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लोकतन्त्र में श्रीकृष्ण की भूमिका !

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पावन पर्व है। भारत के हर भाग में इसे किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण को ‘योगेश्वर’ भी कहा गया अर्थात लौकिक जीवन की सभी कलाओं में निपुण व्यक्तित्व।

11:58 PM Aug 11, 2020 IST | Aditya Chopra

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पावन पर्व है। भारत के हर भाग में इसे किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण को ‘योगेश्वर’ भी कहा गया अर्थात लौकिक जीवन की सभी कलाओं में निपुण व्यक्तित्व।

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लोकतन्त्र में श्रीकृष्ण की भूमिका
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आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पावन पर्व है। भारत के हर भाग में इसे किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण को ‘योगेश्वर’ भी कहा गया अर्थात लौकिक जीवन की सभी कलाओं में निपुण व्यक्तित्व। इसे विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया है परन्तु सर्वाधिक स्वीकार्य स्वरूप ‘लोकरंजक’ की वह भूमिका है जो श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में ‘सारथी’ रूप में निभाई। महाभारत धर्म-अधर्म से अधिक अधिकार के लिए न्यायसंगत तरीके से व्यावहारिक लड़ाई लड़ने का युद्ध था। अतः श्रीकृष्ण ने सैन्य दृष्टि से कमजोर पांडवों का साथ देना स्वीकार किया किन्तु बिना शस्त्र धारण किये। हिंसा के घनघोर वातावरण के बीच यह ‘अहिंसा’ का उद्घोष था।  श्रीकृष्ण ने अहिंसा का व्रत धारण करके यह भी सिद्ध किया कि यह ‘शक्तिहीन’ नहीं होती। नीति मार्ग इसका सबसे बड़ा शस्त्र होता है जो सामाजिक व्यावहारिकता रण क्षेत्र में खड़े होकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का सन्देश देकर दी।  श्रीकृष्ण ने  न्याय के लिए और अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए उसे अपने उन बन्धु-बांधवों को शत्रु समझने की सीख दी जो अन्याय  के पक्ष अर्थात कौरवों के हित में लड़ रहे थे। यह ‘नीति सूत्र’ था जो हर युग में कारगर रहेगा।
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 खासकर प्रजातन्त्र में नीतियों या सिद्धान्तों की लड़ाई में पारिवारिक सम्बन्धों का कोई महत्व नहीं होता। पति और पत्नी या पिता-पुत्र दो अलग-अलग धुर विरोधी राजनीतिक दलों में हो सकते हैं। एेसे कई उदाहरण स्वतन्त्र भारत में हैं जिनमें सबसे प्रमुख स्व. आचार्य कृपलानी ( प्रजा समाजवादी पार्टी) व उनकी श्रीमती सुचेता कृपलानी (कांग्रेस) व स्व. सोमनाथ चटर्जी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) व उनके पिता प्रोफेसर एन.सी. चटर्जी (हिन्दू महासभा ) का है। वर्तमान में केन्द्रीय मन्त्री जितेन्द्र सिंह ( भाजपा) व उनके सगे छोटे भाई देवेन्द्र सिंह राणा ( नेशनल कान्फ्रेंस) हैं।
भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई में महात्मा गांधी ने जिस तरह हिंसा के लेशमात्र प्रयोग का व्यक्तिगत और सार्वजनिक रूप से निषेध किया उसका सूत्र श्रीकृष्ण की नीति से जाकर ही मिलता है। यह केवल संयोग नहीं है कि बापू के हाथ में गीता रहती थी। यह दुनिया का सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष ग्रन्थ कही जा सकती है जिसमें मूर्ति पूजा का एक बार भी कहीं जिक्र नहीं आया है और यह ईश्वर के कण-कण व्यापी चरित्र का बखान करती है। यह न्याय युद्ध की नीति की बखान करती है और कर्त्तव्य का बोध कराती है। महात्मा गांधी पर गीता का प्रभाव इस कदर था कि उन्होंने 1947 में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण किये जाने के समय स्वयं युद्ध में सेना को भेजने की वकालत की और कहा कि देश पर संकट के समय सैनिकों का धर्म केवल लड़ना ही होता है जिससे शत्रु देश की भूमि पर कब्जा न कर सके, परन्तु वर्तमान में राजनीति में जिस तरह का अंधेरा छा रहा है उसे देख कर यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि नीति और अनीति में क्या फर्क होता है। सिद्धांतों के स्थान पर राजनीतिज्ञों के बीच स्वार्थों का युद्ध चल रहा है। जनता के जनादेश की धज्जियां जब चाहे कुछ राजनीतिज्ञ मिल कर इस तरह उड़ा देते हैं कि स्वयं राजनीति के ही होश उड़ जायें। एेसा ही काम अभी-अभी राजस्थान में होने से रुक गया है।
 श्रीकृष्ण ने गीता में यही उपदेश दिया कि चाहे कितनी भी बाधाएं आयें, कभी भी न्याय और धर्म का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए। इसके लिए अन्तर आत्मा से लेकर आत्मा को अजर अमर बताया गया है। आत्मा तभी अजर-अमर होगी जब व्यक्ति की अन्तर आत्मा सजग व सचेत होगी।  इसका स्थूल स्वरूप हमें पुनर्जन्म की कथा बताता है जबकि सूक्ष्म स्वरूप अन्तर आत्मा की सदैव सजगता व सचेतन की दृष्टि देता है क्योंकि कोई भी गलत या अन्यायपूर्ण कार्य करते हुए अन्तर आत्मा ही आगे बढ़ने से रोकती है। यह सचेतनता मृत्युकाल तक मनुष्य में बनी रहे यही उद्घोष गीता करती है। लोकतन्त्र में श्रीकृष्ण लोक देवता के रूप में पूजे जाने चाहिएं क्योंकि हिन्दुओं के वह एक मात्र देवता हैं जिनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ और उनका पालन पोषण एक पिछड़े समझे जाने वाले परिवार यादव कुल में हुआ। उन्होंने कथित ऊंची जाति के अन्यायपूर्ण लोक व्यवहार को ही तोड़ कर समाज में क्रान्ति की और द्वारका नगरी में अपना राजवंश स्थापित किया।
 जातिवाद का विध्वंस करने की उन्होंने प्रेरणा समूचे समाज को दी। राजकुल की परिभाषा को ही बदल डाला।  इसके साथ यह भी कहा कि जब-जब भी धर्म की हानि या अन्याय का शासन होगा तब-तब न्याय की स्थापना के लिए मैं (न्याय पुरुष) जन्म लूंगा।  यह लोकतान्त्रिक वाणी ही थी जो उस काल में बोली गई थी। कृष्ण आम जनता और पिछड़ों के बीच से खेल-बढ़ कर निकले थे। उनका राजवंश (वासुदेव-देवकी) के साथ रक्त का सम्बन्ध था मगर लोक सम्बन्ध के समक्ष यह सम्बन्ध अर्थहीन हो गया था जिसे उन्होंने अपने सगे मामा कंस का वध करके सत्यापित किया। वस्तुतः यह नीतिगत युद्ध ही था जिसे लोकरंजक रूप में प्रस्तुत किया गया। अतः श्रीकृष्ण के किसी भी युग में और समय में जन्म लेने की मनाही नहीं है। सवाल बस इतना सा है कि इस भारत में कोई दूसरा महात्मा गांधी कब अवतरित होगा?
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