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श्रीकृष्ण जन्म स्थान केवल हिन्दुओं का

मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान को लेकर जिस तरह का विवाद मुस्लिम पक्ष की तरफ से खड़ा किया जा रहा है वह भारतीय संस्कृति के प्रति अनास्था का ही द्योतक है क्योंकि भारत का पिछला पांच हजार से भी पुराना इतिहास बताता है

01:04 AM May 30, 2022 IST | Aditya Chopra

मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान को लेकर जिस तरह का विवाद मुस्लिम पक्ष की तरफ से खड़ा किया जा रहा है वह भारतीय संस्कृति के प्रति अनास्था का ही द्योतक है क्योंकि भारत का पिछला पांच हजार से भी पुराना इतिहास बताता है

श्रीकृष्ण जन्म स्थान केवल हिन्दुओं का
मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान को लेकर जिस तरह का विवाद मुस्लिम पक्ष की तरफ से खड़ा किया जा रहा है वह भारतीय संस्कृति के प्रति अनास्था का ही द्योतक है क्योंकि भारत का पिछला पांच हजार से भी पुराना इतिहास बताता है कि 711 ईस्वीं में भारत में इस्लाम के आने से पहले पूजा स्थलों को लेकर कभी कोई ऐसा विवाद नहीं हुआ। बेशक भारत 323 ईसा पूर्व से प्रतापी चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट के शासन के दौरान आजीवक, जैन व बौद्ध और सनातन धर्म के मानने वाले लोगों में बंटा रहा परन्तु कभी भी कोई पूजा स्थल विवाद का मुद्दा नहीं बना और चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते सम्राट अशोक महान द्वारा बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाये जाने के वाबजूद इन सभी धर्मों के लोगों के बीच सद्भाव बना रहा। इसके बाद जब 185 ईसा पूर्व के लगभग सम्राट अशोक के प्रपौत्र के शासन के दौरान मौर्य साम्राज्य के कमजोर पड़ जाने पर जब उसके ही सेनापति पुष्य मित्र ने साम्राज्य को अपने अधीन किया तो उसने सनातन धर्म की विजय पताका फहराते हुए बेशक कुछ बौद्ध विहारों पर कब्जा किया परन्तु सनातनियों ने भी भगवान बुद्ध को हिन्दू परंपरा में ईश्वर का अवतार मानते हुए बौद्ध धर्म का सत्कार किया। भारत की यह खूबसूरत सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था तब थी जबकि आजीवक या समण संस्कृति के अनुयायी पूर्णतः नास्तिक थे और ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते थे।
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बौद्ध भिक्षुओं के संरक्षण में रोमन साम्राज्य से लेकर पर्शिया (ईरान) के सेसियन शासकों के साथ वाणिज्यिक सम्बन्ध स्थापित करके भारत की आर्थिक ताकत का लोहा मनवाया और स्वर्ण मुद्राएं तक जारी कीं। इसके बाद गुप्त वंश का शासन शुरू हुआ तो इसका साम्राज्य पूर्व की तरफ भी विस्तारित हुआ और भारत ‘सोने की चि​डि़या’ कहलाया जाने लगा। समुद्रगुप्त या गुप्त वंश के शासक भगवान विष्णु के उपासक थे। प्रयागराज (इलाहाबाद) में मिले शिला लेखों में समुद्रगुप्त के शासन काल की गौरवगाथा को पढ़ा जा सकता है। अतः भारत में धार्मिक ‘असहनशीलता’  और गैर इस्लामी लोगों को उनके ही देश में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का दौर यहीं से शुरू हुआ जो 1526 तक विभिन्न मुस्लिम आक्रान्ताओं के भारत पर आक्रमणों से बदस्तूर किसी न किसी न रूप में जारी रहा परन्तु इन आक्रान्ताओं को राजस्थान व मध्य प्रदेश और गुजरात समेत महाराष्ट्र आदि के क्षत्रपों से मुंहतोड़ जवाब भी मिलता रहा जिसकी वजह से लगभग सात सौ वर्षों तक भारत में मुस्लिम शासन रहने के बावजूद 1857 तक मुसलमानों की संख्या भारत की कुल आबादी की 20 प्रतिशत ही थी। महाराणा प्रताप की गाथा तो पूरा देश जानता है मगर उनके ही वंश के अन्य राणाओं की गाथाओं को इतिहास में वाजिब स्थान देने में कंजूसी बरती गई।
कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि इस्लाम के भारत में पदार्पण के बाद से धार्मिक कट्टरता का जन्म हुआ जिसकी वजह से भारत के हिन्दू शिल्प के मन्दिरों का विनाश हुआ और हिन्दू स्थलों व इमारतों का धार्मिक चरित्र बदला गया और सांस्कृतिक केन्द्रों को नष्ट किया गया। श्रीकृष्ण जन्म स्थान के पूर्ण हिन्दू स्वामित्व के लिए मथुरा की अदालत में याचिका दायर करने वाले विद्वान वकील श्री विष्णु शंकर जैन द्वारा अपनी दलील में दिये गये इन तथ्यों को कैसे नकारा जा सकता है जबकि उन्होंने श्रीकृष्ण जन्म स्थान की पूरी तर्क सिद्ध गाथा मय सबूतों के पेश कर दी है। पहला तथ्य यह है कि औरंगजेब ने अपने फरमान में लिखा है कि आगरा तक से ही अपनी अलौकिक चमक बिखेरने वाले मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान पर बने मन्दिर को तोड़ कर उसकी मूर्तियां खंडित करके उन्हें आगरा की जैनबआरा मस्जिद की सीढि़यों में ​िचनवा दो जिससे मुस्लिम उन पर पैर रखते हुए मस्जिद में जायें। मगर औरंगजेब के इस शैतानी फरमान से पहले 1618 में मथुरा के इस मन्दिर को उस समय की 33 लाख रुपए की रकम खर्च करके बहुत आलीशान बनवाया था जिससे औरंगजेब चिढ़ता था।
मुगलिया सल्तनत के कमजोर पड़ने पर जब मराठाओं का प्रभुत्व भारत में स्थापित हुआ तो 1760 के करीब मराठाओं ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया और इसकी शानौ-शौकत बरकरार की। फिर 1815 में इसे बनारस के राजाराय पटनी मल ने अंग्रेजों से खरीदा। राजा साहब ने तो मन्दिर की सेवा की मगर बाद में उनके वंशज राय किशन दास ने आर्थिक तंगी के चलते 8 फरवरी 1944 को इसे ‘भारत रत्न’ महामना पं. मदन मोहन मालवीय को बेच दिया मगर कोई धन नहीं लिया और केवल अपने ऊपर के कर्जे 13 हजार रुपए से अधिक की धनराशि चुकाने को कहा जिसे भारत के माने हुए सेठ माननीय जुगल किशोर बिड़ला ने चुका दिया मगर 1946 में मालवीय जी की मृत्यु हो गई। तब 8 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्म स्थान ट्रस्ट का गठन किया गया मगर 1958 के आते-आते यह ट्रस्ट पूरी तरह निष्क्रिय हो गया और तब श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की एक संस्था गठित हुई जो मन्दिर की देखभाल करने की गरज से थी।
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1964 में संघ ने दावा किया कि कुछ घोसी मुसलमानों ने मन्दिर में जबरन घुस कर एक हिस्से में कब्जा कर लिया है। इसके बाद संघ ने मुस्लिम संस्था से 1968 में समझौता कर लिया जबकि जन्म स्थान की 13.37 एकड़ भूमि का मालिकाना हक ट्रस्ट के पास है। समझौते में जन्म स्थान के किलेनुमा मन्दिर में बनाई गई मस्जिद के लिए बनी संस्था शाही ईदगाह कमेटी के साथ संघ का 1968 में किया गया समझौता पूरी तरह अवैध है और फर्जी के दर्जे में आता है। श्री विष्णु शंकर जैन ने इसी समझौते को चुनौती दी है क्योंकि पूरे जन्म स्थान क्षेत्र का मालिकाना हक तो ट्रस्ट के पास है। अतः यह मामला राम जन्म मन्दिर के स्वरूप का नहीं है। पूरा जन्म स्थान तो कानूनी रूप से है ही हिन्दुओं का।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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