पाकिस्तान बिखरने की आवाज
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1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद इस्लामाबाद में बैठे पाक फौजी हुक्मरान इस कदर घबरा गए थे कि जनरल अयूब ने राष्ट्रसंघ में कश्मीर का मुद्दा पुरजोर तरीके से उठवाया मगर तब स्व. इदिरा गांधी ने स्व. मुहम्मद करीम भाई चागला को राष्ट्रसंघ में भेजा जो 1966 से 1967 तक विदेशमन्त्री रहे थे। श्री चागला ने राष्ट्रसंघ में एेतिहासिक भाषण देकर पाकिस्तान के सारे तर्कों को इस प्रकार हवा में उड़ाया कि खुद उसके वजूद पर ही सवालिया निशान लगने लगा। श्री चागला ने जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की पाकिस्तान की मांग को शेख चिल्ली का ख्वाब साबित कर दिया। तब जम्मू-कशमीर में स्थिति यथावत् बनी हुई थी मगर 1967 के लोकसभा के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी का संसद में बहुत हल्का बहुमत आया और इन्दिरा गांधी के नेतृत्व पर उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का गुट भारी पड़ने लगा जिसके मुखिया स्व. मोरारजी देसाई थे, तो इन्दिरा जी ने अपनी पार्टी में प्रगतिशील आर्थिक उपायों के मुद्दे पर विद्रोह किया और कांग्रेस का पहली बार विघटन हुआ। यह 1969 का वर्ष था। उधर पाकिस्तान ने पुनः कश्मीर राग छेड़ना शुरू कर दिया था। 1970 में पाकिस्तान की शह पर जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर हवाई अड्डे से कुछ विद्रोही युवकों ने भारतीय विमान अगवा करके लाहौर ले जाकर फूंक डाला था।
पाकिस्तान ने उन्हें ‘हीरो’ का दर्जा देते हुए कश्मीर मुद्दे को फिर से जोर-शोर से उठाने की कोशिश की लेकिन इसी साल के अन्त तक पाकिस्तान में चुनाव भी होने थे। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारतीय विमान फूंके जाने के विरोध में एेसी रणनीति अपनाई कि पाकिस्तान को भारी खामियाजा उठाना पड़ा। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों की परवाह न करते हुए भारत के हवाई क्षेत्र से पाकिस्तानी विमानों की उड़ान पर रोक लगा दी। पाकिस्तान इसके विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भी चला गया परन्तु भारत सरकार का रुख नहीं बदला। पाकिस्तान में हुए इन चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के नेता स्व. शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी पार्टी को राष्ट्रीय असैम्बली में पूर्ण बहुमत मिला और पश्चिमी पाकिस्तान में स्व. जुल्फिकार अली भुट्टो की ‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’ दूसरे नम्बर पर रही मगर जनरल अयूब किसी बंगाली मुसलमान और पूर्वी पाकिस्तान के नेता को प्रधानमन्त्री पद देने के लिए तैयार नहीं हुए।
भुट्टो और शेख मुजीब में समझौते की कई कोशिशें की गईं मगर शेख मुजीब के साथ पाकिस्तानी फौजी शासक बेइमानी करते रहे। इससे खफा होकर पूर्वी पाकिस्तान में भारी जन आन्दोलन हुआ लेकिन इस्लामाबाद में बैठे पाकिस्तानी शासकों ने इसे कुचलने के लिए नृशंस तरीके अपनाये जिसके परिणाम स्वरूप पूर्वी पाकिस्तान में ‘बांग्ला मुक्ति वाहिनी’ ने स्वतन्त्रता आन्दोलन शुरू करके पाक फौज का विरोध शुरू कर दिया, इस प्रकार पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश बनने का संघर्ष शुरू हुआ जिसे मानवीय आधार पर पाक फौज के अत्याचारों के खिलाफ भारत में शरण ले रहे बंगलादेशी शरणार्थियों को नई दिल्ली की सरकार ने पनाह दी और दिसम्बर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय फौज की मदद से बंगलादेश में बदल दिया गया।
पाकिस्तान को बीच से चीर दिया गया था और इस्लामाबाद में जनरल अयूब ने दूसरे जनरल याह्या खां को सत्ता सौंप दी थी। बंंगलादेश बनने के बाद पाकिस्तान के तोते उड़ चुके थे। उसके एक लाख सैनिकों ने ढाका में भारत की फौजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। इस नए बंगलादेश के उदय होने से भारतीय उपमहाद्वीप की ही नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया की राजनीति बदल चुकी थी। जम्मू-कश्मीर में भी आजादी का राग अलापने वाली ताकतों के हौसले पस्त हो चुके थे। 1972 में शिमला में पाकिस्तान के नए नागरिक हुक्मरान जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ इन्दिरा गांधी ने समझौता करके कश्मीर समस्या को दोनों देशों के बीच का एेसा मुद्दा बना दिया था जिसका हल केवल बातचीत से ही निकल सकता था। पाकिस्तान राष्ट्रसंघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव को भूलकर अपनी बची-खुची जमीन बचाने की जुगाड़ में लग चुका था। शिमला समझौते ने पाकिस्तान की कमर तोड़ कर रख दी थी। इसके बाद ही जम्मू-कश्मीर में वे ताकतें भारत की शर्तों के आगे नतमस्तक होने लगी थीं जो अधिक स्वायत्तता की मांग करती थीं।
भारत की सरकार का इकबाल इस कदर बुलन्द था कि पूरे जम्मू-कश्मीर में जय हिन्द के नारे गूंजने लगे थे। तभी इन्दिरा जी ने शेख अब्दुल्ला से समझौता किया और उन्हें इस सूबे की सत्ता सौंप दी। यह दिसम्बर 1974 का महीना था जब शेख अब्दुल्ला ने इस शर्त को स्वीकार करने के बाद राज्य के मुख्यमन्त्री की बागडोर कांग्रेस के सैयद मीर कासिम से ली कि जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ के एक राज्य के रूप में प्राप्त विशिष्ट अधिकारों के तहत अपना शासन चलाएगा। 1975 के शुरू में शेख अब्दुल्ला इस राज्य के मुख्यमन्त्री बन गए और राज्य में उनका विरोध करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए टेढ़ी खीर बन गया। एेसे ही समय में जम्मू-कश्मीर की राजनीति में मुफ्ती मुहम्मद सईद का सितारा दिखाई देने लगा और वह कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं में शुमार होने लगे। शेख साहब का विरोध करने के लिए उन्होंने दक्षिण कश्मीर के उस इलाके पर ही सबसे ज्यादा ध्यान दिया जिसे शेख साहब की नजरबन्दी के दौरान उनके प्रमुख सहयोगी मिर्जा अफजल बेग ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया था। लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाने के लिए मुफ्ती साहेब ने उस जमीन को चुना जहां मिर्जा अफजल बेग के सक्रिय रहते कभी-कभी पाकिस्तानी झंडे लहरा जाते थे।