राज्यों को राजस्व अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने औद्योगिक शराब पर जो महत्वपूर्ण फैसला दिया है उसे संघीय प्रणाली में राज्यों की बड़ी जीत माना जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने औद्योगिक शराब पर जो महत्वपूर्ण फैसला दिया है उसे संघीय प्रणाली में राज्यों की बड़ी जीत माना जाना चाहिए। 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने 34 साल पुुराने अपने ही सात जजों के फैसले को पलटते हुए कहा है कि राज्यों को औद्योगिक शराब को रेगुलेट करने और कर लगाने का अधिकार है। इस कानून में औद्योगिक और नशीली शराब के उत्पाद दोनों शामिल हैं। संविधान पीठ ने 8-1 से फैसला सुनाते हुए कहा कि शराब पर कानून बनाने का अधिकार राज्य का है और इसे केन्द्र नहीं छीन सकता।
यह मामला 1999 में शुरू हुआ जब उत्तर प्रदेश सरकार ने होलसेल वेंडर्स की ओर से बेची जाने वाली इंडस्ट्रियल शराब पर 50 प्रतिशत एड वेलोरेम फीस लगाने का फैसला किया। इस टैक्स को यह कहकर चुनौती दी गई थी कि राज्य सरकार के पास औद्योगिक शराब पर टैक्स लगाने और नियंत्रित करने का अधिकार नहीं है। वैसे तो यह मामला 1999 का है लेकिन यह एक दुर्लभ स्थिति थी, जब योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली यूपी सरकार ने नरेन्द्र मोदी की अगुुवाई वाली केन्द्र सरकार के खिलाफ दलीलें दीं। राज्य सरकार ने तर्क िदया कि जीएसटी के बाद आैद्योगिक शराब पर टैक्स लगाना राज्यों के लिए आय का एक प्रमुख जरिया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने केन्द्र के इस दावे के खिलाफ तर्क दिया कि केन्द्र को औद्योिगक शराब पर टैक्स लगाने का स्पेशल अधिकार है।
इस मामले में केरल, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्य भी सुप्रीम कोर्ट की शरण में थे। इंडस्ट्रियल अल्कोहल को औद्योगिक शराब कहा जाता है। लिहाजा इसका इस्तेमाल मानव उपभोग के लिए नहीं होता। इसे पीते ही स्वास्थ्य खराब हो सकता है क्योंकि यह जहरीली शराब जैसा काम भी करता है। राज्य सरकारों की दलील थी कि जिस तरह से इसका उपयोग किया जा रहा है उसे देखते हुए राज्य सरकारें चुप नहीं बैठ सकतीं, क्योंकि इसके उपयोग से जहरीली शराब भी बनाई जा रही है और मौतें हो रही हैं। पीठ ने अपने फैसले में इसे नशीली शराब के तौर पर वर्गीकृत कर िदया है। राज्य सरकारों द्वारा कोर्ट का दरवाजा खटखटाए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि देश में जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों के िवत्तीय स्रोत सूख चुके हैं और अब राज्यों के पास घटते राजस्व की भरपाई करने के लिए साधन सीमित हो चुके हैं। कई राज्यों को कर कटौती और आर्थिक चुनौतियों के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जीएसटी 2017 में लागू किया गया था और उस समय यह वादा किया गया था कि राज्य सरकारों को पहले 5 साल के दौरान होने वाली राजस्व हानि के लिए क्षतिपूर्ति प्रदान की जाएगी। राज्यों को मुआवजा देने के लिए फंड जुटाने हेतु जीएसटी की उच्चतम दरों वाले स्तर पर एक मुुआवजा उपकर लगाया गया। सामान्य परिस्थितियों में मुआवजा उपकर 2022 में समाप्त हो जाना चाहिए था।
बहरहाल महामारी के दौरान कर संग्रह पर बुरा असर हुआ और यह निर्णय लिया गया कि राज्यों के राजस्व नुक्सान की भरपाई के लिए उधारी ली जाएगी और उपकर संग्रह की अवधि बढ़ाई जाएगी ताकि इसके लिए जुटाए गए कर्ज तथा उसके ब्याज को चुकता किया जा सके। ऐसे में महामारी के दौरान लिए गए 27 लाख करोड़ रुपये की राशि को चुकता करने के लिए उपकर लिया जा रहा है। अनुमान के मुताबिक जनवरी 2026 तक इसे चुकाने का काम पूरा हो जाएगा। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि भविष्य की दिशा तय की जाए और समय पर जरूरी कानूनी बदलाव पूरे कर लिए जाएं।
राज्य सरकारों ने मुआवजा उपकर को जीएसटी दर में सम्माहित करने का सुझाव रखा है। ऐसा करने से राजस्व संग्रह और करदाताओं पर बोझ दोनों बरकरार रहेंगे। बकाया मुआवजे को लेकर राज्यों और केन्द्र में टकराव बढ़ता जा रहा है। जीएसटी व्यवस्था में अभी भी सुधारों की बहुत जरूरत है। वर्ष 2023-24 में उपकर सहित कुल संग्रह संकल घरेलू उत्पाद के लगभग उतने ही हिस्से के बराबर था जितना जीएसटी के पहले जुटाया जाता था। बिना उपकर के संग्रह में कमी आएगी। आखिर राज्य कब तक उधारी लेकर अपना काम चला सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद औद्योगिक शराब पर राज्य टैक्स लगा सकते हैं जिससे राजस्व का नया स्रोत उपलब्ध होगा आैर उन्हें कुछ राहत मिल सकती है। संघीय प्रणाली में केन्द्र राज्य के अधिकारों को हड़प करने लगेगा तो यह िसस्टम के लिए ही नुक्सानदेह साबित हो सकता है। राज्यों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो इसके लिए और सुधारों की जरूरत है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com