ऑटोइम्यून बीमारियों की जड़ तक पहुंचा विज्ञान
मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार शुरू करने का मुख्य उद्देश्य उन व्यक्तियों को सम्मानित करना है, जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में मानव जीवन को बेहतर बनाने और बीमारियों से लड़ने में मदद की है। इसी कड़ी में मैरी ई. ब्रंको, फ्रेड राम्सडेल और डॉ. शिमोन साकागुची को पेरीफेरल इम्युनिटी से संबंधित अपनी खोजों के लिए 2025 के लिए मेडिसिन क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। सोमवार को इसकी घोषणा की गई है। तीनों को 11 मिलियन स्वीडिश क्रोनर यानी लगभग 1.2 मिलियन डॉलर की इनामी राशि दी जाएगी। 64 वर्षीय ब्रंको सिएटल में इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी में वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक हैं। वहीं 64 वर्षीय रामसडेल सैन फ्रांसिस्को में सोनोमा बायोथेरेप्यूटिक्स के लिए एक वैज्ञानिक सलाहकार हैं। इसके अलावा 74 वर्षीय साकागुची, जापान के ओसाका विश्वविद्यालय में इम्यूनोलॉजी फ्रंटियर रिसर्च सेंटर में एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं।
क्या कभी आपने सोचा है कि हमारा शरीर दुश्मनों (कीटाणुओं और रोगाणुओं) से लड़ते हुए ग़लती से अपनों (शरीर के अंगों) पर हमला क्यों नहीं कर देता? इसे ही इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा प्रणाली) का संतुलन कहते हैं और इस महत्वपूर्ण पहेली को सुलझाने के लिए, इस साल 2025 का चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार एक अमेरिकी-जापानी तिकड़ी को दिया गया है।
समाधान: इन तीनों वैज्ञानिकों ने रेगुलेटरी टी सेल्स नामक कोशिकाओं की खोज की। ये कोशिकाएं 'ट्रैफिक पुलिस' की तरह काम करती हैं, जो हमारी हमलावर इम्यून कोशिकाओं को रोकती हैं और उन्हें अपने ही शरीर पर हमला करने से मना करती हैं। यह संतुलन बनाए रखने की प्रक्रिया ही पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस कहलाती है। यह शोध बताता है कि शरीर अपने आप को कैसे नियंत्रित करता है ताकि वह माइक्रोब्स से भी लड़ सके और ऑटोइम्यून बीमारियों से भी बचा रहे। यह खोज केवल अकादमिक नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाला है। इस कार्य का अधिकांश भाग 1980 और 1990 के दशक में किया गया था और इन खोजों का प्रभाव स्व-प्रतिरक्षा रोगों, कैंसर और अंग प्रत्यारोपण के उपचार पर पहले से ही पड़ रहा है।
प्रतिरक्षा प्रणाली, बैक्टीरिया और वायरस जैसे रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं को निष्क्रिय करके शरीर की बीमारियों से रक्षा करती है। इस प्रक्रिया की कुंजी प्रतिरक्षा प्रणाली की क्षमता है-विशेष रूप से एक विशेष प्रकार की श्वेत रक्त कोशिकाएं, जिन्हें टी-कोशिकाएं कहा जाता है-रोगजनक और मेजबान शरीर की कोशिकाओं के बीच अंतर करने की क्षमता। जब यह ठीक से नहीं होता तो यह स्व-प्रतिरक्षी रोगों का कारण बनता है, जिसमें टी-कोशिकाएं शरीर की अपनी कोशिकाओं को नुक्सान पहुंचाना शुरू कर देती हैं। एक स्वस्थ शरीर में ऐसा क्यों नहीं होता, यह नोबेल पुरस्कार विजेताओं को पता चल पाया। टी-कोशिकाओं को अपने दृष्टिकोण में चयनात्मक होने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, लेकिन यह प्रशिक्षण पूर्ण नहीं है। साकागुची ने टी-कोशिकाओं के एक विशेष समूह की पहचान की, जिन्हें नियामक टी-कोशिकाएं या टी-रेग कहा जाता है, जो