामों में किस हद तक उत्पादन शुल्क या बिक्रीकर ( वैट) के मामले में समझौता करने को तैयार होती हैं। मगर यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकारों की आमदनी अन्य उत्पादनशील मदों से किस हद तक होती है।  पूरा आर्थिक चित्र देखने के बाद यही कहा जा सकता है कि अगले साल के शुरू तक महंगाई का चक्र उल्टा घूमना शुरू हो जाना चाहिए जैसी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर की अपेक्षा है। मगर फिलहाल के लिए कुछ न किया जाये तो बेहतर होगा।
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