पीएम बनते-बनते रह गये थे ‘शिवराज पाटिल’
भारत के लोगों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए था यदि 2004 के लोकसभा चुनावों के बाद देश के प्रधानमन्त्री स्व. शिवराज पाटिल बन जाते। श्री पाटिल का आज 12 दिसम्बर को उनके पैतृक स्थान लातूर (महाराष्ट्र) में 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन पर देश के अधिसंख्य लोग शोक संतप्त हैं। श्री पाटिल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे मगर राजनीति में विवादास्पद व्यक्तित्व भी रहे थे। 2004 के लोकसभा चुनावों में स्व. पाटिल लातूर लोकसभा सीट से चुनाव हार गये थे। यदि वह चुनाव न हारते तो प्रधानमन्त्री पद पर उनके आसीन होने की 90 प्रतिशत संभावना थी। इसकी वजह यह थी कि वह तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की पहली पसन्द माने जाते थे। उनके चुनाव हार जाने पर उनके प्रधानमन्त्री बनने की सभी संभावनाओं पर पानी फिर गया, मगर इसके बावजूद वह देश के गृहमन्त्री बनाये गये जो कि देश का दूसरे नम्बर का सरकारी पद समझा जाता है।
श्री पाटिल हिन्दुत्व व धर्म निरपेक्षता में आपसी सांमजस्य स्थापित कर चलने वाले नेता माने जाते थे। 2004 के लोकसभा चुनावों के परिणाम आने से पहले ही लगभग यह तय माना जा रहा था कि इन चुनावों में भाजपा नीत सत्तारूढ़ एनडीए को बहुमत नहीं मिलेगा। (हालांकि इस बारे में देश का अधिकांश मीडिया उल्टी खबरें दे रहा था और चुनावों में एनडीए को स्पष्ट बहुमत दे रहा था, परन्तु उस समय दिल्ली से प्रकाशित होने वाला पंजाब केसरी एकमात्र अखबार था जो डंके की चोट पर एनडीए के हारने का कयास लगा रहा था) चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस पार्टी लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और सरकार बनाने की जिम्मेदारी इस पर ही आ पड़ी, मगर चुनाव परिणाम आने से पहले ही कांग्रेस की आन्तरिक बैठकों में भावी प्रधानमन्त्री के पद पर संभावित नेताओं के नामों की चर्चा चल रही थी। इनमें राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता डा. मनमोहन सिंह व श्री शिवराज पाटिल के नाम मुख्य थे। श्री शिवराज पाटिल के पक्ष में सबसे बड़ा तथ्य यह जा रहा था कि वह लगातार सात बार से लातूर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर आ रहे हैं और परंपरा के अनुसार लोकसभा का सदस्य ही प्रधानमन्त्री बनता है। उनका व्यक्तित्व बहुत समावेशी समझा जाता था, जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की क्षमता थी। सरकार चूंकि कांग्रेस के अलावा अन्य सहधर्मी सहयोगी दलों के सहयोग से बननी थी तो उनकी राय भी मायने रखती थी। श्री पाटिल के नाम पर अन्य सहयोगी दलों को भी कोई खास एतराज नहीं था, मगर सहयोगी दल डा. मनमोहन सिंह के नाम पर अधिक उत्सुक दिखाई दिए। इसकी वजह यह मानी गई कि डा. मनमोहन सिंह बड़ा नाम था और उनके साथ अर्थशास्त्री का तगमा जुड़ा हुआ था, लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो श्री पाटिल पहली बार लातूर से ही चुनाव हार गये। इस प्रकार उनका नाम दाैड़ से बाहर हो गया, परन्तु श्रीमती गांधी चाहती थीं कि श्री पाटिल को सरकार में कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जाये अतः उन्हें गृह मन्त्रालय दिया गया। हालांकि कांग्रेस के इस फैसले की तब मीडिया में आलोचना भी बहुत हुई। श्री पाटिल से मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध थे। न कि आलोचना करने वालों में मैं भी था, मगर उन्होंने हमेशा मुझसे हंसकर ही कहा कि पत्रकारिता धर्म का पालन करना कोई गलत काम नहीं है।
