समोसा-जलेबी और स्वास्थ्य की चिंता
जिस देश में कुरकुरे समोसे और चाशनी में डूबी जलेबी मॉनसून की बारिश और क्रिकेट के जुनून की तरह हमारे जीवन का हिस्सा हों, वहां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने देश की स्ट्रीट फूड संस्कृति पर जैसे ग्रेनेड से हमला किया है। स्वास्थ्य सजगता के नाम पर मंत्रालय के एक दिशा निर्देश ने, जिसमें हमारे पसंदीदा नाश्ते की परंपरा को खत्म कर देने की धमकी है, देश को गुस्से, व्यंग्य और प्रतिरोध से भर दिया है। पिछले महीने केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव ने एक चिट्ठी के जरिये तूफान खड़ा कर दिया, जिसमें सभी मंत्रालयों और विभागों से अनुरोध किया गया कि वे कैफेटेरिया और सार्वजनिक गलियारों में ‘ऑयल और शुगर बोर्ड’ लगाएं, जिनमें समोसे, जलेबी, वड़ा पाव, कचौरी, यहां तक कि पिज्जा और बर्गर में भी छिपी हुई वसा और चीनी की मात्रा के बारे में बताया गया हो। बाद में हालांकि मंत्रालय ने सफाई दी कि उसका इरादा किसी खाद्य उत्पाद को निशाना बनाने का नहीं था, लेकिन जो नुकसान होना था, वह हो चुका था।
बताया गया कि देश में बढ़ रहे मोटापे और गैरसंचारी बीमारियों के कारण यह दिशा निर्देश जारी किया गया। ‘द लांसेट’ जैसी प्रतिष्ठित चिकित्सा विज्ञान पत्रिका का आकलन है कि 2050 तक भारत में ज्यादा वजन वाले लोगों का आंकड़ा बढ़कर 44.9 करोड़ हो जायेगा, पर अस्पष्ट तथा स्वास्थ्य के पश्चिमी नजरिये पर आधारित इस दिशा निर्देश का उलटा असर हुआ और सांस्कृतिक विरासत पर नौकरशाही के दखल की बहस शुरू हो गयी, समोसे और जलेबी को निशाना बनाने की कोशिश क्यों?
जब अल्ट्रा-प्रोसेस्ड यानी औद्योगिक प्रक्रियाओं से गुजरे चिप्स, कोला और कुकीज जैसे स्वास्थ्य के असली दुश्मन हर सुपर मार्केट में मौजूद हैं, तब समोसे और जलेबी को निशाना बनाने की कोशिश क्यों? दिशा निर्देश में तेल और चीनी के अत्यधिक इस्तेमाल वाले और भी खाद्य पदार्थों का जिक्र है, जैसे-पकौड़े, गुलाब जामुन, केले के चिप्स आदि। इन सबको इनके पश्चिमी समकक्षों की तरह खलनायक बताया गया है, लेकिन भारतीय खाद्य पदार्थों को सिर्फ कैलोरी के आईने में नहीं आंका जा सकता. दाल और घी में सेंकी गयी बाटियों वाले मशहूर राजस्थानी व्यंजन दाल-बाटी चूरमा, लूची (पूड़ी)-आलूर दम (दम आलू), रसगुल्ले और संदेश जैसे बंगाली व्यंजन या मुगलई बिरयानी और कोरमा हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं। ये भारत की पहचान के प्रतीक हैं और इनमें से हर व्यंजन में हमारे स्वास्थ्य की बेहतरी के गुण पाये जाते हैं-हल्दी और जीरा जैसे मसाले हमारी पाचन क्षमता बढ़ाते हैं, तो समूह भोज के आयोजन हमें मानसिक रूप से स्वस्थ और समृद्ध करते हैं। इन व्यंजनों पर चेतावनी जारी करना सदियों पुरानी ज्ञान परंपरा पर आघात और भारतीय भोजन की समृद्ध विरासत को मिटाने जैसा है।
हमारे यहां से पहले दूसरे देशों में ऐसे ही दिशा निर्देश जारी किये गये। बढ़ते मोटापे को देखते हुए मेक्सिको में सोडा और चिप्स जैसे हाई शुगर, हाई फैट उत्पादों पर 2020 से ही चेतावनी जारी करना अनिवार्य कर दिया गया है। ब्रिटेन अधिक चीनी वाले पेय पदार्थों पर टैक्स अधिक लगाने के बारे में सोच रहा है, तो सिंगापुर में हेल्थ प्रमोशन बोर्ड अपने नागरिकों को तेल में डूबे फ्राइड नूडल से दूर रहने की हिदायत देता है। विदेशों में जारी इन चेतावनियों में एक बात समान है। इन सबमें सोडा, फ्राई, डोनट्स जैसे प्रसंस्कृत उत्पादों को निशाना बनाया गया है. ये सब खूबसूरत