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जम्मू-कश्मीर का ‘राज्य-स्तर’

जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत माता का मुकुट कहा जाता है अतः इस राज्य…

10:49 AM Jan 21, 2025 IST | Aditya Chopra

जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत माता का मुकुट कहा जाता है अतः इस राज्य…

जम्मू कश्मीर का ‘राज्य स्तर’

जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत माता का मुकुट कहा जाता है अतः इस राज्य की राजनैतिक व सामाजिक-आर्थिक घटनाओं की विशिष्ट प्रासंगिकता स्वाभाविक है। परन्तु 5 अगस्त, 2019 से यह पूर्ण राज्य नहीं है और केन्द्र प्रशासित अर्ध राज्य है इसलिए इसमें होने वाली राजनैतिक घटनाओं का सीधा सम्बन्ध केन्द्र व राज्य दोनों से रहता है। स्वतन्त्र भारत में जम्मू-कश्मीर एेसा एकमात्र राज्य भी है जिसका रुतबा बजाये बढ़ने के घटा है। अतः इसमें बसने वाले नागरिकों के राजनैतिक अधिकारों के बारे में भी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। 5 अगस्त, 2019 को जब इस राज्य में लागू अनुच्छेद 370 को समाप्त किया गया था तो इसका विशेष रुतबा खत्म हो गया था। 26 अक्तूबर, 1947 को भारत की आजादी के बाद जब इसका विलय भारतीय संघ में हुआ था तो 370 को अस्थायी रूप से लागू करके इस राज्य के लोगों को विशेषाधिकार दिये गये थे। जिसके तहत इस राज्य का अपना अलग संविधान भी था और अलग ध्वज भी था। इस राज्य के मुख्यमन्त्री को 1964 तक प्रधानमन्त्री या वजीरे आजम कहा जाता था और राज्यपाल को सदरे रियासत बोला जाता था। मगर 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध से पहले ही यह व्यवस्था स्वयं जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने समाप्त कर दी थी। इससे यह साबित होता है कि राज्य के लोग देशभक्ति में भारत के अन्य राज्यों के लोगों से कमतर नहीं हैं। परन्तु 1989 से इस राज्य में पाकिस्तान ने आतंकवाद का जो दौर चलाया उससे इस राज्य की अपनी विशिष्ट संस्कृति पर विपरीत प्रभाव पड़ा और यहां हिन्दू-मुसलमान के आधार पर नागरिकों की पहचान करने की कोशिश की जाने लगी। जबकि मुस्लिम बहुल होते हुए यहां के लोगों ने भारत में विलय किया था। अतः यह भारत की समन्वित बहुधर्मी संस्कृति का ध्वज वाहक राज्य भी कहलाता था। किन्तु 370 के लागू होने की वजह से पाकिस्तान यहां अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा था जिसे जड़ से मिटाने के लिए केन्द्र की सरकार ने 370 को ही समाप्त कर दिया और इस राज्य को दो भागों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में विभाजित कर दिया। जम्मू-कश्मीर राज्य को राजधानी दिल्ली की तरह ही विधानसभा दी गई मगर पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया।

हम सभी जानते हैं कि पिछले दिनों यहां 2019 के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए और इनमें राज्य की कदीमी पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस की विजय हुई। राष्ट्र की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने यहां नेशनल काॅन्फ्रेंस के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा था। चुनावों के बाद नेशनल काॅन्फ्रेंस की सरकार में कांग्रेस पार्टी यह कह कर शामिल नहीं हुई कि जब तक जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता तब तक वह सरकार में शामिल नहीं होगी। चुनाव प्रचार के दौरान भी यह मुद्दा सुर्खियों में रहा। अब नेशनल काॅन्फ्रेंस कह रही है कि वह पंचायतों समेत नगर निकायों के चुनाव कराने में तब तक कोई दिलचस्पी नहीं लेगी जब तक कि सूबे को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता। राज्य में चुनी हुई पंचायतों का पांच वर्ष का कार्यकाल विगत वर्ष 2024 में जनवरी महीने में ही समाप्त हो चुका है जबकि जिला विकास परिषदों का कार्यकाल चालू वर्ष में समाप्त हो जायेगा। नेशनल काॅन्फ्रेंस के मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला का मानना है कि इन स्थानीय निकाय चुनावों का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक सूबे को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता। इसकी वजह यह है कि चुनाव कराने का अधिकार तो राज्य विधानसभा के पास है मगर स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से मदद करने का अधिकार केन्द्र द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के पास है।

वर्तमान में सूबे में बहुप्रशासनिक प्रणाली लगभग वैसी ही है जैसी कि दिल्ली में है। जाहिर है कि उमर अब्दुल्ला अपनी स्थिति वैसी देखना नहीं चाहते हैं जैसी कि दिल्ली के मुख्यमन्त्री की है। वह चाहते हैं कि जब केन्द्र सरकार सूबे को पूर्ण राज्य का स्तर देने से बंधी हुई है तो उसे यह कार्य जल्दी से जल्दी करना चाहिए। दूसरी तरफ केन्द्र बेशक इस वादे से बंधा हुआ है मगर वह हर कदम फूंक-फूंक कर रखना चाहता है। राज्य में पाकिस्तान की तरफ से आतंकवादियों की घुसपैठ अभी तक बन्द नहीं हुई है और लगभग हर महीने जम्मू-कश्मीर से सुरक्षा बलों पर हमले की खबर आ ही जाती है। जाहिर है कि केन्द्र सरकार सबसे पहले राज्य को आतंकवाद मुक्त राज्य बनाना चाहती है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्वयं गृहमन्त्री अमित शाह ने संसद में यह आश्वासन दिया था कि केन्द्र सूबे को पूर्ण राज्य का दर्जा देगा। अर्ध राज्य का उसका रुतबा अस्थायी है। उमर अब्दुल्ला चाहते हैं कि केन्द्र सरकार अपना वादा पूरा करे और केन्द्र चाहता है कि पहले आतंकवाद पर पूरी तरह काबू हो। स्थानीय निकायों के चुनावों में देरी की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि इन चुनावों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के मुद्दे पर सरकार ने एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग की रिपोर्ट भी अभी तक नहीं आयी है।

370 हटने से पहले राज्य में किसी वर्ग के लिए किसी भी आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी। मगर इसके हटने के बाद उन सभी वर्गों के लोगों को आरक्षण मिलने लगा है जिसकी व्यवस्था भारतीय संविधान में है। जिला पंचायतों व जिला विकास परिषदों के चुनाव केन्द्र सरकार ने 2019 के बाद करा कर राज्य में लोकतान्त्रिक पद्धति को जीवन्त बनाया था जिसके तहत 35 हजार जनप्रतिनिधि चुने गये थे। मगर एेसा माना जाता है कि इसका ज्यादा असर जमीन पर नहीं हुआ। यह भी एक वजह है कि नेशनल काॅन्फ्रेंस पहले पूर्ण राज्य का दर्जा चाहती है जिससे राज्य सरकार सीधे जिला पंचायतों को निर्देशित कर सके।

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Aditya Chopra

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