श्री पाटिल संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे, परन्तु वह संविधान के अनुसार मन्त्री बन सकते थे बशर्ते वह छह महीने के भीतर किसी भी सदन के सदस्य बन जाते। अतः इस अवधि के दौरान वह राज्यसभा के सदस्य बना दिये गये। जब मनमोहन सरकार का गठन हो रहा था तो भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी का नाम भी एेसा था, जो प्रधानमन्त्री पद के योग्य समझा जा रहा था, परन्तु पहले तो कांग्रेस आलाकमान का उनके नाम पर कोई जोर नहीं था और दूसरे कांग्रेस के सहयोगी दलों में भी उनके नाम पर डर का भाव था। इसका कारण यह था कि प्रणवदा बहुत सिद्धान्तवादी व सख्त नेता समझे जाते थे। सहयोगी दलों के सामने जब डा. मनमोहन सिंह का नाम आया तो सभी सहर्ष राजी हो गये। सहयोगी दलों को श्री शिवराज पाटिल को गृहमन्त्री बनाये जाने पर भी कोई एतराज नहीं था। उन्हें तब अपने-अपने मन्त्रालयों की पड़ी थी। राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री लालू प्रसाद यादव रेल मन्त्रालय लेने की जिद पर अड़ गये थे, जबकि लोक जनशक्ति पार्टी के नेता स्व. राम विलास पासवान भी यही मन्त्रालय चाहते थे। इन दोनों के बीच बाद में समझौता प्रणव दा ने ही कराया। श्रीमती सोनिया गांधी के निजी सचिव श्री विंसेट जार्ज ने सरकार बनने से पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि श्रीमती गांधी प्रधानमन्त्री नहीं बनेंगी। यह बात उन्होंने बहुत करीने से उस समय के चुनिंदा पत्रकारों को बता दी थी और कहा था कि प्रधानमन्त्री पद के लिए केवल दो नामों श्री पाटिल व डा. सिंह पर ही विचार किया जा रहा है। अतः चुनाव हारने की वजह से श्री पाटिल का नाम कट गया और डा. सिंह के लिए मैदान साफ हो गया। जब श्री शिवराज पाटिल गृहमन्त्री बन गये तो देश मे आतंकवादी गतिविधियां भी जोरों पर थीं।
इसकी वजह से उनकी काफी आलोचना भी होती रहती थी, मगर 26 नवम्बर, 2008 को जब मुम्बई में पाकिस्तानी आतंकवादियों ने 167 देशी–विदेशी नागरिकों को अपना निशाना बनाया तो देशवासियों का सब्र का बांध टूट गया और 30 नवम्बर, 2008 को श्री पाटिल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। श्री पाटिल ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए गृहमन्त्री पद से इस्तीफा दिया या यूं कहा जाये कि मीडिया में अपनी व्यापक आलोचना होने के बाद उन्होंने यह निर्णय लिया। इस दौरान उन्हें भारत का ‘नीरो’ तक बताया गया मगर श्री पाटिल इससे विचलित नहीं हुए और अपने सांसद होने की जिम्मेदारी बदस्तूर निभाते रहे। वह बहुत ही सरल प्रकृति के व्यक्ति थे और बहुत सदाचारी , मिलनसार व हंसमुख किस्म के इंसान थे। वह 1991 से 1996 तक लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे। अपने अध्यक्षत्व में उन्होंने पूर्णतः निष्पक्ष भाव रखा व विपक्ष को खुलकर अपनी बात रखने का मौका दिया। 6 दिसम्बर, 1992 को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई तो उन्होंने लोकसभा में विपक्षी दल भाजपा को अपनी बात खुलकर रखने का पूरा अवसर प्रदान किया और सदन की कार्यवाही पूरी गरिमा के साथ चलाई। गृहमन्त्री पद से इस्तीफा देने के बाद जब 2010 में वह पंजाब के राज्यपाल बने तो उन्होंने भारत के कृषि क्षेत्र के सामने आने वाली समस्याओं का निराकरण करने लिए राज्यपालों की बनी समिति की सदारत की। इस समिति ने सुझाव दिया कि किसानों की जोत के लगातार कम होने से इसमें आवश्यक कारगर कदम उठाये जाएं जिससे किसानों की उत्पादकता और आय पर विपरीत प्रभाव न पड़े राज्यपाल के पद पर रहते हुए उन्होंने अनुकरणीय व्यवहार का परिचय दिया और आम जनता के बीच इस पद की गरिमा की प्रतिष्ठा बढ़ाई।
श्री पाटिल का बहुत लम्बा संसदीय जीवन रहा। वह महाराष्ट्र विधानसभा के भी दो बार सदस्य रहे और वहां मन्त्री व सदन के उपाध्यक्ष व अध्यक्ष भी रहे। केन्द्र की राजनीति में उन्होंने 1980 में प्रवेश किया और वह इन्दिरा सरकार से लेकर राजीव सरकार तक में विभिन्न मन्त्रालयों के राज्यमन्त्री व स्वतन्त्र प्रभार मन्त्री रहे। उनके निधन से एक मृदु भाषी सरल व सौम्य राजनीतिक व्यक्तित्व का अन्त हो गया।

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