पैकेजिंग में कॉरपोरेट दिग्गजों द्वारा बेचे जाते हैं, लेकिन भारत में स्ट्रीट फूड्स को निशाना बनाता स्वास्थ्य मंत्रालय का दिशानिर्देश धोखे जैसा लगता है-मानो सड़क किनारे के दुकानदार द्वारा खूबसूरती से लपेटे गये समोसे बिग मैक (मैक्डोनाल्ड के हैम्बर्गर) जितने नुकसानदेह हों। बर्गर (471 ग्राम के पिज्जा में 1377 कैलोरी), फ्रेंच फ्राई (117 ग्राम में 342 कैलोरी) और चॉकलेट पेस्ट्री (गुलाब जामुन के बराबर वजन की पेस्ट्री में 32 ग्राम चीनी) कोई कम नुकसानदेह नहीं हैं, लेकिन इन्हें निशाना नहीं बनाया गया है, क्यों? शायद इसलिए कि करी, डोसा, इडली, परांठा और बिरयानी जैसे भारतीय व्यंजनों ने लंदन के करी हाउस से न्यूयॉर्क के डोसे की दुकानों तक में अपनी प्रसिद्धि का झंडा लहराया है और वहां किसी को इससे परेशानी नहीं है।
सोशल मीडिया पर व्यंग्यात्मक प्रतिक्रियाओं की बाढ़
स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशा निर्देश पर सोशल मीडिया पर व्यंग्यात्मक प्रतिक्रियाएं देखने लायक हैं, एक्स पर एक ने लिखा, ‘भारत में समोसे और जलेबी पर सिगरेट जैसा हेल्थ अलर्ट जारी किया गया’ दूसरे व्यक्ति ने इससे जुड़ी विडंबना को व्यक्त करते हुए लिखा, ‘समोसे और जलेबी पश्चिमी दुनिया में लोकप्रिय हो रहे हैं, लेकिन अपने घर में इन्हें निशाना बनाया जा रहा है।’ एक और टिप्पणी है, ‘समोसा और जलेबी आप बेहतर स्वास्थ्य के लिए नहीं खाते, इनका सेवन आनंद की प्राप्ति के लिए करते हैं,’ समोसा और जलेबी केवल खाद्य पदार्थ नहीं हैं ये दिवाली की शाम के आनंद हैं, ईद की मिठास हैं, बरसाती दिनों में चाय के साथ की गर्माहट हैं, इन्हें निशाना बनाना भारत की आत्मा को निशाना बनाना है।
एम्स, नागपुर से निर्देशित सरकारी दिशा निर्देश में कैलोरी को महत्व देने के पश्चिमी विमर्श की बू आती है, जबकि इसमें तले हुए और मसालेदार भारतीय व्यंजनों के महत्व की अनदेखी की गयी है। एक विशेषज्ञ ने इंस्टाग्राम पर इस दिशा निर्देश की धज्जियां उड़ाते हुए ठीक ही लिखा, ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स हमारे स्वास्थ्य के असल दुश्मन हैं’ समोसा और जलेबी ने आपका क्या बिगाड़ा है?’ सांस्कृतिक विरासत और कॉरपोरेट कंपनियों के जंक फूड्स में फर्क न कर पाने की स्वास्थ्य मंत्रालय की विफलता बताती है कि विदेश में पढ़े-लिखे हमारे सरकारी बाबुओं को सामान्य भारतीयों के जीवन की जानकारी नहीं है। तब यह दिशा निर्देश और भी निराश करता है, जब हम पाते हैं कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर भारतीयों का प्रदर्शन संतोषजनक है।
भारतीयों की जीवन प्रत्याशा वर्ष 2000 के 63.7 साल से बढ़कर 2024 में 76 वर्ष हो गयी, इसकी तुलना नाइजीरिया ( 54.7 वर्ष) और अमेरिका ( 77.5 वर्ष) से करें, जहां मोटापा और नशीले दवाओं का बढ़ता चलन संकट का रूप ले चुके हैं, भारत में लोग योग को ज्यादा महत्व दे रहे हैं और घर के खाने को तरजीह देते हैं। स्वास्थ्य के प्रति भारतीयों की इस समर्पण भावना के पीछे सरकारी पहल कम और लोगों, समाजों की सजगता ज्यादा है, इस देश के लोग जानते हैं कि कब जलेबी का मजा लेना है और कब मिल-जुलकर समोसे खाने हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशा निर्देश ने सजगता पैदा करने की जगह भ्रम ही ज्यादा फैलाया है। चेतावनी बोर्ड लगाने के बजाय अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड्स पर अंकुश लगाना तथा लोगों को शांति से अपने पारंपरिक खाद्य पदार्थों का आनंद लेने देना अधिक जरूरी है।