स्वामी विवेकानंद की लाहौर यात्रा
वह नवम्बर का ही महीना था। वर्ष था 1897, जब प्रख्यात चिंतक, विचारक व अध्यात्म-गुरु स्वामी विवेकानंद ने लाहौर की यात्रा की थी। वहां इस यात्रा के मध्य उन्होंने तीन व्याख्यान दिए थे। जब उनकी लाहौर-यात्रा का कार्यक्रम बना, तब सबसे बड़ी समस्या उन्हें ठहराने व उनके प्रवचनों के लिए मंच तैयार करने की थी। स्वामी जहां भी जाते, उनके शिष्यों की टोलियां भी साथ-साथ जाती थीं। उनकी संख्या भी सैकड़ों में होती थी। आखिर निर्णय यही हुआ कि उन्हें हीरामंडी क्षेत्र में स्थित राजा ध्यान सिंह डोगरा की हवेली में ठहराया जाए।
नवंबर (1897) में स्वामी विवेकानंद अपने शिष्यों के साथ आए तो उन्हें हीरामंडी स्थित राजा ध्यान सिंह की हवेली में ही ठहराया गया, जहां अतीत में जगद्गुरु शंकराचार्य भी ठहरे थे। गोस्वामी जी (तीर्थराम) और उनके शिष्यों ने उनके व्याख्यानों की व्यवस्था भी उसी स्थान पर की थी। वहां काफी खुला स्थान था फिर भी वहां इतनी भीड़ होती थी कि सभी लोगों को जगह देना संभव नहीं था। सौभाग्य से प्रो. बोस का सर्कस उन दिनों लाहौर में आ गया था। कोई विकल्प न होने के कारण स्वामी जी का व्याख्यान सर्कस के पंडाल में ही आयोजित करना पड़ा।
गोस्वामी जी ने बड़ी रुचि और उत्साह से उनके व्याख्यान सुने और दूसरों को भी उन्हें सुनने के लिए प्रेरित किया। वे स्वामी विवेकानंद जी के इतने घनिष्ठ हो गए कि उन्हें अपने निवास पर रात्रि भोज के लिए भी ले आए। उनके पाश्चात्य शिष्यों ने भी वहीं भोजन किया। भोजन करने के बाद विदा लेने से पहले स्वामी जी ने गोस्वामी जी के निजी पुस्तकालय में झांका और एक पुस्तक भी उठाई। पंजाबियों के खून में यह सामान्य है कि वे किसी भी अतिथि या पवित्र व्यक्ति की पूरी तरह से सेवा करते हैं और उन्हें सबसे प्रिय चीजें उपहार में देने की कोशिश करते हैं। इसलिए गोस्वामी जी ने उन्हें अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु, एक सोने की घड़ी दी लेकिन स्वामी जी ने इसे गोस्वामी जी की जेब में वापस रखते हुए कहा कि वे 'इसे स्वयं उपयोग करेंगे’। यद्यपि स्वामी विवेकानंद एक प्रख्यात वेदांती और बहुत उच्च कोटि के संन्यासी थे, फिर भी उन्होंने चंडी-पाठ कभी नहीं छोड़ा। वे बड़े चाव से इसका पाठ करते थे।
उन दिनों वहां के एक धनाढ्य धर्मपरायण व्यावसायी लाला हुकूमत राय गोस्वामी जी के विशेष रूप से जुड़े हुए भक्त थे। वह ही गोस्वामी जी के निर्देशों के अनुसार व्याख्यानों की व्यवस्था करते थे। वह गोस्वामी जी के साथ स्वामी विवेकानंद से भी मिलने जाते थे। गोस्वामी जी की यह प्रथा थी कि जब कोई प्रसिद्ध वक्ता लाहौर आता था, तो वे भक्तजी (हुकूमत रायजी) और पंडित लड्ढा मल मुरलीवाला को बुलाते थे। इसी क्रम में पंडित लड्ढा मल जी को बुलाया गया। लेकिन वह उस दिन आया जब अगले ही दिन स्वामी जी को कोलकाता के लिए प्रस्थान करना था। उस दिन गोस्वामी जी स्वामी जी से मिलने वाले थे। इसी बीच लड्ढामल जी भी आ गए और उनके साथ स्वामी जी के पास गए। रात में उनके बीच विचार-विमर्श हुआ। स्वामी विवेकानंद जी पंडित जी की योग्यता देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा कि यदि वे उनके साथ कोलकाता चलें तो वे उनके लिए 200 रुपये मासिक वेतन की व्यवस्था कर देंगे, लेकिन पंडित जी नहीं माने। अंत में स्वामी जी ने पंडित जी को एक पाउंड स्टर्लिंग (गिनी) और एक रेशमी पगड़ी भेंट करते हुए कहा कि गांवों में तो पंडित जी जैसे योग्य व्यक्ति कम ही मिल पाते हैं। लेखक, गोस्वामी तीर्थ राम (बाद में स्वामी राम तीर्थ) के भतीजे, गोस्वामी बृजलाल भी उनके साथ वहीं रहते थे। बाद में उन्होंने अपने चाचा (स्वामी रामतीर्थ) की उर्दू में एक जीवनी लिखी (लाहौर से प्रकाशित, 1912)। उस समय गोस्वामी तीर्थराम लाहौर के एक कॉलेज में गणित के प्रोफेसर थे और बाद में स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर संन्यासी बन गए।
