श्रीलंका : जनता की इच्छा सर्वोपरि
भारत के पड़ौसी देश श्रीलंका में आजकल जो अराजकता और विध्वंस का माहौल बना हुआ है उसके पीछे मुख्य रूप से इस देश की राजनीतिक परिस्थितियों का वह माहौल है
01:02 AM May 12, 2022 IST | Aditya Chopra
भारत के पड़ौसी देश श्रीलंका में आजकल जो अराजकता और विध्वंस का माहौल बना हुआ है उसके पीछे मुख्य रूप से इस देश की राजनीतिक परिस्थितियों का वह माहौल है जिसने लोकतन्त्र को आधुनिक राजतन्त्र में बदल कर रख दिया है और एक ही परिवार महिन्दा राजपक्षे के शासन को इसके देशवासियों का भाग्य बना कर रख दिया है। लोकतन्त्र का परिवार तन्त्र में एेसा परिवर्तन इस देश के संविधान के भीतर ही विभिन्न संशोधनों व कथित परिमार्जनों के द्वारा लाया गया जिसकी वजह से लोगों द्वारा चुनी गई सरकार का स्वरूप ‘राजशाही’के नियमों में ढलता सा गया।
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लोकतन्त्र में जब सत्ता को किसी जागीर की तर्ज पर चलाने का ख्वाब पाल लिया जाता है तो निष्कर्ष में हमें जो परिमाम मिलते हैं उनकी सारी जिम्मेदारी भी कथित जागीरदार को ही उठानी पड़ती है। अतः श्रीलंका में आज इसके पूर्व प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे के खिलाफ जो विद्रोह और जन आक्रोश उबल रहा है उसका कारण समझा जा सकता है। जन आक्रोश का असली कारण श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का सिरे से चौपट हो जाना है जिसमें भारत के ही दूसरे पड़ौसी देश चीन की भूमिका प्रमुख मानी जा रही है। इसकी वजह यह है कि बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था के भीतर अंधी विकास यात्रा की ललक में श्रीलंका ने अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति के विभिन्न स्रोतों को जिस तरह चीन के पास गिरवीं रखा उससे इसकी प्राप्त कर्ज की सेवा करने की क्षमता चुक गई और यह भयंकर ऋण चक्र में फंस गया। पारिवारिक राज व्यवस्था के चलते महिन्दा राजपक्षे के छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे के राष्ट्रपति बन जाने के बाद लोकतान्त्रिक सरकार के पारदर्शी स्वरूप को धत्ता बता दिया गया और संविधान की शर्त के अनुसार संसद में चुने गये जन प्रतिनिधियों की भूमिका केवल सत्ता और सरकार के अंध प्रशंसकों की बना दी गई। अतः एेसी व्यवस्था में जब अर्थव्यवस्था चारों खाने चित्त हो गई तो समाज में अराजकता का माहौल व्याप्त होने लगा और लोग संवैधानिक व्यवस्था के चरमराने की स्थिति में निजी तौर पर विद्रोह पर उतारू होते दिखने लगे। सरकार या सत्ता का मुख्य कार्य लोकतन्त्र में लोक कल्याण ही होता है और जब सरकार अपने ही बनाये गये ढांचे के भीतर इस दायित्व से पल्ला झाड़ने लगती है तो अऱाजक तत्व हमेशा एेसी िस्थति का लाभ उठाने के लिए आगे आ जाते हैं। श्रीलंका में आज यही हो रहा है। मगर इस पूरे मामले में भारत की विशिष्ट भूमिका है। एेतिहासिक रूप से श्रीलंका 11वीं शताब्दी तक दक्षिण के चोला वंशी राजाओं के साम्राज्य का हिस्सा रहा है। भारत के साथ इसके सांस्कृतिक व वाणिज्यिक सम्बन्ध बहुत गहरे रहे हैं। इसके तमिल व सिंहली नागरिकों के भारतीयों के साथ रोटी-बेटी के सम्बन्ध रहे हैं। सामाजिक स्तर पर यह मित्रता बहुत गहरी रही है जिसका धार्मिक आधार भी रहा है। द्रविड़ संस्कृति से लेकर बौद्ध संस्कृति तक भारत की धरती के साथ इस देश के लोगों की आत्मीयता बहुत गहरी रही है जो आज तक जारी है। इस देश की वाणिज्यिक क्षमताओं को भी पुर्तगालियों, डचों व अंग्रेजों ने दोहन किया और 14वीं शताब्दी से यह क्रम चलना शुरू हुआ तो 19वीं शताब्दी के आते-आते अंग्रेजों ने इसे अपना उपनिवेश लगभग भारत की तरह ही बनाने की रणनीति लागू की। अतः 1919 तक श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य में भारत का ही हिस्सा था और इसे सीलोन के नाम से जाना जाता था। अंग्रेजों ने भारत के समानान्तर ही इस देश की सीलोन नेशनल कांग्रेस पार्टी के स्वतन्त्रता आन्दोलन को बांटने के लिए भी तमिल व सिंहलियों के बीच फूट डालने की राजनीति पर चलना शुरू किया और आंशिक स्वतन्त्रता प्रदान करनी भी शुरू की। भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी इस देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर खासा प्रभाव पड़ा जिसका प्रमाण यह है कि सीलोन नेशनल कांग्रेस व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं के सम्बन्ध बहुत अच्छे रहे। मगर 1947 तक भारत की नई दिल्ली में बैठे अंग्रेज वायसराय ही इसका शासन चलाते थे मगर तब तक श्रीलंका मूल के नागरिकों को अपना शासन चलाने के कुछ अधिकार भी दे दिये गये थे। 1948 में अंग्रेजों ने इसे स्वतन्त्रता प्रदान की और अंग्रेजी साम्राज्य का स्वतन्त्र देश घोषित किया जो 1972 में जाकर गणराज्य घोषित हुआ और इसका स्वयंभू संविधान बना। यह सब इतिहास लिखने का उद्देश्य यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में हम श्रीलंका की राजनीतिक परिस्थितियों का बेलाग तरीके से आंकलन कर सकें और सुनिश्चित कर सकें कि इस माहौल में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए। पूरी दुनिया जानती है कि स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत की नीति यह रही है कि वह कभी भी ‘राजनीतिक सिद्धान्त या दर्शन’ के निर्यात के कारोबार में शामिल नहीं रहा है और इसका दृढ़ मत रहा है कि किसी भी देश के लोगों का ही यह विशेषाधिकार होता है कि उन्हें किस प्रकार की सत्ता मिले। इसी सिद्धान्त का पालन हमने 2007-08 में तब किया था जब पड़ौसी देश नेपाल में वहां के राजा के खिलफ आम जनता ने विद्रोह किया था। भारत का विश्वास रहा है कि जनता की इच्छा के मुताबिक ही किसी देश की शासन व्यवस्था होनी चाहिए। अतः श्रीलंका के लोगों की भलाई के लिए भारत की मोदी सरकार ने जो आर्थिक मदद दी है उससे श्रीलंका में राहत महसूस होगी मगर श्रीलंकाई नागरिक ही तय करेंगे कि उन्हें कैसी सरकार मिलनी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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