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खेल बिहार का

04:00 AM Oct 31, 2025 IST | Kumkum Chaddha

जब प्रशांत किशोर ने एक टेलीविजन साक्षात्कार के दौरान यह आरोप लगाते हुए बीच में ही कुर्सी छोड़ दी कि साक्षात्कारकर्ता का “एजेंडा” है, तब उन्होंने न केवल असंयमित व्यवहार प्रदर्शित किया बल्कि स्वयं को घमंडी, असभ्य और असंवेदनशील भी सिद्ध किया। एक परिपक्व राजनीतिज्ञ से अपेक्षा की जाती है कि वह कठिन प्रश्नों का शांतिपूर्वक उत्तर दे किंतु किशोर उस क्षण एक बालक की भांति तुनक कर उठ खड़े हुए।
स्पष्ट था कि अपने शैक्षणिक योग्यता पर उठे प्रश्नों से वे असहज और रक्षात्मक हो गए थे। साक्षात्कारकर्ता, पूर्णतः संयमित रहते हुए केवल यह प्रासंगिक सवाल पूछ रहे थे कि किशोर की वास्तविक शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या है। यह प्रसंग उस पृष्ठभूमि में हुआ जब किशोर ने बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और राजद नेता तेजस्वी यादव की योग्यता पर तीखे प्रहार किए थे। विगत में वे कई बार तेजस्वी यादव को “नौवीं फेल” कहकर उपहास का पात्र बना चुके हैं और उनकी सीमित शैक्षणिक पृष्ठभूमि को राज्य के नेतृत्व के अयोग्य ठहराया है। सम्राट चौधरी को लेकर भी किशोर ने आरोप लगाया था कि उनकी पढ़ाई सातवीं कक्षा से आगे नहीं हुई। ऐसे में साक्षात्कारकर्ता का प्रश्न न तो असंगत था, न ही अनुचित बल्कि परिस्थितियों के अनुरूप और पूरी तरह वाजिब था परंतु इस बार परिस्थितियां उलट गईं। सवाल उन्हीं पर आ गया और किशोर का संयम जवाब दे गया। साक्षात्कार बीच में छोड़कर चले जाने का उनका निर्णय न केवल उन्हें असहज स्थिति में ले आया, बल्कि भाजपा नेता अमित मालवीय को यह दृश्य वायरल करने का सुनहरा अवसर भी दे गया।
शिक्षा से जुड़ा प्रश्न शायद अंतिम चोट साबित हुआ। साक्षात्कार के दौरान जब पत्रकार ने आगामी विधानसभा चुनावों में प्रशांत किशोर के मैदान से बाहर रहने के निर्णय पर सवाल उठाया, तो वे स्पष्ट रूप से असहज दिखाई दिए।
किशोर ने पूर्व में संकेत दिया था कि वे राघोपुर विधानसभा क्षेत्र से अपना चुनावी पदार्पण करेंगे लेकिन हाल ही में उन्होंने अपने ही बयान से पलटी मारते हुए घोषणा की कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे।
जानकारी के लिए बता दें कि प्रशांत किशोर ब्राह्मण समुदाय से हैं, जबकि तेजस्वी यादव पिछड़े वर्ग से आते हैं। यह जातीय समीकरण आगामी चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा सकता है लेकिन राजनीतिक अनुभव के लिहाज से तेजस्वी यादव का पलड़ा स्पष्ट रूप से भारी है। वह सीएम पद लिए फेस घोषित किए गए हैं।
लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के सबसे छोटे पुत्र तेजस्वी न केवल दो बार उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं, बल्कि उन्होंने राज्य की राजनीति में निरंतर सक्रियता से अपनी पकड़ मजबूत की है। इसके विपरीत, प्रशांत किशोर की राजनीतिक यात्रा की शुरूआत एक रणनीतिकार के रूप में हुई थी, पहले भाजपा के लिए और बाद में कांग्रेस तथा ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के लिए। पिछले वर्ष उन्होंने जन सुराज पार्टी का गठन किया जो इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में मैदान में है।
हालांकि यह कहना भी गलत होगा कि आगामी चुनाव तेजस्वी यादव या राजद के लिए किसी भी तरह से आसान होंगे। सबसे पहले, उनके माता-पिता के शासनकाल से जुड़ा “जंगलराज” और कानून-व्यवस्था का मुद्दा अब भी जनता की स्मृति में ताज़ा है। इसके साथ ही बिहार के तथाकथित “पहले परिवार” पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी उनका पीछा नहीं छोड़ते। याद दिला दें कि तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव सरकारी कोष से धन निकासी से जुड़े कई मामलों में दोषी ठहराए जा चुके हैं जिन्हें आमतौर पर चारा घोटाला कहा जाता है। लालू यादव इस मामले में जेल की सज़ा भी काट चुके हैं।