(रायपुर केंद्र से प्रकाशित रामकृष्ण संघ की हिंदी मासिक पत्रिका विवेक ज्योति के संपादक, स्वामी विदेहात्मानंद ने वेदांत केसरी के लिए यह जानकारी प्रदान की है)। गोस्वामी बृजलाल द्वारा 'स्वामी विवेकानंद के संस्मरण’ भी उन्हीं दिनों लाहौर से प्रकाशित हुई। स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में लाहौर की यात्रा की थी, जहां उन्होंने तीन महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए। इन व्याख्यानों में उन्होंने अद्वैतवाद के महत्व पर जोर दिया और लोगों को उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए, का चर्चित संदेश दिया जो राष्ट्रीय जागृति और सामाजिक सुधार के लिए एक क्रांतिकारी आह्वान था। 1897 में स्वामी विवेकानंद ने अपनी इस लाहौर की यात्रा के मध्य अपने व्याख्यानों में कुछ महत्वपूर्ण विषयों को छुआ था। उन्होंने यहां तीन प्रमुख व्याख्यान दिए-
'कॉमन बेसिस ऑफ हिंदूइज्म’ (5 नवंबर को दिया गया)
'भक्ति’ (विषय पर व्याख्यान 9 नवंबर को दिया गया)
‘वेदांत’ (इस विषय पर 12 नवंबर को विशिष्ट प्रवचन दिया गया)
उनका 'वेदांत’ पर दिया गया व्याख्यान एक गहन और प्रभावशाली भाषण था जिसकी डिजिटल प्रति 40 पृष्ठों में प्राप्त है और आज भी लोगों को प्रेरित करती है।
अद्वैतवाद का संदेश
उन्होंने लाहौर के युवाओं को अद्वैतवाद का ध्वज उठाने का आह्वान किया, यह समझाते हुए कि सभी में एक ही परमेश्वर विद्यमान हैं।
राष्ट्रीय जागृति का आह्वान
‘उठो, जागो, और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए’, का नारा राष्ट्रीय चेतना और जागृति का एक शक्तिशाली आह्वान था जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर जोर देता था।
आंतरिक शक्ति पर जोर
उन्होंने लोगों से हिंदू ग्रंथों से सीखकर अपनी कमजोरी की स्थिति से बाहर निकलने का आग्रह किया क्योंकि वे मानते थे कि कोई भी व्यक्ति स्वाभाविक रूप से कमजोर नहीं है। स्वामी जी ने लाहौर में आर्य समाज और सनातन धर्म सभा के सदस्यों से मुलाकातें की और उनसे विचारों का आदान-प्रदान किया।
इन महत्वपूर्ण व्याख्यानों के बाद, स्वामी विवेकानंद देहरादून की ओर निकले और अपने भविष्य के कार्यों को जारी रखा। स्वामी विवेकानंद का पंजाब से सीधा जुड़ाव कम रहा लेकिन वे पंजाबियों के स्वभाव और उनकी ‘पंजाबियत’ के कायल थे, खासकर लाहौर में उन्होंने एक विशाल जनसमूह के बीच ऐतिहासिक व्याख्यान दिया था और बार-बार दोहराया था कि उन्हें स्वीकार भी किया था कि पंजाब से खास लगाव था। उन्हें पंजाब के लोगों के आत्मबल और उनकी प्रेरणादायक क्षमता में विश्वास था और उन्हें अपने आदर्शों के लिए एक मजबूत आधार मिला था। उन्हें पंजाब के लोगों के भीतर आत्मबल और प्रेरणादायक क्षमता की शक्ति का एहसास था। वर्ष 1897 में लाहौर में एक बड़े जनसमूह के सामने उन्होंने अपना ऐतिहासिक व्याख्यान दिया जिससे उनका जुड़ाव बना और लोगों में संदेश पहुंचा।
अपनी यात्राओं के दौरान वे कई राज्यों और शहरों से गुजरे लेकिन पंजाब उनके जीवन में उतना प्रत्यक्ष नहीं रहा जितना दक्षिण भारत का मद्रास या राजस्थान का अलवर लेकिन पंजाब के लोगों के साथ स्वामी विवेकानंद का अपना एक खास रिश्ता था। वे भारतीय संस्कृति की पहचान को लेकर पंजाब के लोगों के योगदान को लेकर सदा उत्सुक रहते थे।