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सामाजिक परिवर्तन : बदलते कानून

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09:20 AM Sep 29, 2018 IST | Desk Team

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व्यभिचार या विवाह में बेवफाई अपराध है या सामाजिक कुरीति? यह बहस पुरानी है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक सम्बन्धों में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। आज यह व्यक्ति प्रधान हो गए हैं। महिलाएं अब पहले से कहीं अधिक स्वतंत्र हैं और आत्मनिर्भर हो गई हैं। वैवाहिक जोड़े की परम्परागत भूमिकाओं में बदलाव आ गया है। विवाह को संस्था की बजाय सम्बन्धों के तौर पर देखा जा रहा है इसलिए लिव इन रिलेशनशिप पर किसी को आपत्ति नहीं और न ही तलाक या तलाक के बाद पुनर्विवाह पर। अब तो समलैंगिक सम्बन्धों को भी सुप्रीम कोर्ट ने वैध करार दे दिया है। इन्हीं सामाजिक परिवर्तनों के चलते न्यायालयों ने एक के बाद एक फैसले दिए हैं। सामाजिक परिवर्तनों के चलते कानूनों को भी मौजूदा स्थितियों के लिए प्रासंगिक बनाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार कानून पर फैसला सुनाते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया। समाज प​रिवर्तनों को महसूस करे इसलिए यह जानना जरूरी है कि यह दूसरा मौका है जब जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने पिता आैर भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे वाई.वी. चन्द्रचूड़ के फैसले को पलट दिया। उनके पिता जस्टिस वाई.वी. चन्द्रचूड़ ने 33 वर्ष पहले व्यभिचार कानून की वैधता को बरकरार रखा था।

सावित्री विष्णु बनाम भारत सरकार केस में वाई.वी. चन्द्रचूड़ ने आईपीसी की धारा 497 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी थी। अब फैसला सुनाते समय जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने कहा कि पहले के विचार को संवैधानिक स्थिति की सही ‘व्याख्या’ नहीं माना जा सकता। इससे पहले पिछले वर्ष अगस्त में भी जस्टिस वाई.वी. चन्द्रचूड़ ने निजता के मुद्दे पर अपने पिता द्वारा दिए गए फैसले को पलट दिया था। पिछले वर्ष दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में उन्होंने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया था। स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन के दौरे में न्यायालय के फैसले भी बदल जाते हैं। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का गठन 1860 में हुआ था। उस समय विवाह को सम्बन्ध की बजाय संस्था माना जाता था और पत्नी पति की सम्पत्ति से ज्यादा कुछ नहीं थी। इन्हीं विचारों के मद्देनजर रखते हुए कानून निर्माताओं ने पुरुष को ही व्यभिचार का दोषी माना। भले ही विवाहित महिला इस अपराध को करते समय रंगे हाथों पकड़ी जाए। यानी कानून निर्माताओं का दृढ़ विश्वास था कि विवाहित महिला निर्दोष रहती है आैर अगर वह अपने पति की बेवफाई करती है तो उसे कोई दूसरा पुरुष उकसा रहा होता है इसलिए व्यभिचार के लिए दोषी भी नहीं होगा।

नतीजतन पुरुष अपनी बेवफा पत्नी के खिलाफ किसी किस्म की कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकता था। यह कानून 158 वर्षों से लागू था। दुनिया के सभी समाजों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में कई तरह की जटिलताएं रही हैं। हर जगह एक म​िहला का जीवन पुरुष वर्चस्व पर आधारित मान्यताओं के तहत तय होता रहा है। हमारे समाज में अगर किन्हीं स्थितियों में पति के अलावा म​िहला के सम्बन्ध किसी अन्य पुरुष से बनते हैं तो इसमें महिला को व्यभिचार की दोषी के तौर पर माना जाता था और उसका जीवन दूभर हो जाता था लेकिन विडम्बना यह थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत पुरुष को पूरी तरह कठघरे में खड़ा होना पड़ता था। इस कानूनी स्थिति पर बहुत से सवाल उठ खड़े होते रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इस मसले पर अब सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा है कि कानून मेें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि जो किसी व्यक्ति के सम्मान आैर महिलाओं की समानता को प्रभावित करता है, वह संविधान के लिए सही नहीं है। पितृ सत्तात्मक ढांचे में जीने वाले समाज में जिस तरह महिलाओं की देह पर पुरुषों का वर्चस्व एक व्यवस्था की तरह कायम था, उसे समाप्त करके अदालत ने एक बेहद महत्वपूर्ण कदम उठाया है।

विवाह की पवित्रता अगर एक शर्त है तो यह महिलाओं के साथ उनके पतियों पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। जहां तक सामाजिक ढांचे में पति और पत्नी के सम्बन्धों का सवाल है तो सुप्रीम कोर्ट ने इस वर्चस्व आधारित सोच और आग्रह पर सवाल उठाते हुए कहा है कि प​ित पत्नी का मालिक नहीं होता। केन्द्र सरकार की दलील थी कि धारा 497 को बनाए रखा जाए क्योंकि इसे निरस्त करने से वैवाहिक संस्था नष्ट हो जाएगी। मगर सच्चाई यह भी है कि सम्बन्ध परस्पर विश्वास आैर जरूरतों के पूरे होने की नींव पर टिके होते हैं अगर इसमें कमी होती है तो रिश्ते भी बोझ बन जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इतर नई सामाजिक प्रवृत्तियों से भविष्य में भारतीय समाज में होने वाले सम्भावित परिवर्तनों पर भी बहस शुरू हो चुकी है। जिन संस्कारों, नैतिक मूल्यों की बातें भारत में की जाती हैं, वह गायब तो नहीं हो जाएंगे। क्या नए कानूनों से सामाजिक आदर्शों और सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन तो नहीं हो जाएगा? क्या इससे समाज में उच्चशृंखलता और अनैतिकता को बढ़ावा तो नहीं मिलेगा? और भी कई सवाल हैं जो समाज के सामने हैं। खुली फिजाओं में सांस लेना तो ठीक है लेकिन कहीं सामाजिक वातावरण ही विषाक्त न हो जाए। इन सवालों का जवाब समाज को ढूंढना होगा।

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