पिछले महीने दिल्ली की एक अदालत ने एक अन्य घोटाले में उन पर आरोप तय किए : आरोप था कि रेल मंत्री रहते हुए लालू यादव ने कुछ होटल मालिकों को अनुचित लाभ पहुंचाया और बदले में उनके सहयोगियों को औने-पौने दाम पर कीमती ज़मीन दी गई। लालू यादव के “पापों” का सारांश प्रस्तुत करते हुए भाजपा ने कहा “यदि लालू प्रसाद यादव के पूरे कार्यकाल को तीन वाक्यों में समेटा जाए तो वे होंगे- चारा खाना, कोलतार पीना और सरकारी संपत्ति व ठेकों में हेराफेरी कर ज़मीन हथियाना। इसमें चौथा मॉडल भी जोड़ना चाहिए ‘ज़मीन दो, नौकरी लो’। इस मॉडल की सबसे ख़ास बात यह रही कि इसके सारे लाभ केवल परिवार तक सीमित रहे, बाहरी किसी को नहीं मिले।” भाजपा का यह अंतिम तंज सीधे तेजस्वी यादव के उस चुनावी वादे पर निशाना था जिसमें उन्होंने संविदा कर्मियों को नियमित करने और प्रत्येक परिवार को एक सरकारी नौकरी देने का आश्वासन दिया था।
इन सबके बीच, महागठबंधन (एमजीबी) के भीतर मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर भी असमंजस बना हुआ है। कांग्रेस ने शुरू में तेजस्वी को सीएम चेहरा घोषित करने में हिचक दिखाई। वहीं, सीट-बंटवारे को लेकर भी मतभेद उभरे- कुछ सीटों पर राजद और कांग्रेस के उम्मीदवार आमने-सामने हैं, जिसे कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने “मित्रवत मुकाबला” करार दिया।
INDIA नामक इस विपक्षी मोर्चे में 26 दल शामिल हुए थे जिनमें समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और वाम दल प्रमुख थे। इस गठबंधन की ताकत का प्रमाण उसके चुनावी प्रदर्शन में स्पष्ट दिखा उसने 234 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा 240 सीटों पर सिमट गई, बावजूद इसके कि उसने “अबकी बार 400 पार” के नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरकर बहुमत से भी अधिक का लक्ष्य रखा था।
हालांकि राजनीतिक क्षेत्र में जगह बनाना एक बात है और उसे बनाए रखना तथा उस पर आगे निर्माण करना दूसरी। पहले मोर्चे पर INDIA गठबंधन ने प्रशंसनीय प्रदर्शन किया किंतु दूसरे पर वह बुरी तरह फिसल गया। समय के साथ दरारें उभरने लगीं और यह गठबंधन उतनी ही तेजी से बिखर गया, जितनी तेजी से बना था। आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और जनता दल (यू) ने अलग राह पकड़ ली। भीतरखाने मतभेद उभरे, सहयोगी दलों ने कांग्रेस पर निष्क्रिय रहने और क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर धकेलने के आरोप लगाए। भाजपा के लिए जो एकजुट विपक्ष की चुनौती एक समय ‘खतरे की घंटी’ बन रही थी, वह अब क्षीण हो चुकी है। इसलिए यदि INDIA गठबंधन के विघटन के लिए किसी एक दल को जिम्मेदार ठहराया जाए तो वह कांग्रेस अर्थात राहुल गांधी ही हैं। सहयोगी दलों ने कांग्रेस को “खराब सहयोगी” बताया है जो उनके बिना चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है। समान रूप से यह भी सत्य है कि कांग्रेस ने वह लाभ स्वयं खो दिया जो उसे राहुल गांधी की 14 दिवसीय वोटर अधिकार यात्रा से मिला था जो बिहार के 25 ज़िलों और 100 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुज़री थी। उसी प्रकार “वोट चोरी” अभियान में भी सत्ताधारी दल की संभावनाओं को कमजोर करने की क्षमता थी किंतु कांग्रेस नेतृत्व की अनिर्णयता और ढुलमुल रवैये के चलते यह अभियान अपेक्षाओं से बहुत नीचे रह गया। अंततः वही पुरानी उक्ति एक बार फिर सत्य प्रतीत होती है “कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन विपक्ष नहीं, बल्कि स्वयं कांग्रेस है।”

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