समोसा और जलेबी !
भारत में मोटापा लगातार बढ़ रहा है और एनएफएचएस (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे) के आंकड़ों में बताया गया है कि भारत में 2005-06 से 2019-21 के बीच पुरुषों में मोटापा 15 फीसदी से बढ़कर 24 फीसदी और महिलाओं में 12 फीसदी से बढ़कर करीब 23 फीसदी हो गया है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्कूलों, दफ्तरों और सार्वजनिक संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे कैंटीनों में डिस्प्ले बोर्ड लगाएं जो लोगों को उपलब्ध भोजन में वसा और चीनी की मात्रा के बारे में चेतावनी दें। यानी, समोसे, उनके कुरकुरे, जलेबी, परतदार क्रस्ट और भाप से भरी, मसालेदार फिलिंग के साथ, इस बात से आंका जाएगा कि उनमें कितनी ट्रांस फैट है और चाय जो दोपहर में स्फूर्तिदायक होती है, इस बात से कि उसमें कितनी चीनी है। इसका मकसद यह बताना है कि इन चीजों के नियमित सेवन से सेहत के ऊपर क्या नुक्सानदेह असर पड़ सकते हैं। इस अभियान को सबसे पहले नागपुर के एम्स में शुरू किया जाएगा और फिर देश के अन्य शहरों में लागू किया जाएगा।
इससे दो महीने पहले सीबीएसई ने सभी संबद्ध स्कूलों को निर्देश दिया था कि वे अपने-अपने यहां ‘शुगर बोर्ड’ लगाएं ताकि बच्चों में चीनी सेवन की मात्रा को कम किया जा सके। इन बोर्ड पर यह जानकारी दी जाएगी कि रोजाना कितनी चीनी खाना ठीक है, सामान्य खानों में कितनी चीनी होती है, ज्यादा चीनी खाने से क्या नुक्सान हो सकते हैं और इसके बेहतर विकल्प क्या हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देश के बाद समोसे और जलेबी इतने चर्चित हो गए कि लाखों लोगों ने सोशल मीिडया प्लेटफार्मों पर समोसे और जलेबी का इतिहास खंगाल डाला। समोसा और जलेबी किस देश की उपज है और वह किस-किस देश की यात्रा करके भारत पहुंचा, इस संबंध में रोचक कहानियां भी सामने आ रही हैं। मानवता के इतिहास में भोजन पहले कभी इतना प्रचूर नहीं रहा और फिर भी यह कभी भी अपने और अपने शरीर के बारे में हमारी जटिल भावनाओं के बोझ तले दबा नहीं रहा। हम खुद से कहते हैं कि हम एक और चम्मच आइसक्रीम के "हकदार" नहीं हैं क्योंकि हम उस दिन 10,000 कदम भी नहीं चल पाए।
हम पिज्जा और केक खाकर अपनी डाइट में "धोखा" देते हैं और बेक्ड फिश और स्टीम्ड ब्रोकली के साथ एक चम्मच चावल से ज़्यादा कुछ न खाने पर भी गर्व महसूस करते हैं। भूख अब एक जैविक अनिवार्यता नहीं रही, यह एक हिसाब-किताब है,स्थूल और सूक्ष्म पोषक तत्वों का, "खाली" कैलोरी का, "अच्छे" और "बुरे" वसा का। इस पहल के ज़रिए अब यह जानकारी साफ तौर पर सामने रखी जाएगी ताकि लोग इसे देखने के बाद सोच-समझकर खाएं, ठीक वैसे ही जैसे सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी दी जाती है। हालांकि, अगर सख्त कानून और जरूरी नीतियां लागू न हों तो सिर्फ जागरूकता फैलाने से आदतें नहीं बदलतीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 फरवरी को मन की बात के 119वें एपिसोड में हेल्थ का जिक्र करते हुए कहा था कि एक फिट और स्वस्थ भारत बनने के लिए हमें ओबेसिटी (मोटापा) की समस्या से निपटना ही होगा।
