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दबे पांव नहीं आया स्वाइन फ्लू

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07:51 AM Feb 06, 2019 IST | Desk Team

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जिस तरह से स्वाइन फ्लू का प्रकोप देशभर में बढ़ा है उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। यूं तो स्वाइन फ्लू, डेंगू जैसे मौसमी रोग हर साल दस्तक देते हैं, इनसे मौतें भी होती हैं लेकिन इस बार न केवल पहाड़ी राज्यों हिमाचल, उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना और गुजरात में भी इसने पांव फैला दिये हैं। जहां तक राजधानी दिल्ली का सवाल है, वह तो हमेशा से पीड़ित रही है। राजस्थान में मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। दिल्ली में पिछले एक हफ्ते में 479 नये मामले दर्ज किये गये थे लेकिन अब इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या एक हजार से ऊपर चली गई है। राजधानी में अब तक कम से कम 18 लोगों की मौत हो चुकी है। डेंगू ने एक बार फिर दस्तक दे दी है। वैसे तो डेंगू पिछले दो वर्षों से बेमौसम ही दस्तक देता आ रहा है। यह बीमारी सामान्यतः जुलाई से नवम्बर माह के बीच लोगों को संक्रमित करती है लेकिन अबकी बार इसने जनवरी में ही अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है। मौसमी समझी जाने वाली बीमारी ने लगभग आधे देश को चपेट में ​ले लिया है।

सियासत की गर्मागर्मी में बड़े-बड़े मुद्दे उछाले जा रहे हैं। धार्मिक प्रतीकों को लेकर नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। चुनावी अंक गणित के चलते धुआंधार बयानबाजी की जा रही है लेकिन देश में फैल रही बीमारी की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। किसान और आम इन्सान की गरीबी से लेकर अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर गढ़ने की कोशिश की जा रही है लेकिन नारों के कोलाज के बीच बीमारी से मरने वालों की बढ़ती संख्या महज एक खबर बनकर रह गई है। ऐसा नहीं है कि स्वाइन फ्लू कोई दबे पांव आया है या उसने अचानक जोर पकड़ लिया है। सबसे पहले स्वाइन फ्लू की शुरूआत मैक्सिकाे में हुई थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसने भारत जैसे कई देशों में कहर ढहाया है। भारत में इसका सबसे गंभीर प्रकोप 2010 में देखा गया, जब लगभग बीस हजार लोग इसकी चपेट में आ गये थे। तब इस बीमारी के लक्षणों, प्रभावों और उपचार को लेकर बहुत जागरूकता नहीं ​थी और यही वजह है कि उस वर्ष करीब 1700 लोगों की जान चली गई थी। अब तो इसके लक्षणों की पहचान और उपचार को लेकर सब कुछ साफ हो चुका है फिर भी इस बीमारी का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है।

स्वाइन फ्लू जिसे एच-1एन-1 के नाम से जाना जाता है, खासतौर पर यह सूअरों के श्वासन तंत्र से निकले वायरस के कारण होता है। यह वायरस अब केवल सूअरों तक सीमित नहीं है। इसने इंसानों के बीच फैलने की क्षमता हासिल कर ली है। अभी तक स्वाइन फ्लू की कोई वैक्सीन नहीं बनी है, लेकिन इसमें एंटीवायरल दवाइयां ही काफी मदद करती हैं। इसकी जद में आने वाले मरीजों की कई बार जान पर बन आती है या फिर स्थिति गंभीर होने पर मौत भी हो जाती है। जब हर साल बीमारी दस्तक देती है तो सरकारी स्वास्थ्य विभाग पहले से ही सतर्क क्यों नहीं होता। स्वास्थ्य विभाग तब जागता है जब बीमारी बेलगाम हो जाती है। जरूरत इस बात की है कि बीमारी से बचने के लिये पूर्व में ही प्रबन्ध किये जायें। हर अस्पताल और स्वास्थ्य केन्द्रों पर दवाइयों की उपलब्धता हो। इसके साथ ही इससे बचने पर वक्त रहते पहचान के लिये जागरूकता कार्यक्रम चलाये जायें। सर्दी के दिनों में स्वाइन फ्लू का वायरस अधिक सक्रिय रहता है।

जिला चिकित्सालयों में आइसोलेशन वार्ड पहले से ही तैयार रखने चाहिएं। इस बार राज्यों ने दवाइयों और रोग पहचान किट की भी कोई मांग नहीं की है। स्पष्ट है ​कि उनके पास दवाइयों की कोई कमी नहीं होगी लेकिन फिर भी मौतें क्यों हो रही हैं। दूसरी तरफ लोगों में भी जागरूकता का अभाव है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने स्वच्छता को लेकर एक अभियान चलाया लेकिन वह भी एक रस्म बनकर रह गया। लोग अपना घर तो साफ रखना चाहते हैं लेकिन घरों का कूड़ा खुले में बाहर डाल देते हैं। जिन क्षेत्रों में सूअर पाले जाते हैं वहां यह वायरस होता है। प्रशासन को इन क्षेत्रों पर पहले ही नजर रखनी चाहिए। लोगों के पास इस बीमारी की रोकथाम के लिये इतने आयुर्वैदिक नुस्खे हैं कि वह खुद भी उन्हें अपनाकर स्वस्थ रह सकते हैं।

भगवान भी उनकी मदद करते हैं, जो अपनी मदद खुद करते हैं। इसलिये उन्हें स्वयं घर और बाहर की स्वच्छता पर ध्यान देना होगा। निजी हैल्थ सैक्टर तो हर बीमारी पर मरीजों को डराने लगता है। भारी भरकम टैस्ट कराये जाते हैं। लाखों का बिल थमाया जाता है। प्राइवेट अस्पताल तो लूट का अड्डा बन चुके हैं। आम आदमी सामान्य जुकाम और बुखार और स्वाइन फ्लू के लक्षणों में भेद इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि इनके लक्षणों में बड़ा अंतर नहीं है। जब बीमारी का प्रकोप घटता है तो स्वास्थ्य विभाग भी नि​ष्क्रिय हो जाता है, लोग भी सावधानी छोड़ देते हैं। मामूली सावधानियां बरत कर लोग अपनी जान बचा सकते हैं, फिर भी लोग क्यों मर रहे हैं। इसके लिये लोगों को खुद भी सोचना होगा।

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