अन्य टी-कोशिकाओं की गतिविधि को दबा देती हैं। यदि उनमें शरीर के अपने ऊतकों पर हमला करने की प्रवृित होती है। ब्रुनको और रामस्डेल ने बाद में उस जीन की खोज की जो कुछ टी-कोशिकाओं को टी-रेग के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाता है। साथ मिलकर वे प्रतिरक्षा प्रणाली की पूरी तस्वीर पेश करते हैं। मैरी ब्रंको और फ्रेड राम्सडेल ने 2001 में दूसरा बड़ा रिसर्च किया। उन्होंने यह पता लगाया कि एक खास चूहे की नस्ल ऑटोइम्यून रोगों के लिए विशेष रूप से संवेदनशील क्यों थी।
उन्होंने पाया कि इन चूहों में फॉक्सपी3 नामक जीन में म्यूटेशन था। इसके अलावा, उन्होंने दिखाया कि इसी जीन में इंसानों में म्यूटेशन होने पर गंभीर ऑटोइम्यून रोग आईपीईएक्स होता है। दो साल बाद, साकागुची ने इन रिसर्च में यह भी जोड़ा कि फॉक्सपी3 जीन उन सेल्स के विकास को कंट्रोल करता है, जिन्हें उन्होंने 1995 में पहचाना था। ये सेल्स, जिन्हें अब रेगुलेटरी टी-सेल्स कहा जाता है, दूसरे इम्यून सेल्स की निगरानी करती हैं और तय करती हैं कि हमारा इम्यून सिस्टम अपने ही ऊतकों को नुक्सान न पहुंचाए। दरअसल, हमारा इम्यून सिस्टम हर दिन हजारों-लाखों सूक्ष्मजीवों से हमारी रक्षा करता है। ये सभी सूक्ष्मजीव अलग-अलग दिखते हैं। कई ने तो अपने आप को मानव कोशिकाओं जैसा दिखाने की क्षमता विकसित कर ली है जिससे इम्यून सिस्टम को यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि हमला किस पर करना है और किसकी रक्षा
करनी है।
वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि ‘टी-रेग’ की गतिविधि को नियंत्रित करने से यह प्रक्रिया सुचारू हो सकती है। कैंसर में, कभी-कभी विपरीत प्रक्रिया होती है। कैंसरग्रस्त कोशिकाएं बहुत अधिक ‘टी-रेग’ को आकर्षित करती हैं, जिससे सामान्य टी-कोशिकाएं, जिन्हें आदर्श रूप से कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को मारना चाहिए था, अप्रभावी हो जाती हैं। इसके अलावा इन खोजों की मदद से ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन (अंग प्रत्यारोपण) में भी मदद मिल रही है। इसके अलावा कई इलाज अब क्लीनिकल ट्रायल के दौर से गुजर रहे हैं।
मेडिसिन के क्षेत्र में भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना को नोबेल मिल चुका है । उन्हें 1968 में यह सम्मान मिला था। उन्होंने जेनेटिक कोड से जुड़ी खोज की थी, जो यह बताती है कि हमारे शरीर में प्रोटीन कैसे बनते हैं। इस खोज ने चिकित्सा की दुनिया को बदल दिया और कैंसर, दवाओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग में मदद की। उनकी खोज ने समझाया कि डीएनए कैसे प्रोटीन बनाता है, जो शरीर के लिए जरूरी है। इसने नई दवाएं और बीमारियों के इलाज का रास्ता खोला। भारत से जुड़े 12 लोग नोबेल जीत चुके हैं लेकिन मेडिसिन में सिर्फ हरगोबिन्द खुराना को यह अवॉर्ड मिला है। इसके बाद मेडिसिन के क्षेत्र में किसी भारतीय को नोबेल नहीं िमला। इसके पीछे मुख्य कारण है कि देश के विश्वविद्यालयों में शोध और अनुसंधान की क्षमताएं लगातार कमजोर हो रही हैं। इसको देखते हुए भारत सरकार को अनुसंधान एवं विकास व्यय का बजट बढ़ाना होगा। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक अनुसंधान में नवाचार को बढ़ावा देकर एक मजबूत इको-सिस्टम और पर्याप्त धन आवंटन करने के साथ-साथ निजि कम्पनियों को अनुसंधान एवं विकास के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।