पीएम ने कहा था कि एक स्टडी के मुताबिक आज हर आठ में से एक व्यक्ति मोटापे की समस्या से परेशान है। बीते सालों में मोटापे के मामले दोगुने हो गए हैं लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि बच्चों में भी मोटापे की समस्या चार गुना बढ़ गई है। हाल ही में मोटापे की समस्या पर एक रिपोर्ट सामने आई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2050 तक 44 करोड़ से अधिक भारतीय मोटापे का शिकार होंगे। यह आंकड़ा डरावना है। इसका मतलब है कि मोटापे के कारण हर तीन में से एक व्यक्ति गंभीर बीमारी से पीड़ित हो सकता है। मोटापा घातक हो सकता है। हर परिवार में एक व्यक्ति मोटापे का शिकार होगा। यह बड़ा संकट होगा। हमारी खानपान-प्रेमी, मोटापे को लेकर शर्मसार करने वाली भूख को दोषी ठहराने वाली संस्कृति में। यह इस तथ्य में निहित है कि अब हमें खाना इस आधार पर नहीं बेचा जाता कि उसमें क्या है, बल्कि इस आधार पर बेचा जाता है कि उसमें क्या नहीं है।
हम उस युग में हैं, जैसा कि मीम में कहा गया है, "बेहद आसान, दो सामग्री वाला, कम कैलोरी वाला, बिना बेक किया हुआ, बिना फ्रिज में रखे, बिना मैदा, बिना चीनी, बिना ग्लूटेन, बिना अंडे, बिना कार्बोहाइड्रेट, बिना चर्बी,बिना बीन्स, बिना साग, बिना टमाटर, बिना मेमने, बिना मेढ़े, बिना सूअर, बिना कुत्ते, बिना चिकन, बिना टर्की, बिना खरगोश, आप जो भी नाम लें, उच्च प्रोटीन वाला पीनट बटर, केला, ओट बार।" खाने के साथ एक ऐसा रिश्ता जो इतना टूट चुका है कि उसे ठीक करने से ज़्यादा मज़ाक उड़ाना आसान है। क्या स्वादिष्ट चीज़ों पर प्रतिबंध लगाना ही यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका हो सकता है कि हम स्वस्थ भोजन करें? सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकारें आम आदमी की खान-पान की आदतों को ऐसे निर्देश देकर बदल सकती हैं? सवाल यह भी है कि आप क्या खाएंगे और क्या पीयेंगे सरकारें तय करेंगी? देश भर में स्ट्रीट फूड के नाम पर क्या बिक रहा है इसे देखने वाला कोई नहीं है। हर सड़क, हर गली-चौराहे पर बिकने वाले जंक फूड की गुणवत्ता और पौष्टिकता को लेकर कभी किसी ने सवाल नहीं खड़ा किया।
सड़कों-चौराहों पर बिकने वाली हर चीज की शुद्धता को लेकर भी पाबंदियां तो हैं लेकिन उन्हें लागू कौन करता है। लोगों के जीवन से खुलेआम खिलवाड़ हो रहा है, इसकी किसी को चिंता नहीं। हैरानी की बात है कि जहां स्वास्थ्य मंत्रालय ने भारतीय नाश्तों को निशाना बनाया है, वहीं बंद पैकेट या डिब्बों वाले खानों पर साफ चेतावनी वाले लेबल लगाने या बच्चों को गैर-सेहतमंद खाने के प्रति आकर्षित करने वाले विज्ञापनों, प्रचारों और ब्रांडिंग से बचाने के लिए वर्षों से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। दूसरे देशों की तरह अगर भारत में भी ज्यादा तेल, चीनी और नमक वाले खाद्य उत्पादों (एचएफएसएस) पर अतिरिक्त टैक्स लगाया जाए तो उनके सेवन में कमी लाई जा सकती है।
सन् 2017-22 की राष्ट्रीय गैर-संक्रामक रोगों की रोकथाम और नियंत्रण की कार्ययोजना में यह तय किया गया था कि एफएसएसएआई के नियमों में बदलाव कर पैकेट के सामने वाले हिस्से में स्पष्ट चेतावनी और पोषण से जुड़ी विस्तृत जानकारी देना अनिवार्य किया जाए।
वर्ष 2020 में एफएसएसएआई ने अपने पैकेजिंग और लेबलिंग नियमों में कुछ बदलाव तो किए लेकिन अब तक ये नियम पूरी तरह लागू नहीं हुए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एफएसएसएआई को दोबारा निर्देश दिया है कि वह बंद पैकेट और डिब्बों वाले खाने पर चेतावनी से जुड़ा यह लेबल लगाना अनिवार्य करे। जरूरी कानूनी उपायों को लागू किए बिना, सेहत के लिए हानिकारक खाद्य उत्पादों की खपत पर नकेल कसने के लिए सिर्फ जानकारी देना और जागरूकता फैलाना असरदार साबित नहीं हो सकता। वरना ये कोशिशें सिर्फ दिखावटी बनकर रह जाएंगी।