शशि थरूर और अच्छा-बुरा हिन्दू
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उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारत में जिस तरह धार्मिक मुद्दों का बोलबाला हो रहा है और इन पर गर्मागर्म बहसें हो रही हैं उससे यह आभास हो रहा है कि देश में जैसे इन समस्याओं के अलावा और कुछ नहीं है तथा आर्थिक व सामाजिक मोर्चे पर किसी प्रकार का मसला ही नहीं है। इसके बीच एक नए कथित आन्दोलन ‘मी टू’ ने महिला अधिकारों के नाम पर जो विवाद खड़ा किया हुआ है उससे भारत के हर कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न की त्रासदी का अहसास हो रहा है। यह स्थिति तब है जब इस देश में बिना विवाह किए ही ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के लिए भी समानान्तर अभियान सा चला हुआ है। यह पूरी तरह विरोधाभासी स्थिति है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि आधुनिकता की स्पर्धा में व्यक्तिगत सम्बन्धों की पहचान भी भौतिक परिस्थितियों के सापेक्ष बदलती रहती है। इसे हम बाजार की अर्थव्यवस्था के उस असर के रूप में देख सकते हैं जिसमें हर स्तर पर प्रतियोगी माहौल के मद्देनजर व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मोल-भाव होने की संभावनाएं मौजूद रहती हैं।
अतः पूरे ‘मी टू’ अभियान का निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि इसका सम्बन्ध व्यक्ति की उस निजता से है जिससे वह अपने चुने हुए उचित समय पर निजात पाना चाहता है मगर जिस तरह देश में धार्मिक मुद्दों को केन्द्र में रखकर राजनीति की बिसात बिछाई जा रही है वह हमारे महान लोकतन्त्र के लिए किसी भी रूप में शुभ संकेत नहीं हो सकती। कांग्रेस पार्टी के भीतर इसके नेता ‘महामहोपाध्याय’ श्री शशि थरूर एेसे व्यक्ति कहे जा सकते हैं जिनका इस पार्टी की मूल विचारधारा से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ आज की कांग्रेस पार्टी भी जिस तरह शशि थरूर को अपने कंधे पर उठाये घूम रही है, उस पर भी आश्चर्य है। श्री थरूर पर अपनी ही पत्नी सुनन्दा पुष्कर की ‘अप्राकृतिक मृत्यु’ पर संदेह की अंगुली उठी हुई है और इस सिलसिले में अदालती प्रक्रिया भी जारी है।
आश्चर्य यह भी है कि जब कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता मान्यवर आरपीएन सिंह केन्द्रीय राज्यमन्त्री एम.जे. अकबर पर कुछ पुरानी सहयोगी महिला पत्रकारों द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए जाने पर इस्तीफा मांग सकते हैं और यहां तक कह सकते हैं कि उनके बचाव में क्या प्रधानमन्त्री का हाथ भी शामिल है तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि शशि थरूर के सिर पर किसका हाथ है जो उन्हें बाकायदा कांग्रेस पार्टी में रखे हुए हैं ? क्या नैतिकता केवल सत्तारूढ़ पार्टी के लिए ही होती है? लोकतन्त्र में नैतिकता राजनीति के लिए होती है क्योंकि यह लोकलज्जा से चलती है। अतः शशि थरूर का बाइज्जत तरीके से कांग्रेस पार्टी में रहना और इसके प्रवक्ता के रूप में अपने गढ़े हुए विचारों के अनुरूप बयान देना बताता है कि उन्हें अपनी विश्वसनीयता के बारे में किसी का डर नहीं है। वह स्वयं को पार्टी से भी ऊपर समझते हैं और सोचते हैं कि वे जो कहेंगे पार्टी को उसका ही समर्थन करना होगा। अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के बारे में उन्होंने यह बयान देकर कि कोई भी अच्छा हिन्दू उस स्थान पर मन्दिर नहीं बनाना चाहेगा जहां पहले कभी किसी दूसरे धर्म की इमारत थी, साफ कर दिया है कि उनके लिए इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे मुकद्दमे का कोई महत्व नहीं है।
थरूर के पास एेसा कौन सा पैमाना आ गया है कि वह किसी भी व्यक्ति के अच्छे और बुरे हिन्दू होने को नाप सकें? राम जन्मभूमि विवाद के सर्वोच्च न्यायालय में होने का सीधा मतलब है कि इस सम्बन्ध में जो भी फैसला आएगा वह देश के हर व्यक्ति को मान्य हाेगा। इसमें अच्छे और बुरे हिन्दू होने अथवा अच्छे या बुरे मुसलमान होने का सवाल कहां से आ जाता है? परन्तु यह काम कांग्रेस पार्टी का है कि वह एेसे लोगों के राजनीति में रहने के उद्देश्य के बारे में पता करे क्योंकि वह कभी ‘हिन्दू पाकिस्तान’ का शगूफा बिना इसके जमीनी व्याकरण को समझे छेड़ देते हैं तो कभी हवाई जहाज की यात्रा करने वाले सामान्य यात्रियों को कैटल क्लास (जानवरों का बाड़ा) कह देते हैं। इसके साथ ही खुद शशि थरूर के राज्य केरल में ही जिस प्रकार ‘सबरीमाला’ देवस्थान में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सड़कों पर आन्दोलन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध हो रहा है वह भी कम विस्मयकारी नहीं है।
न्यायालय ने फैसला दिया था कि इस देवस्थान के द्वार सभी आयु की महिलाओं के लिए खोल दिए जाने चाहिएं परन्तु धार्मिक रूढि़वादी और पुरातनपंथी तत्वों को यह फैसला पसन्द नहीं आया और वे इसके खिलाफ महिलाओं को आगे रखकर आन्दोलन पर उतारू हैं और सरेआम कह रहे हैं कि धार्मिक व्यवस्था के नियमों के विरुद्ध यदि कोई महिला मन्दिर में प्रवेश करती है तो उसे बीच से दो हिस्सों में चीर दिया जाना चाहिए। वास्तव में इस प्रकार का आन्दोलन केरल के चरित्र के पूरी तरह उलट है। यह आंदोलन तब हो रहा है जबकि केरल बाढ़ और अतिवृष्टि की विभीषिका से बुरी तरह इस तरह जूझ रहा है कि इसके पुनर्निर्माण के लिए भारी आर्थिक स्रोतों को अभी तक जुटाने में सफलता नहीं मिल पाई है। यह राज्य उन ‘श्री नारायण गुरु’ की कार्यस्थली है जिन्होंने पिछड़े वर्ग के लोगों को पुरोहितों का काम करने में समर्थ किया था। ये सब विरोधाभास बताते हैं कि हम एेसे ‘इन्द्रजाल’ में प्रवेश करते जा रहे हैं जिसमें केवल ‘मायाजाल’ के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता।