समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता
भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना है कि ‘‘हम भारत के लोग, भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए और इसके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय,विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, समानता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिए और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।’’ इसमें तीन शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्षता व अखंडता इमरजेंसी काल के दौरान 1976 में जोड़े गये। यह कार्य तत्कालीन संसद द्वारा 42वां संशोधन करके किया गया।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरकार्यवाह (महासचिव) श्री दत्तात्रेय होसबोले ने इनमें से दो शब्दों समाजवादी व धर्मनिरपेक्षता को हटाये जाने की वकालत की है और कहा है कि 26 नवम्बर, 1949 को बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा दिये गये संविधान में ये शब्द नहीं थे। श्री होसबोले ने अखंडता शब्द पर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं जताई है। उनके इस कथन पर देश में राजनैतिक वितंडावाद खड़ा हो गया है जो किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस के लोकसभा में विपक्षी नेता श्री राहुल गांधी ने इसे लेकर आरोप मढ़ दिया है कि भाजपा व संघ के लोग संविधान नहीं चाहते बल्कि वे हिन्दू मनुस्मृति चाहते हैं। संघ का विश्वास निश्चित रूप से हिन्दुत्व में है मगर उसकी राष्ट्रभक्ति पर कोई सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता है।
अतः श्री राहुल गांधी को भी संघ पर आरोप लगाने से पहले सावधानी बरतनी चाहिए। हमें वह घटना भी याद करनी चाहिए जब 2002 के आसपास केन्द्र की भाजपा नीत वाजपेयी सरकार के संसदीय कार्य मन्त्री स्व. प्रमोद महाजन ने लोकसभा में सदन के सदस्यों के बीच संविधान की हस्तलिखित कापियां बांटी थीं। इसे तब श्री प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने अपने सुन्दर लेख में लिखा था और उस पर भगवान राम के लंका विजय से लौटते हुए चित्रों के साथ अन्य महापुरुषों के चित्र भी थे जिन्हें संविधान की हस्तलिखित कापी को सुन्दर बनाने हेतु नन्द लाल बोस जैसे प्रतिष्ठित चित्रकार ने बनाया था। इसी हस्तलिखित कापी पर उस समय के महान राजनीतिज्ञों के हस्ताक्षर थे जो संविधान सभा के सदस्य थे। श्री महाजन ने तब संसद में तर्क रखा था कि संविधान की यह प्रति बताती है कि धर्मनिरपेक्षता शब्द की कोई जरूरत नहीं है और जहां तक भारत के समाजवादी देश होने का सम्बन्ध है तो 1991 से जो आर्थिक उदारीकरण की नीति चल रही है वह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था है अतः इस शब्द की भी कोई जरूरत नहीं है।
देखा जाये तो भारत के समाजवादी नीतियों पर चलने का तब कोई तर्क नहीं था क्योंकि वाजपेयी सरकार घाटे में चलने वाली सरकारी कम्पनियों को पूंजीपतियों को बेच रही थी। इस प्रकार भारत का आर्थिक दर्शन पूंजीवाद से जुड़ गया था परन्तु तत्कालीन विपक्ष ने उन्हें संसद में बुरी तरह आड़े हाथों लिया था और कहा था कि संविधान की मूल प्रति में तो अकबर व टीपू सुल्तान के भी चित्र हैं और पूरा भारतीय संविधान समाजवाद का ऐसा खुला प्रपत्र है जिसमें समाजवादी नीतियों की वकालत की गई है और प्रत्येक नागरिक को बराबर का दर्जा दिया गया है और आर्थिक समानता लाने की बात कही गई है। इसलिए समाजवादी शब्द का प्रस्तावना में जोड़े जाने का उद्देश्य पूरी तरह तर्कसंगत व समयोचित है। मगर तब यह बात आगे नहीं खिंची और बहस के दावों व प्रति-दावों में ही सिमट कर रह गई। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय भी इन दोनों शब्दों को जोड़े जाने के पक्ष में निर्णय दे चुका है।
इसके साथ यह भी सत्य है कि 42वें संशोधन की विभिन्न उपधाराओं में इमरजेंसी काल के दौरान ही नागरिकों के कर्त्तव्यों को भी जोड़ा गया। इससे पहले केवल नागरिकों के अधिकारों की बात ही संविधान में थी। नागरिकों के मूल अधिकारों की बात संविधान की प्रस्तावना भी करती है। वस्तुतः प्रस्तावना या उद्देशियका संविधान का परिचय पत्र है जिसमें लक्ष्यों को अभिवादित किया गया है। मगर श्री होसबोले के कथन के पीछे भारत की जमीनी सच्चाई है। भारत की हिन्दू संस्कृति स्वयं में ही धर्म या पंथ निरपेक्ष है। हिन्दुओं में सैकड़ों तरीकों की उपासना पद्धितियां हैं। कोई साकार ब्रह्म का उपासक है तो कोई निराकार ब्रह्म का। कोई ईश्वर को सद्गुण मानता है तो कोई निर्गुण। हजारों की तादाद में देवी-देवता हैं और कुल देवता हैं। अतः हिन्दू होना ही स्वयं में धर्मनिरपेक्षता की गारंटी होती है। अब सवाल यह है कि हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू राज में क्या अन्तर है? हिन्दू राष्ट्र इसकी संस्कृति का वाहक है जबकि हिन्दू राज प्रशासनिक प्रणाली को संकीर्णता में बांध देता है।
इस भेद को समझने की जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति को संविधान एक समान अवसर प्रदान करने की वकालत करता है और वह भी उसकी गरिमा को अक्षुण्य रखते हुए। अतः यह समाजवादी धारा का पोषक है इसलिए प्रस्तावना में समाजवादी शब्द रहना किस लिए जरूरी हो सकता है?आखिरकार हमारे संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच-समझ कर ही समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष शब्दों को नहीं रखा होगा। जहां तक राष्ट्रीय अखंडता का सवाल है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। संविधान में नागरिकों के कर्त्तव्य निर्दिष्ट किये जाने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। संविधान हर नागरिक के साथ न्याय करने की भी गारंटी देता है। समाजवादी व्यवस्था में इसी की गारंटी तो दी जाती है जो कि संविधान के विभिन्न प्रावधानों में है। संविधान में इन दो शब्दों का महत्व आभूषणीय ज्यादा है। क्योंकि आज भी मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को दो वक्त का मुफ्त भोजन सुलभ करा रही है। यह रास्ता बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के बीच से ही निकला है।