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लोकतन्त्र के महोत्सव की चीखें!

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12:34 AM May 13, 2018 IST | Desk Team

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कर्नाटक में मतदान पूरा होने के साथ ही लोकतन्त्र का महोत्सव सम्पन्न हो गया है मगर इसे मनाते हुए राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को बजाय संगीत लहरी सुनाने के ‘चीखें’ सुनाई हैं जिससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अगले साल लोकसभा के चुनावों के दौरान माहौल कैसा होगा? चुनाव एेसा अवसर होता है जिसमें आम मतदाता का राजनीतिक प्रशिक्षण होता है क्योंकि राजनीतिक दल उसके सर्वांगीण विकास के ​िलए राज्य व राष्ट्र के सन्दर्भ में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं मगर कर्नाटक के चुनाव इस बात के साक्षी रहेंगे कि हमारे देश की राजनीति किस तरह वैचारिक शून्यता की तरफ बढ़ रही है।

चुनाव निश्चित रूप से मनोरंजन का जरिया नहीं होते हैं कि राजनीतिक दल एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आक्षेप इस तरह करें कि यह कोई नाटक-सा लगने लगे। राजनीति में व्यक्तिगत हमले को तभी औजार बनाने की कोशिश की जाती है जब कोई वैचारिक तर्क नहीं होता। आजादी के सत्तर साल बाद अगर हम इस मुकाम पर पहुंचे हैं तो जाहिर है कि राजनीतिज्ञ किसी राज्य या देश को दिशा देने में असमर्थ हो रहे हैं मगर भारत इतना विलक्षण राष्ट्र है कि जहां नेता असफल होने लगते हैं वहां जनता स्वयं यह भूमिका संभाल लेती है और राजनीति को सही दिशा की तरफ मोड़ देती है। संभवतः कर्नाटक मंे चुनाव परिणामों के बाद यही होने जा रहा है।

यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि विभिन्न न्यूज चैनलों द्वारा दिखाये गये एक्जिट पोल केवल सुविधा की राजनीति का हिस्सा हैं क्योंकि कर्नाटक में पूरे चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न चैनलों की जो एकांगी भूमिका रही है उससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता सन्देह में पड़ गई है। तथ्यों को जिस तरह निजी हितों के सापेक्ष रखकर जनता को ‘सच’ परोसा गया है उससे सिद्ध होता है कि हम एेसे दौर में प्रवेश कर गये हैं जिसमें चांद को भी बिजली की चकाचौंध में खड़ा करके सूरज बनाकर दिखाया जा सकता है। लोकतन्त्र को जीवन्त और जनोन्मुख बनाये रखने में पत्रकारिता की कितनी बड़ी जिम्मेदारी है इसका हवाला समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने तब दिया था जब उन्होंने कहा था कि स्वतन्त्र प्रेस भारत के चाैखम्भा राज का एक मजबूत स्तम्भ है।

पत्रकारिता की मुद्रा केवल विश्वसनीयता ही होती है, जिस दिन यह समाप्त हो गई उस दिन लोग इस मुद्रा को स्वीकार नहीं करेंगे। अतः बहुत आवश्यक है कि हम इस तरफ चौकन्ने रहें और राजनीतिक तथ्यों को निडर व बेखौफ होकर लोगों के सामने प्रस्तुत करें। पाठकों को याद होगा कि जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तो अकेला पंजाब केसरी अखबार था जिसने जमीनी हकीकत देखकर लिखा था कि इस राज्य में 2014 जैसे लोकसभा चुनावों की परिस्थितियां बन रही हैं अतः भाजपा तीन सौ का आंकड़ा भी पार कर जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए और पंजाब के बारे में लिखा था कि यह राज्य अकाली दल व भाजपा के पंजे से स्वयं को छुड़ाने के ​लिए बेताब हो रहा है मगर आम आदमी पार्टी की यहां दाल गलने वाली नहीं है।

यह आत्म प्रशंसा बिल्कुल नहीं है बल्कि तथ्यों का वर्णन है। कर्नाटक के बारे में एक निष्कर्ष निर्विवाद है कि यहां के मतदाता राजनीतिज्ञों के रवैये से बेजार थे और सोच रहे थे कि चुनाव ढाई सौ साल पुराने शासक रहे टीपू सुल्तान की हुकूमत के मुद्दे पर लड़े जा रहे हैं या पिछले पांच साल से मुख्यमन्त्री पद पर काम कर रहे श्री सिद्धारमैया के शासन के मुद्दे पर। पुराने चुनावी माहौल में यदि किसी को यह नजर नहीं आया कि किस पार्टी के पक्ष में हवा में चल रही है या कौन-सी पार्टी एेसे मुद्दे खड़े कर रही है जो कर्नाटक के मिजाज के खिलाफ जा रहे हैं तो किस तरह चुनाव परिणामों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है। दरअसल कर्नाटक में चुनाव नहीं हो रहे थे बल्कि पूरे देश मंे व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था व सामाजिक वैमनस्य पर जनमत संग्रह हो रहा था। अगर इस राज्य में चुनाव किन्हीं दो व्यक्तित्वों के बीच हुए हैं तो वे प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया के बीच हुए हैं।

कर्नाटक के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि किसी मुख्यमन्त्री ने कन्नाडिगा अस्मिता को किसी राष्ट्रीय दल के मंच से ही आवाज देकर चुनौती देने की हिम्मत की हो कि राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व क्षेत्रीय दायरे में आकर विविधता के सिद्धान्त को दरकिनार नहीं कर सकते। बेशक सत्तर के दशक में स्व. देवराज अर्स ने यह काम किया था और अपने राज्य का नाम मैसूर से बदल कर कर्नाटक रखा था। अतः चुनावी तरंगों में इस प्रतिध्व​िन को सुनने में असमर्थ रहे लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि उन्हें अपनी बनाई हुई दुनिया मुबारक हो। आगामी 15 मई को नतीजे आ जायेंगे और कर्नाटक की जनता का जनादेश स्पष्ट हो जाएगा। इसके साथ ही यह भी हकीकत है कि राज्य में भ्रष्टाचार के प्रतीक माने जाने वाले बी.एस. येदियुरप्पा को चुनावी चेहरा बनाना सामान्य जन ने किस रूप में देखा है मगर यह भी तय है कि पिछले दस वर्षों से भी ज्यादा समय से मतदाताओं ने किसी भी प्रमुख राज्य में खंडित जनादेश देना बन्द कर रखा है। जिस राज्य में भी चुनाव हुए वहां जमकर बहुमत की सरकार गठित हुई।

बेशक गोवा व मणिपुर जैसे छोटे राज्यो में यह खरा नहीं उतरा क्योंकि इन राज्यों की प्रादे​िशक व नगर निकाय स्तर की समस्याएं गड्ड-मड्ड हो जाती हैं। कर्नाटक के चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि इनसे बाद में होने वाले तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान की तर्ज तय होगी और इसके बाद अगले वर्ष मार्च महीने में ही लोकसभा के चुनाव होंगे। अतः कर्नाटक के चुनावों में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा है वह आम मतदाता को राजनीतिक विमर्श की परि​िध से बाहर रखने की कुचेष्टा ही कहा जाएगा। एेसा तभी होता है जब हममंे राजनीति से बन्धे पेंचों को खोलने की क्षमता चूक जाती है वरना क्या वजह है कि इस राज्य की जलापूर्ति के मुद्दे पर सिद्धारमैया सरकार को नहीं घेरा गया और मुहम्मद अली जिन्ना व पाकिस्तान के झंडे को बीच में ले आया गया।

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