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होली का समाजवादी स्वरूप !

होलिका दहन के बाद आज होली का त्यौहार है जिसमें रंगों की बहार रहती है…

09:26 AM Mar 13, 2025 IST | Aditya Chopra

होलिका दहन के बाद आज होली का त्यौहार है जिसमें रंगों की बहार रहती है…

होली का समाजवादी स्वरूप

होलिका दहन के बाद आज होली का त्यौहार है जिसमें रंगों की बहार रहती है। भारतीय त्यौहारों की विशेषता जहां मौसम के बदलने से कृषि क्षेत्र की गतिविधियों से जुड़ी हुई है वहीं यह सर्वसमाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने की भी है। यदि और वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यह त्यौहार का समाजवादी स्वरूप है जिसमें सभी प्रकार की जाति-बिरादरी और अमीर-गरीब का भेद मिट जाता है। इस दिन रंग में रंगे हुए मालिक और नौकर में कोई भेद नहीं रहता और हिन्दू समाज के चारों वर्णों के लोग एक-दूसरे को रंग-गुलाल व अबीर लगा कर गले मिलते हैं। इसमें किस व्यक्ति का कौन सा धर्म है यह भेद भी मिट जाता है। रंग की विशेषता यह होती है कि यह हर व्यक्ति की निजी पहचान छिपा कर उसे अपने जैसा बना देता है परन्तु भारत विभिन्न विविधताओं से भरा देश है। होली का त्यौहार देश के लगभग सभी राज्यों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसका कारण यह है कि होली समाज की हर सीमा को तोड़ कर मनायी जाती है। इस बार यह त्यौहार रमजान के मुबारक महीने में जुम्मे (शुक्रवार) के दिन पड़ रहा है।

भारत में दुनिया के दूसरे नम्बर पर सबसे ज्यादा बड़ी संख्या में मुस्लिम नागरिक रहते हैं। रमजान में समाज में खैरात बांटने का चलन है। इससे यह पता चलता है कि इस्लाम धर्म में मानवता को ऊंचे दर्जे पर रखा गया है। पूरे महीने हर मुसलमान का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह अपनी आय का एक अंश अपने से कमजोर लोगों के बीच तक्सीम करे। यह इस्लाम का समाजवादी स्वरूप है। धर्म की यह व्याख्या कोई नई नहीं है। हिन्दू और मुस्लिम धर्मों के अलग-अलग रीति-रिवाज होने के बावजूद इन्हें जो आपस में जोड़े रखती है वह मानवता ही है। भारत में तो यह इस तरह प्रदर्शित होती है कि समाज का कोई भी कार्य इन दोनों मजहबों के मानने वालों के एक साथ आये बिना संभव ही नहीं होता। हिन्दू धर्म के अनुयायी का विवाह भी बिना मुस्लिमों की शिरकत के पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि जिस बैंडबाजे के साथ दूल्हे की बारात जाती है उसके आगे बैंड बजाने वाले 90 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम फनकार ही होते हैं। जिस घोड़ी पर दूल्हा बैठता है उसकी ‘रास’ कोई मुस्लिम ‘सईस’ ही पकड़े रहता है। इतना ही नहीं हिन्दू औरतों के सुहाग पिटारे में जो सामान भरा रहता है उसे मुस्लिम कारीगर ही बनाते हैं। हिन्दू मन्दिरों में हमारे ठाकुर जी जो पोशाक पहनते हैं उन्हें सिलने वाले भी अधिकतर मुस्लिम दर्जी ही होते हैं। वास्तविक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी यही है जिसमें हिन्दू और मुसलमान मिलजुलकर अपने त्यौहार मनाते रहते हैं। जहां तक कट्टरपंथियों का सवाल है तो ये तत्व दोनों ही पक्षों के बीच मौजूद रहते हैं।

होली के रंग हमें याद दिलाते हैं कि भारत की विविधता में एकता किस प्रकार समाहित होकर भारतीयता को मजबूत कर सकती है। बेशक 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए और धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण मुहम्मद अली जिन्ना ने करवा लिया परन्तु वह भारत की जमीन की तासीर को नहीं बदल सका जिसमें हिन्दू व मुसलमान हर मौके पर एक-दूसरे का सहारा बने रहते हैं। वर्तमान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को हिन्दू व मुसलमान दोनों ही मिलकर संभाले हुए हैं जिसे देखकर दोनों पक्षों के कट्टरपंथियों को बेचैनी महसूस होती है। मगर यह भारत की तासीर है कि यहां रसखान व रहीम जैसे मुस्लिम भक्त कवि भी हुए। यह भारत की ही तासीर है कि मुस्लिम शास्त्रीय गायकों ने हिन्दू त्यौहारों की विशिष्टताओं का बखान किया। अमीर खुसरो जैसे दानिशमन्द ने भारत की मिट्टी का बखान अपनी रचनाओं में किया। होली की खासियत ही यह है कि यह हर हिन्दू-मुसलमान को अपनी तासीर से वाकिफ कराती है। जब अमीर खुसरो ने यह लिखा कि

छाप तिलक सब छीनी रे, मोह से नैना मिलाय के

तो निश्चित रूप से वह इस देश की संस्कृति को ही नमन कर रहे थे और कह रहे थे कि शायद दुनिया में कोई एेसा दूसरा देश होगा जिसकी मिट्टी हर आगन्तुक को अपने ही रंग में रंग देती हो। हमें इतिहास को दोहराना नहीं है बल्कि उससे कुछ सबक लेना है। क्या वजह है कि पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में आज भी बसन्त के मौसम के आने का जश्न मनाया जाता है। उसकी वजह केवल और केवल भारतीय उपमहाद्वीप की तासीर ही है जो सभी धर्मों की दीवारें तोड़ डालती है। यह ताकत सिर्फ भारत की मिट्टी में ही पाई जाती है। इसकी विविधता का वर्णन गुरु नानक देव जी महाराज ने अपनी वाणी में जिस प्रकार किया उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता

‘‘कोई बोले राम-राम , कोई खुदाये

कोई सेवै गुसैयां, कोई अल्लाए

कारन कर करण करीम

कृपाधार तार रहीम

कोई नहावै तीरथ, कोई हज जाये

कोई करे पूजा, कोई सिर नवाये

कोई पढै वेद, कोई कछेद

कोई ओढै नील, कोई सफेद

कोई कहे तुर्क, कोई कहे हिन्दू

कोई बांचै बहीश्त, कोई सुरबिन्दू

कह नानक जिन हुकुम पछायो

प्रभु साहब का तिन भेद पायो।’’

होली सबकी पहचान को अपने ही रंग में रंग देती है। अतः इस विविधता का जश्न मनाया जाना चाहिए न कि संकीर्णता के दायरों में सिमटना चाहिए। जो भी होली खेलना चाहता है उसका स्वागत किया जाना चाहिए और जो रंगों से बचना चाहता है उसका भी सम्मान किया जाना चाहिए। आजकल उत्तर प्रदेश के संभल शहर में जिस प्रकार का विवाद होली के त्यौहार को लेकर हो रहा है उसके लिए भारतीयता में कोई स्थान नहीं है क्योंकि इस देश की विविधता हमें सिखाती है कि हम एक-दूसरे का सम्मान करें। गौर से सोचिये तो भारत की असली ताकत भी यही विविधता है।

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Aditya Chopra

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